नेताजी का हार्दिक स्वप्न (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | Feb 29, 2024

सर्दी का मौसम खत्म होने वाला हो और चुनाव की बहार शुरू तो बहुत से बंदे आदमी से नेता होने लगते हैं। उनके कपड़े बदल जाते हैं। वे टोपी पहनने लगते हैं। गले में गमछे लटकने शुरू हो जाते हैं। लोकतांत्रिक देश का आम व्यक्ति पहले नेता, मेहनत कर विधायक फिर ज्यादा मेहनत के बल पर मंत्री बन जाए तो उनका राजनीतिक अभिनन्दन होना ज़रूरी हो जाता है।


नेताजी ने ख्बाब लेने शुरू कर दिए थे। मान लीजिए उन्हें चुनाव में जीत हासिल हो गई। उन्होंने खुद दिलचस्पी लेकर प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक परम्परा को वर्तमान में भी निभाते हुए अनेक स्वागत द्वार व ढेर सारे लड्डू बनवाए। आधा ट्रक गेंदे के फूलों की मालाएं मंगाई। शहर में कई जगह उन्हें डंडों पर सलीके से टांग दिया गया। उनके सभी चेलों ने सुनिश्चित कर लिया कि कौन कौन मालाएं पहनाएगा। यह भी ध्यान रखने को कहा गया कि कहीं विपक्षी पार्टी का बंदा इस मौका पर शामिल न हो जाए। सही मुहर्त पर आत्ममुग्ध, मुस्कुराते नेताजी पधारे और मालाएं उनके गले की शोभा बनती रही। समय हमेशा की तरह कम था मालाएँ ज्यादा इसलिए पहनते ही उतरती गई। खूब फ़ोटोज़ खिंचवाई गई सेल्फियों की मदद ली गई। कुछ ही देर में हर कहीं मालाओं के ढेर लग गए। मालाएं यहां वहां गिरी और जूतों के नीचे दबी मसली गई। 

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कुछ देर बाद गेंदे के फूलों को बुरा लगने लगा वे एक दूसरे को दुख भरी पंखुड़ियों से देखने लगे। एक व्यक्ति पूछ रहा था, ये हार यहां लटके हुए रह गए, पहनाए नहीं नेताजी को। दूसरा बोला किसी ने पहना दिए कोई रह गया फिर सारे फूल तो नेताजी घर भी नहीं ले जा सकते। बाद में कौन पूछता है जो बंदा फोटो या सेल्फी ले उसी को याद रहता है नेताजी को कहां याद रहता है। गेंदे के फूल ही तो हैं महंगे गुलाब तो नहीं यहां तो आदमी को नहीं पूछते फूल क्या है। इंसानी जिस्म जिसकी दुनिया दीवानी है को हवस मिटाकर कचरे की मानिंद फेंक देते हैं। एक बुज़ुर्ग फूल ने कहा, हमारी ज़िंदगी भी मज़ाक है। पहले अच्छे अच्छे ढूंढ कर लाए जाते हैं। मुंह मांगे दामों में बिकते हैं। हमें खरीदते ही खरीदने वाले का स्वार्थ शुरू हो जाता है। 


इतने हार पहनने और संभालने आसान नहीं इसलिए समय व अवसरानुसार पुराने उतार दिए जाते है और नए पहना दिए जाते है। जैसे पीते पीते जाम बदल जाते हैं आस्था और समर्पण भी। नेता भी प्रेम अभिनय से पुती हंसी हंस कर सबके साथ फोटो खिंचवाते हैं। फूल बोले, बेबस हैं हम आम जनता की तरह ही, तोड़ा जाना फिर मसला जाना हमारी नियति है। इंसान इंसान की दर्द भरी बातें सुन समझ नहीं पा रहा फूलों की बातें कौन सुनना चाहेगा। नेताजी का स्वप्न जारी था उन्हें लगने लगा कि आदमी नेता हो सकता है नेता का आदमी बने रहना मुश्किल होता है।  


- संतोष उत्सुक

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