By संतोष पाठक | Jun 15, 2023
देश में ब्रिटिश काल के दौरान हुए चुनावों में जिन्ना की पार्टी मुस्लिम लीग के आक्रामक प्रचार अभियान के बावजूद भी मुस्लिम वोटरों का एक बड़ा तबका कांग्रेस को ही वोट दिया करता था। 1947 में देश आजाद हुआ। जिन्ना की मुस्लिम लीग को पाकिस्तान मिल गया लेकिन आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में हुए चुनावों में मुसलमानों ने पूरी तरह से कांग्रेस को ही वोट किया। कांग्रेस ने ब्राह्मण सहित कई अगड़ी जातियों, मुसलमानों और दलितों के बड़े वोट बैंक के आधार पर दशकों तक देश पर राज किया।
1967 में विपक्षी दलों की गोलबंदी के कारण कई राज्यों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को पहली बार केंद्र की सत्ता से बाहर होना पड़ा। लेकिन सही मायनों में कांग्रेस के कमजोर होने की शुरूआत 1990 के दशक में ही शुरू हुई। जब मुसलमान वोटरों ने जेपी के आंदोलन से निकले और आगे चलकर मंडल की राजनीति के पुरोधा बने मुलायम सिंह यादव और लालू यादव को अपना नेता मान कर, उन्हे वोट देना शुरू किया। मुस्लिम वोटर पहले जनता दल के खाते में गए और जैसे-जैसे जनता दल से टूटकर नए-नए दल बनते चले गए वैसे-वैसे मुस्लिम वोटर भी उनके साथ जुड़ते चले गए। इसके बाद दलित वोटर भी कांग्रेस का साथ छोड़कर बसपा के साथ चले गए। बसपा ने कांशीराम के जमाने में देश की राजनीति में सबसे पहला धमाका पंजाब में किया और उसके बाद देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की राजनीति में आकर जम गई। आज भी अपने सबसे मजबूत गढ़ उत्तर प्रदेश में कमजोर होने और लगातार चुनाव हारने के बावजूद लोकसभा में बसपा के 10 सांसद है। सबसे बड़ी बात यह है कि उत्तर प्रदेश के अलावा बसपा देश के जिस राज्य में भी चुनाव लड़ती है, वहां भी उसे 5 से 8 फीसदी वोटरों का वोट मिलता है जो आमतौर पर दशकों तक कांग्रेस को वोट करता रहा है। कांग्रेस के लगातार कमजोर होने और दिशाहीन होते चले जाने के बाद सबसे आखिर में ब्राह्मण वोटरों ने भी उनका साथ छोड़ दिया। लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि कई वजहों से धीरे-धीरे कांग्रेस फिर से अपने पुराने वोट बैंक को लुभाती नजर आ रही है।
सबसे पहले बात देश के एक बड़े वोट बैंक की करते है जिसके बारे में यह माना जाता है कि वो थोक में एक साथ वोट करते हैं- मुस्लिम वोटर। देश की तेजी से बदल रही राजनीतिक स्थिति के मद्देनजर अब ऐसा दिखाई दे रहा है कि देश के वोटरों का अब क्षेत्रीय दलों से मोहभंग होता जा रहा है और मुस्लिम वोटर एक बार फिर से कांग्रेस का हाथ थामने की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हमें दक्षिण भारत के राज्य कर्नाटक के विधानसभी चुनाव में देखने को मिला। कर्नाटक की राजनीति में आमतौर पर मुस्लिम वोटर कांग्रेस और जेडीएस में बंटे हुए थे। लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव में कर्नाटक के मुस्लिम वोटरों ने जेडीएस का साथ छोड़कर पूरी तरह से कांग्रेस उम्मीदवारों के पक्ष में वोट किया और इस का नतीजा यह रहा कि दक्षिण भारत के अपने सबसे मजबूत गढ़ में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा और एक शानदार जीत के साथ कांग्रेस ने राज्य में सरकार का गठन किया। कर्नाटक की जीत ने कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं के मनोबल और उत्साह को इतना बढ़ा दिया कि अब उन्हें इसी वर्ष होने वाले राजस्थान,मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी जीत की संभावना नजर आने लगी है। मुस्लिम वोटरों का किस तरह से क्षेत्रीय दलों के साथ मोहभंग होता जा रहा है और ये समुदाय किस तरह से कांग्रेस के साथ जुड़ता नजर आ रहे हैं, इसकी एक बानगी पश्चिम बंगाल में भी देखने को मिली।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कोलकाता से लेकर दिल्ली तक भाजपा के खिलाफ जोरदार तरीके से लड़ रही है तो इसके पीछे एक बड़ी वजह मुस्लिम वोट बैंक को माना जाता है। भाजपा तो बाकायदा यह आरोप लगाती रहती है कि मुस्लिम वोटरों को खुश रखने के लिए ममता बनर्जी किसी भी हद तक जा सकती है। बंगाल के मुस्लिमों को टीएमसी का कट्टर समर्थक माना जाता है लेकिन इसके बावजूद राज्य के लगभग 59 फीसदी मुस्लिम वोटरों वाली विधानसभा- सागर दिघी में हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने ममता बनर्जी के उम्मीदवार को हरा कर यह सीट छीन ली। मतलब मुस्लिम वोटरों ने टीएमसी की बजाय कांग्रेस को वोट किया।
मुस्लिम वोटरों का कांग्रेस की तरफ हो रहा यह झुकाव क्षेत्रीय दलों के लिए खतरे की घंटी है। कर्नाटक में जेडीएस का हाल सबसे देख ही लिया है। अगर 2024 में भी यही ट्रेंड जारी रहा तो कांग्रेस उत्तर प्रदेश और बिहार सहित कई राज्यों में कमाल कर सकती है। सबसे खास बात यह है कि लोकसभा चुनाव में इन राज्यों में कांग्रेस की जीत का असर इसके तुरंत बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में शायद उतना न पड़े लेकिन अगर यह ट्रेंड जारी रहा, कांग्रेस, सपा-आरजेडी के ओबीसी जनगणना के जाल में फंसने से बच कर मुस्लिम वोटरों के साथ-साथ अगड़ी जातियों और कुछ हद तक दलितों को भी लुभाने में कामयाब रही तो फिर कई क्षेत्रीय दलों के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाएगा।
- संतोष पाठक
वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार