By डॉ. रमेश ठाकुर | Oct 11, 2022
विधि का मुकम्मल विधान तो यही है कि जो आया है वो जाएगा। लेकिन जाने वाला अपने जीते जी करके क्या गया? ये सवाल परलोकी होने के बाद बहुत मायने रखता है। जब क्या करने की बात कही जाएगी तो सियासी अखाड़े का अपराजेय खिलाड़ी मुलायम सिंह उर्फ नेताजी के लिए बोलने वाले और कागज़ पर उकेरने वाले शब्दों का शायद अकाल पड़ जाएगा। जुबान भी निशब्द हो जाएगी। ऐसा उस वक्त सभी को हुआ जब समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह के नहीं रहने की खबर गुरुग्राम स्थित मेदांता अस्पताल से निकली। बीमार चल रहे थे, उम्मीद थी ठीक हो जाएंगे। पर, शायद नियति को कुछ और मंजूर था। शायद उनके जीवन की यात्रा पूरी हो चुकी थी।
सोमवार सुबह 8 बजकर 16 मिनट पर उन्होंने अंतिम सांस ली और इस नश्वर शरीर और संसार को हमेशा-हमेशा के लिए त्याग दिया। हम-आप कईयों के पास नेताजी से जुड़े किस्से-कहानियों का स्मरण रूपी खज़ाना होगा, जिसमें कुछ ऐसा होगा जिसमें उनसे जुड़ी कई यादें होंगी। नेताजी के जीवन के कई सफल अध्याय रहे, जिनमें एक शिक्षक, पहलवान व राजनीति की भूमिका अग्रणी रही। उन्हें अच्छा राजनीतिक रणनीतिकार माना जाता था। जनता को अपने बस में करने की कला उनमें कूट-कूट कर भरी थी। उनकी बातों में झूठ व दिखावा नहीं होता था। वास्तविकता झलकती थी। शुरू में वह राजनीति से खासा घृणा करते थे। लेकिन कुछ ऐसा हुआ कि राजनीति को ही उन्होंने अपना पेशा बनाया। जेपी आंदोलन से उनकी राजनीति का आरंभ हुआ। आंदोलन के बाद उन्होंने समाजवादी पार्टी की नींव रखी, बूंद-बूंद पानी की भांति कुनबा इकट्ठा किया। सबसे पहले अपने मूल क्षेत्र इटावा के लोगों को जोड़ा।
इटावा के बाद धीरे-धीरे प्रदेश भर के समाजवादी विचारधारा के लोगों को अपने साथ जोड़ा। इसके लिए उन्होंने गांव-खेड़ा, कस्बे व शहरों में जा-जा कर लोगों के भीतर राजनीतिक जागरूकता की अलख जगाई। तब उन्होंने कुछ ऐसा देखा, समझा और एहसास किया कि मुल्क में जो राजनीति हो रही है उससे समाज के निचले, मजलूम, गरीब और असहाय तबके के लोगों का भला नहीं होगा। तब उन्होंने ऐसे लोगों के लिए पहलवानी का अखाड़ा छोड़ा और कूद पड़े रातोंरात सियासी मैदान में और ठोक दी ताल। राजनीति में आने से पहले भी उनका जीवन अच्छा था, जीवन यापन के लिए सभी जरूरतें पूरी होती थीं, ज्यादा मगजमारी की आवश्यकता नहीं थी, लेकिन उनसे मजलूमों का दरदरा जीवन नहीं देखा गया। विशेषकर यादव समाज का, जिन्हें वो आगे ले जाना चाहते थे, उनको लगता था कि जैसे दूसरे सियासी दल अपनों का भला करना चाहते हैं, तो वह क्यों पीछे रहें? हालांकि बाद में उन्होंने अपनी इस सोच को त्यागा और सर्व समाज के लिए खुद के जीवन को न्यौछावर कर दिया।
मुलायम सिंह यादव का सियासी कॅरियर अनुभवों के समुद्र से भरा है। 8 बार विधायक रहे, 7 बार सांसद बने, 3 दफे सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद संभाला, उसके अलावा केंद्र सरकार में तीसरा सबसे महत्वपूर्ण पद रक्षा मंत्री को भी सुशोभित किया। रक्षा मंत्री रहते हुए भी उन्होंने अपनी ऊर्जा का अच्छे से इस्तेमाल किया। मुलायम सिंह के संबंध सभी दलों के साथ अच्छे रहे। बीते 2 अक्टूबर से वह मेदांता अस्पताल में भर्ती थे, उन्हें देखने वालों का तांता लगा रहा। गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से लेकर मोदी मंत्रिमंडल के तमाम मंत्री समय-समय पर उनका हालचाल जानने अस्पताल पहुंचते रहे। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके पुत्र व वर्तमान समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव से फोन पर मुलायम सिंह यादव की दो दफे खैरियत जानी। इसके सिवाय किसी दल का कोई नेता ऐसा नहीं, जिन्होंने उनका हालचाल ना जाना हो। यही, वजह है कि आज समूचा हिंदुस्तान अपने प्रिय समाजवादी नेता के चले जाने से स्तब्ध है।
चाहने वालों ने ही मुलायम सिंह को नेताजी की उपाधि दी थी। उनके चाहने वाले उनको नाम से नहीं पुकारते थे, नेताजी कहते थे। मुलायम सिंह अपने नाम जैसे ही मुलायम थे। तभी उनके अराजनीतिक विरोधियों से भी अच्छे रिश्ते रहे। बेशक विपक्षी दल उन पर विशेष समुदाय की तरफ झुकाव होने का आरोप लगाते रहे, पर उन्होंने कभी किसी की परवाह नहीं की। भारतीय जनता पार्टी और विशेषकर आरएसएस के कार्यकर्ता उन्हें सदैव मौलाना मुलायम कहते आए, पांचजन्य में उनका यही नाम छापा जाता रहा। बावजूद इसके संघ प्रमुख भी उनसे मिलने जाते थे। राजनीति करने का उनका एक अलग अंदाज होता था, अपनी सरल सादगी को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराने के दौरान रामभक्तों पर पुलिसिया कहर बरपाने जैसे आरोप उन पर लगे। इस मुद्दे को भाजपा ने राष्ट्रीय मुद्दा भी बनाया, जिसका उन्हें खूब फायदा भी हुआ था। उन्हें हिंदू विरोधी और राम मंदिर के विरुद्ध भी बताया जाता रहा। लेकिन वह ऐसे आरोपों से कभी विचलित नहीं हुए, समाज सुधार के लिए उनका प्रयास हमेशा जारी रहा।
पत्रकारों से उनके रिश्ते सदैव पारिवारिक रहे। मंदिर निर्माण जैसे मुद्दों पर पत्रकार उनसे तीखे सवाल करते रहे, विभिन्न तरह के आरोप भी लगाते रहे, कई बार नाराज भी हो जाते थे। पर, कभी भी उन्होंने निजी रिश्तों में कोई खटास नहीं आने दी। दरअसल, उनकी राजनीति करने का अंदाज और दोस्ती निभाने का तरीका औरों से अलहदा हुआ करता था। दोस्ती करते-करते दुश्मन बन जाते थे और दुश्मनी करते करते दोस्त। वह गांव के गरीब और देहाती लोगों के हितैषी शुरू से अंत तक रहे। जनता शायद अब उन जैसे जमीनी और मेहनती नेता को शायद ही देख पाए। अब राजनीति वातानुकूलित कमरों में बैठकर होती है, जनता के बीच जाना कोई पसंद नहीं करता था। लेकिन नेताजी हमेशा इसके पक्षधर रहे। कार्यकर्ताओं की बैठक में वह हमेशा ये बात कहते थे कि राजनीति करनी है तो जनता के बीच जाना होगा। उनके साथ रहना होगा, दूरी नहीं बनानी है। सियासत के इस पहलवान के चले जाने से खालीपन आएगा, उसकी भरपाई शायद ही हो पाए।
-डॉ. रमेश ठाकुर