बहकी बहकी किताबें (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Jun 10, 2023

वे किताबें नालों में पड़ी लोट रही थीं। पहले लगा हो न उन किताबों में शराब की प्रचार-प्रसार सामग्री छपी होगी। उनमें भी नशा चढ़ गया होगा। इसीलिए उनका यह हाल हो रहा है। बाद में किसी भलमानुस ने बताया कि इन्हें बच्चों तक पहुँचाना था। स्कूल जो शुरु होने वाले हैं। किताबें भी सोचने लगीं- मज़िल थी कहीं जाना था कहीं तक़दीर कहाँ ले आई है। कहने को तो स्मार्ट सिटी में हैं, फिर यह स्वच्छ भारत अभियान के पोस्टर के साथ इस नाले में क्या कर रही हैं? बाद में उन्हें समझ में आया कि स्मार्ट होने का मतलब शायद यही होता होगा।


किताबें आपस में बातें करने लगीं। थोड़ी पतली सी एकदम स्लिम ब्यूटी की तरह लग रही अंग्रेजी की किताब ने कहा– वाट इज हैपिनिंग हिअर? आयम फीलिंग डिस्गस्टिंग। तभी हिंदी की किताब जो थोड़ी सी मोटी लेकिन वाचाल लग रही थी, बीच में कूद पड़ी– अरे-अरे देखिए मैम साहब के नखरे। तुमको डिस्गस्टिंग लग रहा है। तुम्हारे चलते मेरे भीतर से कबीर, तुलसी की आत्मा निकाल दी गई है। बच्चे मुझे पाकर न ठीक से दो दोहे सीख पाते हैं और न कोई नौकरी। तुम हो कि ट्विंकिल-ट्विंकिल लिटिल स्टार, बा बा ब्लाक शिप, रेन रेन गो अवे जैसी बिन सिर टांग की राइम सिखाकर बड़ी बन बैठी हो। तुम्हारी इन राइमों के चक्कर में हमारे बच्चे हिंदी के बालगीत भी नहीं सीख पाते। तुमने तो हमारा जीना हराम कर दिया है। इस पर अंग्रेजी बोली– नाच जाने आंगन टेढ़ा। बच्चों को लुभाना छोड़कर मुझ पर आरोप मढ़ रही हो। बाबा आदम का जमाना लद चुका है। कुछ बदलो। मॉर्डनाइज्ड बनो। चाल-ढाल में बदलाव लाओ। 

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इन सबके बीच सामाजिक अध्ययन की किताबें कूद पड़ी– अरे-अरे! तुम लोगों में थोड़ी भी सामाजिकता नहीं है। मिलजुलकर रहना आता ही नहीं। कुछ सीखो मुझसे। इतना सुनना था कि विज्ञान की किताबें टूट पड़ी– अच्छा बहिन तुम चली हो सामाजिकता सिखाने। तुम्हारी सामाजिकता के चलते लोग आपस में लड़ रहे हैं। कोई नरम दल है तो कोई गरम दल। कोई पूँजीवाद का समर्थक तो कोई किसी और का। तुम तो रहने ही दो। कहाँ की बेकार की बातें लेकर बैठ गई हो। आज न कोई भाषा पढ़ता है न सामाजिक अध्ययन। लोग तो विज्ञान पढ़ते हैं। डॉक्टर बनते हैं। कभी सुना किसी को कि वह कवि या लेखक बनना चाहता है या फिर समाज सुधारक? तभी मोटी और बद्सूररत सी लगने वाली गणित की किताब ने सभी को डाँटते हुए कहा– मेरे बिना किसी की कोई हस्ती नहीं है। आज दुनिया में सबसे ज्यादा लोग इंजीनियर बन रहे हैं। सबका हिसाब-किताब रखती हूँ। 


सभी एक-दूसरे से लड़ने लगीं। वहीं एक कोने में कुछ किताबें सिसकियाँ भर रही थीं। यह देख हिंदी, अंग्रेजी, सामाजिक अध्ययन, विज्ञान और गणित की किताबें लड़ाई-झगड़ा रोककर कोने में पड़ी किताबों की सिसकियों का कारण पूछने लगीं। उन किताबों ने बताया– हम मूल्य शिक्षा, जीवन कौशल शिक्षा और स्वास्थ्य शिक्षा की किताबें हैं। हम छपती तो अवश्य हैं लेकिन बच्चों के लिए नहीं बल्कि कांट्रेक्टरों के लिए। आप सभी सौभाग्यशाली हो कि कम से कम आप लोगों को बच्चों की छुअन का सुख तो मिलता है। हम हैं कि स्टोर रूम में पड़ी-पड़ी सड़ने के सिवाय कुछ नहीं कर सकतीं। उधर, व्हाट्सप पर यह किस्सा पढ़कर बच्चे लोट-पोट हो रहे थे। 


- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

प्रसिद्ध नवयुवा व्यंग्यकार

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