By अनुराग गुप्ता | Apr 22, 2022
नयी दिल्ली। आज के समय में अक्सर लोग शॉपिंग मॉल या फिर किसी सामान्य सी दुकान में कपड़े ख़रीदने से पहले ये ज़रूर देखते हैं कि उस कपड़े में कितने फ़ीसदी कॉटन मिला हुआ है। लेकिन क्या आपको पता है कि इसका इतिहास सदियों पुराना है। शानदार कपड़े पहनना तो सभी को पसंद है लेकिन इसके बारे में जानकारी शायद ही कुछ लोगों के पास होगी, ऐसे में आज हम आपको कॉटन के इतिहास के बारे में बताने वाले हैं।
यूं तो कॉटन का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है और रामायण की कहानियां भी आप लोगों ने सुनी होगी। ऐसे में मैं आप लोगों का ध्यान लंका दहन की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ। लंका दहन के वक़्त रावण में हनुमानजी की पूंछ पर आग लगाने का आदेश दिया था। कहा तो यहां तक जाता है कि हनुमान जी की पूंछ पर कपड़ा लपेटा गया था और फिर उसमें आग लगायी गई थी और इसके बाद क्या हुआ यह तो सभी को पता है। खैर यह तो पौराणिक कहानियां हो गईं लेकिन आज हम आपको रोम से लेकर हिन्दुस्तान में कॉटन के रंग-बिरंगे कपड़ों के बारे में बताने जा रहे हैं।
2006 बीसी में सिंधु घाटी सभ्यता में कॉटन इतना ज्यादा पसंद किया जाता था कि उन्हें सिल्वर के घड़ो में रखा जाता था। क्योंकि यह सोने से कम नहीं था। सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों ने कॉटन का भरपूर इस्तेमाल किया था, वो भी कपड़े बनाने के लिए। इतना ही नहीं उस समय सिर्फ सफेद रंग के कपड़े नहीं होते थे बल्कि रंग-बिरंगे कपड़े पहने जाते थे। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने कपड़ों को डाई करना भी सीख लिया था। जिसकी मदद से लोगों के जीवन में रंग भर गए थे और माहौल रंगीन हो गया था।
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता के लोग पहले कपड़े बनाते और फिर उन पर रंग डालते थे। इसके साथ ही उनमें कलाकृतियां भी बनाई जाती थी। आज से समय में हम जितने अत्याधुनिक कपड़े पहनते हैं, उनकी शुरूआत काफी पुरानी सभ्यताओं से ही हुई है।
400 बीसी में यूनान के इतिहासकार हिरोडोटस ने अपनी किताब में कॉटन का उल्लेख किया है। उन्होंने किताब में लिखा कि ग्रीक जब भारत में आए तो उन्होंने कुछ पौधों में फूल के बदले ऊन को उगते देखा। जिसकी गुणवत्ता भेड़ के ऊन से भी बेहतर थी और देखने में भी काफी सुंदर दिखता था।
यूनानियों ने काफी लंबे समय तक भारत में कॉटन को 'पौधों पर उगने वाले ऊन' के रूप में संदर्भित किया जाता था। कॉटन को हम कपास के नाम से जानते हैं। इसमें बीज भी होता है, जिसे निकालकर ऊन तैयार किया जाता है।
300 बीसी में भारतीय कॉटन की गुणवत्ता इतनी बेहतरीन हो गई कि विदेशी सिर्फ और सिर्फ भारतीय कॉटन से बने कपड़े पहनना पसंद करने लगे। इसके साथ ही चीन और पर्सिया में भी इसकी मांग करने लगे। उन दिनों कॉटन बंगाल, आंध्र प्रदेश, गुजरात और पटियाला से आता था। इतना ही नहीं कपड़ो की बनावट शताब्दी को भी दर्शाने लगी थी और किस तरह के कपड़े किस शताब्दी में बनाए गए हैं। खैर वापस भारतीय कॉटन की कहानी पर लौटते हैं...
भारतीय कॉटन की मांग इतनी ज्यादा बढ़ गई थी कि यूरोप भी ऐसा भी कॉटन तैयार करने के लिए कई इकाईयां स्थापित कर चुका था। भारतीय कॉटन के इस्तेमाल की चाहत उन दिनों फ्रांस, इटली, नीदरलैंड, स्पेन और जर्मनी को थी। ऐसे में 1580 सीई में फ्रेडरिक विलियम ने मार्सिले में भारतीय कॉटन पर प्रतिबंध लगा दिया। ऐसे में अगर कोई भारतीय कॉटन के कपड़े पहनता हुआ पाया जाता तो उस पर भारी मात्रा में जुर्माना लगाया जाता और कपड़ों के स्टॉक को भी तबाह कर दिया गया था।
इसे बिल्कुल स्वदेशी आंदोलन जैसा माना जा सकता है। लेकिन अंग्रेजों के खिलाफ स्वदेशी आंदोलन में अपनों के साथ अत्याचार नहीं किया गया था। बस राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वदेशी अपनाओ का आह्वान दिया और सभी इसमें शरीक हो गए। लेकिन 1580 सीई में फ्रेडरिक विलियम ने ऐसा कड़ा प्रतिबंध लगाया था कि अगर महिलाएं सड़कों पर भारतीय कपड़े पहनकर निकलती थीं तो उनके कपड़े फाड़ दिए जाते थे।
इन तरह के तमाम प्रतिबंधों के बावजूद डच ईस्ट इंडिया कंपनी के 1680 के रिकॉर्ड में भारतीय कॉटन अर्थात कपास प्रमुख निर्यात में से एक था। डचों ने 1684 से 1689 सीई के बीच में मछलीपट्टनम के बंदरगाह से व्यापार के लिए अपने उपनिवेशों और यूरोप के अन्य हिस्सों में कपास के 1.12 करोड़ टुकड़े निर्यात किए थे।
कपास उगाने वाले पहले व्यक्ति
वेदों के मुताबिक, ऋषि ग्रुस्थयुध ने पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कपास उगाया था। उन्होंने कपास के पौधे उगाए थे और उससे सूती धागे निकाले थे। जिन्हें आप सफेद सोना भी कह सकते हैं।
इतिहास के पन्नों के पलटे तो प्राचीन भारत के बलूचिस्तान में भी कपास के रेशे पाए गए थे। दरअसल, प्राचीन भारत के बलूचिस्तान में एक जगह है मेहरगढ़, जहां एक कंकाल की कलाई में तांबे के मोतियों में कपास के रेशे पाए गए थे। यह दुनिया में कपास का सबसे पुराना भौतिक नमूना है, जिसे 9000 साल पहले पता लगाया गया था।
माना तो ऐसा भी जाता है भारत में न सिर्फ कपास की खेती की जाती थी बल्कि इसको निर्यात भी किया जाता है। 6000 साल पहले कपास का निर्यात जॉर्डन या फिर पश्चिमी देशों में किया जाता है।
आपको बता दें कि भारत में कपास की अच्छी खासी खेती की जाती थी। इन्हें करपसा, कपास, पिंजा और पंजू के रूप में संदर्भित किया गया था। भारत के प्रत्येक बंदरगाह कपास की स्थानीय किस्म का निर्यात करते थे। भारत ने अपने लोगों को न सिर्फ बेहतरीन कपास के बने कपड़े पहनना सिखाया बल्कि उसमें समय-समय पर परिवर्तन भी किया। उदाहरण के लिए आप इसे ऐसे समझ सकते हैं कि कर्नाटक से जयधर कपास, तमिलनाडु से करुणाकन्नी, भुजो से काला कपास, आंध्र क्षेत्र से पांडुरु कपास, राजस्थान से पुनासा कपास और उत्तर पूर्व भारत से महीन कोमिला कपास देखने को मिलता था।
इतिहास के पन्नों में झांकें तो पता चलता है कि भारत ने तमाम मुल्कों में अपनी पहचान बनाई थी और इसके साथ ही भारत का एक बेहतर भविष्य भी सुनिश्चित करने का रास्ता खोज निकाला था। आधुनिकीकरण से लेकर उद्योग तक सबकुछ हमारी विरासत में शामिल है।