दलितों को बराबरी का दर्जा दिखाने के लिए आजीवन कार्य करते रहे ज्योतिबा फुले

By प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क | Apr 11, 2020

भारतीय सामाजिक क्रांति के जनक कहे जाने वाले महात्मा ज्योतिबा फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के सातारा जिले में माली जाति के एक परिवार में हुआ था। वे एक महान विचारक, कार्यकर्ता, समाज सुधारक, लेखक, दार्शिनक, संपादक और क्रांतिकारी थे। उन्होंने जीवन भर निम्न जाति, महिलाओं और दलितों के उद्धार के लिए कार्य किया। इस कार्य में उनकी धर्मपत्नी सावित्रीबाई फुले ने भी पूरा योगदान दिया।


महात्मा फुले का बचपन अनेक कठिनाइयों में बीता। वे महज 9 माह के थे जब उनकी मां का देहांत हो गया। आर्थिक तंगी के कारण खेतों में पिता का हाथ बंटाने के लिए उन्हें छोटी उम्र में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी। लेकिन पड़ोसियों ने उनकी प्रतिभा का पहचाना और उनके कहने पर पिता ने उन्हें स्कॉटिश मिशन्स हाई स्कूल में दाखिला करा दिया। मात्र 12 वर्ष की उम्र में उनका विवाह सावित्रीबाई फुले से हो गया।

 

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ज्योतिबा के जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ वर्ष 1848 में आया जब वे अपने एक ब्राह्मण मित्र की शादी में हिस्सा लेने के लिए गए। शादी में दूल्हे के रिश्तेदारों ने निम्न जाति का होने के कारण उनका अपमान किया। इसके बाद उन्होंने तय कर लिया कि वे सामाजिक असमानता को उखाड़ फेंकने की दिशा में कार्य करेंगे क्योंकि जब तक समाज में स्त्रियों और निम्न जाति वालों का उत्थान नहीं होगा जब तक समाज का विकास असंभव है। 1791 में थॉमस पैन की किताब 'राइट्स ऑफ मैन' ने उन्हें बहुत प्रभावित किया।

 

समाजोत्थान के अपने मिशन पर कार्य करते हुए ज्योतिबा ने 24 सितंबर 1873 को अपने अनुयायियों के साथ 'सत्यशोधक समाज' नामक संस्था का निर्माण किया। वे स्वयं इसके अध्यक्ष थे और सावित्रीबाई फुले महिला विभाग की प्रमुख। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य शूद्रों और अति शूद्रों को उच्च जातियों के शोषण से मुक्त कराना था। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने वेदों को ईश्वर रचित और पवित्र मानने से इंकार कर दिया। उनका तर्क था कि यदि ईश्वर एक है और उसी ने सब मनुष्यों को बनाया है तो उसने केवल संस्कृत भाषा में ही वेदों की रचना क्यों की? उन्होंने इन्हें ब्राह्मणों द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए लिखी गई पुस्तकें कहा। 

 

उस समय ऐसा करने की हिम्मत करने वाले वे पहले समाजशास्त्री और मानवतावादी थे। लेकिन इसके बावजूद वे आस्तिक बने रहे। उन्होंने मूर्ति पूजा का भी विरोध किया और चतुर्वर्णीय जाति व्यवस्था को ठुकरा दिया। इस संस्था ने समाज में तर्कसंगत विचारों को फैलाया और शैक्षणिक और धार्मिक नेताओं के रूप में ब्राह्मण वर्ग को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। सत्यशोधक समाज के आंदोलन में इसके मुखपत्र दीनबंधु प्रकाशन ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कोल्हापुर के शासक शाहू महाराज ने इस संस्था को भरपूर वित्तीय और नैतिक समर्थन प्रदान किया। 

 

महात्मा फुले ने दलितों पर लगे अछूत के लांछन को धोने और उन्हें बराबरी का दर्जा दिलाने के भी प्रयत्न किए। इसी दिशा में उन्होंने दलितों को अपने घर के कुंए को प्रयोग करने की अनुमति दे दी। शूद्रों और महिलाओं में अंधविश्वास के कारण उत्पन्न हुई आर्थिक और सामाजिक विकलांगता को दूर करने के लिए भी उन्होंने आंदोलन चलाया। उनका मानना था कि यदि आजादी, समानता, मानवता, आर्थिक न्याय, शोषणरहित मूल्यों और भाईचारे पर आधारित सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है तो असमान और शोषक समाज को उखाड़ फेंकना होगा।

 

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उस समय लड़कियों की दशा अत्यंत शोचनीय थी और उन्हें पढ़ने लिखने की अनुमति नहीं थी। इस रीति को तोड़ने के लिए ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने 1848 में लड़कियों के लिए एक विद्यालय की स्थापना की। यह भारत में लड़कियों के लिए खुलने वाला पहला विद्यालय था। 

 

सावित्रीबाई फुले स्वयं इस स्कूल में लड़कियों को पढ़ाने के लिए जाती थीं। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं था। उन्हें लोगों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। यहां तक कि उन्होंने लोगों द्वारा फेंके जाने वाले पत्थरों की मार भी झेली। परन्तु उन्होंने हार नहीं मानी। इसके बाद ज्योतिबा ने लड़कियों के लिए दो और स्कूल खोले और एक स्कूल निम्न जाति के बच्चों के लिए खोला। इसके साथ ही विधवाओं की शोचनीय दशा को देखते हुए उन्होंने विधवा पुनर्विवाह की भी शुरुआत की और 1854 में विधवाओं के लिए आश्रम भी बनाया। साथ ही उन्होंने नवजात शिशुओं के लिए भी आश्रम खोला ताकि कन्या शिशु हत्या को रोका जा सके। 28 नवम्बर 1890 को महात्मा ज्योतिबा फुले की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने सत्य शोधक समाज को दूर−दूर तक पहुंचाने का कार्य किया।

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