भगवान शंकर ने अपने वैराग्य के माध्यम से समस्त संसार को बताया, कि कैसे अपने अतिप्रिय के बिछुडने के पश्चात स्वयं को संभाला जाता है। अगर हम भी संसार के जीव की भाँति हों, तो हम भी किसी मदिरा के नशे में धुत होकर यहाँ कहीं पड़े रहते। लेकिन हम अपने जीवन चरित्र द्वारा आपको समझाना चाह रहे हैं, कि जीवन में बड़े से बड़ा स्नेही भी क्यों न दूर हो जाये, तुम डगमगाना मत। रोना धोना भी मत। बस प्रभु के श्रीचरणों में स्वयं को समर्पित कर देना। आठों पहर उनके गुनगाण सुनना। फिर देखना आपका प्रत्येक पल पूजा हो जायेगा। क्योंकि इस मनुष्य जीवन की एक ही उपलब्धि है, कि हर श्वाँस के साथ हरि का सुमिरन किया जाये।
भगवान शंकर को प्रभु श्रीराम जी ने इतना कठिन व्रत करते देखा, तो वे उनकी त्याग तपस्या व महान व्रत की प्रशंसा किये बिना रह न पाये। श्रीराम जी को यह भक्ति भाव ही तो प्रसन्न करता है। इसी कारण भगवान श्रीराम भोले नाथ के समक्ष प्रगट हो गये-
‘प्रगटे रामु कृतग्य कृपाला।
रुप सील निधि तेज बिसाला।
बहु प्रकार संकरहि सराहा।
तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा।।’
इसके पश्चात गोस्वामी तुलसीदास जी ने जो लिखा, उस पर थोड़ा चिंतन बनता है। गोस्वामी जी कहते हैं-
‘बहुबिधि राम सिवहि समुझावा।
पारबती कर जन्मु सुनावा।।
अति पुनीत गितिजा कै करनी।
बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी।।’
अर्थात प्रभु श्रीराम जी ने भोले नाथ को बहुत प्रकार से समझाया। और श्रीपार्वती जी के पावन जन्म व उनकी महान करनी सुनाई।
प्रश्न उठता है, कि भगवान शंकर आखिर नासमझ थे क्या, जो प्रभु श्रीराम जी ने उन्हें समझाया? अथवा वे किसी उचित दिशा में नहीं बह रहे थे? यहाँ प्रभु श्रीराम जी की प्रभुता का दर्शन होता है। यहाँ वे भगवान शंकर को नहीं, अपितु आम जन मानस को संदेश दे रहे हैं। संदेश यह, कि संसार में आये हैं, तो निश्चित ही हमारा सर्वोपरि कार्य ईश्वर की आराधना ही है। संसार के प्रति वैराग्य होना, हमें भगवान के प्रति दृढ़ भाव देता है। किंतु संसारिक जीव के जीवन में केवल वैराग्य की ही महानता नहीं है। उसमें राग भाव का होना भी अति आवश्यक है। उसमें रुप, रस एवं रंग के प्रति आकर्षण ही समाप्त हो जायेगा, तो इस सृष्टि का विस्तार कैसे होगा? सृष्टि तो मानों रुक ही जायेगी। इसलिए सर्वप्रथम वैराग्य में दक्ष होने के पश्चात, हमें राग रंग में भी उतरना होगा। इसीलिए श्रीराम जी श्रीपार्वती जी के जन्म की गाथा व उनकी महान करनी सुनााते हैं।
यहाँ भी बड़ी विचित्र बात है, कि पहली बात तो भगवान शंकर चोटी के बैरागी। उस पर उन्हें अपनी दिवंगत पत्नी की यादों ने घेरा हुआ है। मन में जब ऐसे भावों की तरंगें चलायेमान हों, तो ऐसे में क्या भगवान शंकर को किसी अनजान स्त्री की बातों में रुचि उत्पन्न होगी? श्रीपार्वती जी महान व श्रेष्ठ होंगी तो होंगी, इससे उन्हें भला क्या वास्ता? किंतु श्रीराम जी हैं, कि उन्हें श्रीपार्वती जी की ही गाथायें सुनाये जा रहे हैं। मानों वे प्रयास कर रहे हों, कि हे भोलेनाथ! अब आप अपने जीवन चरित्र को केवल यहीं तक ही रोक कर न रखें। अपितु आगे भी संसार के कल्याण के लिए अपनी दिव्य लीलायें जीवंत रखें।
हमारे भोलेनाथ को भला क्या समझ आना था। वे जैसे थे, वैसे ही रहे। उनके मन में कोई राग उत्पन्न नहीं हुआ। श्रीराम जी जब उन्हें ऐसे अनास्क्त भाव में देखा, तो उन्हें कहना ही पड़ा-
‘अब विनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु।
जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु।।’
अर्थात हे शिवजी! यदि मुझ पर आपका स्नेह है, तो अब आप मेरी विनती सुनिए। मुझे यह माँगें दीजिए, कि आप जाकर पार्वती जी के साथ विवाह कर लें।
यह सुनकर भगवान शंकर क्या प्रतिक्रिया करते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती