Gyan Ganga: भगवान शंकर भी देवी पार्वती के प्रेम व निष्ठा जानकर प्रसन्न हो उठे थे

By सुखी भारती | Nov 07, 2024

विगत अंक में हमने देखा, कि सप्तऋषियों ने देवी पार्वती जी के विश्वास व निष्ठा की हर प्रकार से परीक्षा ली। परिणाम में यही प्राप्त हुआ, कि देवी पार्वती जी से बढ़कर, भगवान शिव की अनन्य उपासक इस संपूर्ण संसार में, दूसरा कोई नहीं था।


किंतु हमारे मन में एक प्रश्न उठता है, कि भगवान शंकर ने सप्तऋषियों को ऐसा क्यों कहा, कि जाकर पार्वती जी के विश्वास की परीक्षा लो। कारण यह था, कि भगवान शंकर क्योंकि स्वयं विश्वास के अवतार हैं-


‘भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धावश्विासरुपिणौ।’


अर्थात भवानी जी श्रद्धा हैं, एवं भोलेनाथ साक्षात विश्वास हैं। मैं उन्हें दोनों हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता हूं।

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इस सलोक में अब आप ही समझिये, कि भगवान शंकर जब स्वयं ही विश्वास का रुप हैं, तो उनके साथ किसको बैठने की अनुमति होनी चाहिए? क्या उनके साथ श्रीसती जी, जो कि संदेह से सना मन रखती हैं, वे होनी चाहिए? अथवा भोलेनाथ पर अटूट श्रद्धा व विश्वास रखने वाली देवी पार्वती जी होनी चाहिए। निःसंदेह देवी पार्वती जी ही उनके साथ शौभा पाती हैं। इसीलिए भगवान शंकर ने पहले ही यह सुनिश्चित करना चाहा, कि जिसे मेरे लिए श्रीराम जी ने वधु रुप में चुना है, पहले मैं यह तो देख लूँ, कि मैं उसे पति रुप में पूर्ण रुप में स्वीकार हुँ भी, अथवा नहीं हुँ। क्या वे भी सती की भाँति मेरे ही वचनों पर तो संदेह तो नहीं करेगी? लेकिन देवी पार्वती जी ने अपने वचनों से यह कहकर, स्वयं प्रमाणित कर दिया, कि अब तो भले स्वयं शंकर भगवान भी मुझे अपनी हठ छोड़ने को कहें, तो भी मैं नारद जी के वचनों से पीछे नहीं हटुँगी-


"जन्म कोटि लगि रगर हमारी। 

बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी।।

तजउँ न नारद कर उपदेसू।

आपु कहहिं सत बार महेसू।।"


इधर जब सप्तऋषियों ने देखा, कि देवी पार्वती के प्रेम, निष्ठा व विश्वास में कहीं कोई कमी नहीं है, तो उनके भी मन में देवी पार्वती जी के प्रति भक्ति भावों ने जन्म ले लिया। वे भी सोचने लगे, कि गुरु के वचनों में अगर किसी की निष्ठा हो, तो देवी पार्वतीजी जैसी होनी चाहिए। केवल गुरु के वचनों के सहारे वे इतना कठिन तप करने निकल चली। जबकि उन्हें इतना तो पहले ही बता दिया गया था, कि भगवान शंकर तो मतवाले हैं। उनके पास रहने के लिए घर तक नहीं है। वे बस पर्वत पर रहते हैं। बैठने के नाम पर एक सिला पर बिछाई गई मृगछाल है। ऐसे में भी अगर पार्वतीजी उन्हें पाने के लिए, स्वयं के जीवन को ही दाँव पर लगाने को तत्पर हो उठी, तो यह महान कार्य तो केवल देवी पार्वती जी ही कर सकती हैं। फिर वे तो केवल इस जन्म की ही बात नहीं कर रहीं, बल्कि जन्मों-जन्मों तक इस व्रत का पालन करने की बात कर रही हैं। धन्य हैं पर्वतराज जिनके महलों में ऐसी महान शक्ति का उदय हुआ।


इधर देवी पार्वतीजी का भोलापन तो देखिए! वे मुनियों को कह रही हैं, कि हे संतो! मैं आपके पैर पड़ती हूं। आप अपने घरों को जाईये। क्योंकि बहुत देर हो चुकी है।


मुनियों ने जैसे ही देवी पार्वती जी के यह वचन सुनें, वे उनके चरणों में गिर गए, और बोले-


‘तुम्ह माया भगवान सिव सकल गजत पितु मातु।

नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु।।’


अर्थात हे देवी! आप माया हैं और शिवजी भगवान हैं। आप दोनों समस्त जगत में माता पिता हैं। आपकी जय हो, आपकी जय हो। ऐसा कहकर समस्त मुनि सिर नवाकर चल दिये।


उन्होंने जाकर भगवान शंकर को सब समाचार दिये। भगवान शंकर देवी पार्वती जी का प्रेम व निष्ठा जानकर प्रसन्न हो उठे। मुनियों ने जाकर हिमवान को भी पार्वती जी के पास भेजा, कि वे जाकर उन्हें महलों में लिवा लायें। सप्तऋषि ब्रह्मलोक चले गए, और भोलनाथ श्रीराम जी के ध्यान में लीन हो गये।


- सुखी भारती

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