By सुखी भारती | Jun 20, 2024
भगवान शंकर के हृदय की पीड़ा को भला कौन समझ सकता था? जब से उन्होंने जाना, कि श्रीसती जी ने, जगत जननी जी का शरीर धारण किया है, तब से उनके होंठों पर मानों ताला ही पड़ गया था। वे अपने मुख से एक शब्द तक भी प्रवाहित नहीं कर रहे थे। इसका एक की कारण था, कि अब वे श्रीसती जी को पत्नी रुप में, किसी भी आधार पर स्वीकार नहीं कर सकते थे। क्योंकि जिस देह को, श्रीसती जी ने उनकी माता जानकी जी की देह में परिवर्तित कर दिया हो, उस पूजनीय देह को, वे पत्नी रुप में कैसे धारण कर सकते थे-
‘तब संकर प्रभु पद सिरु नावा।
सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा।।
एहिं तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं।
सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं।।’
तब भगवान शंकर जी ने श्रीरामचन्द्र जी के चरण कमलों में सिर नवाया, और उनके मन में यह आया, कि अब श्रीसती जी से मेरी पति-पत्नी रुप में भेंट नहीं हो सकती। फिर भगवान शंकर जी ने मन में यह संकल्प किया।
अपने संकल्प के बारे में उन्होंने श्रीसती जी को कुछ न कहा। उन्हें भला श्रीसती जी से क्या कहना था? वे तो चुपचाप कैलास की ओर चल पड़े। जब वे कैलास की ओर चले, तो आकाशवाणी हुई, कि ‘हे भगवान शंकर जी! आपको छोड़ कर ऐसी प्रतिज्ञा भला कौन कर सकता है? आप श्रीरामचन्द्र जी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान हैं।’ इस आकाशवाणी को सुनकर श्रीसती जी के मन में चिंता हुई और उन्होंने संकुचाते हुए शिवजी से पूछा भी-
‘कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला।
सत्यधाम प्रभु दीनदयाला।।
जदपि सतीं पूछा बहु भाँति।
तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती।।’
श्रीसती जी ने कहा, ‘हे कृपालु! कहिए, आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभु! आप सत्य के धाम और दीनदयालु है।’ बहुत पूछने पर भी भगवान त्रिपुरारि ने कुछ न कहा। तब श्रीसती जी ने सोचा, कि शिव जी सब जान गये हैं। प्रीति की सुंदर रीति देखिये, कि दूध में पानी मिला हो, तो पानी भी दूध के ही भाव बिकता है। लेकिन अगर कपट रुपी खटाई उसमें मिल जाये, तो वही दूध फट जाता है, और उसका स्वाद शून्य हो जाता है। अपनी करनी को याद करके श्रीसती जी के हृदय में अपार चिंता है। जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। श्रीसती जी भी समझ गई थी, कि शिवजी कृपा के अथाह सागर हैं। इससे प्रगट रुप में उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा। शिव जी का रुख देख कर, श्रीसती जी ने भी समझ लिया, कि उन्होंने मेरा त्याग कर दिया है। यह सोच कर वे व्याकुल हो उठी। अपना पाप कहते कुछ कहते नहीं बनता, लेकिन हृदय की दशा ऐसी थी, मानों भीतर ही भीतर, वे कुम्हार की आँवे के समान अत्यंत जल रही थी।
इधर भगवान शंकर का हृदय भी तो देखिये। उन्होंने जब देखा, कि श्रीसती जी अत्यंत व्याकुल हैं, तो तब भी उन्होंने कोई ताने इत्यादि नहीं दिये। अपितु उनके मन को सुख देने के लिए अनेकों सुंदर कथायें कही। और ऐसे ही मार्ग में विवध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे-
‘सतिहि ससोच जानि बृषकेतू।
कहीं कथा सुंदर सुख हेतु।।
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा।
बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा।।’
वहाँ जाकर भी ऐसा नहीं था, कि वे श्रीसती जी का अपमान कर रहे थे, अथवा कोई अहसास करवा रहे थे, कि सती कोई बहुत बड़ी अपराधी है। वे श्रीसती जी से नफरत भी नहीं कर रहे थे। बल्कि उनके मन में दया भाव था। लेकिन समस्या यह थी, कि श्रीसती जी ने गलती ही ऐसी कर डाली थी, कि उन्हें उसका कोई उपचार ही समझ नहीं आ रहा था। ऐसे में शिवजी एक ही कार्य किया करते हैं, और वह है चिरकाल के लिए समाधि में चले जाना। वे जाकर वटवृक्ष के नीचे आसन लगाकर बैठते हैं, और बैठते ही उनकी अखण्ड व अपार समाधि लग जाती है-
‘तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन।
बैठे बट तर करि कमलासान।।
संकर सहज सरुपु सम्हारा।
लागि समाधि अखंड अपारा।।’
शिवजी के समाधि में जाने के पश्चात, श्रीसती जी के हृदय में कैसे-कैसे विचार आते हैं? उनका समय कैसे कट रहा था? ऐसे अनेकों प्रश्नों के उत्तर हमारे मन में कौंध रहे होंगे। जिनका समाधान हम अगले अंक में खोजेंगे। (क्रमशः)---जय श्रीराम।