विगत अंक में हमने जाना कि भले ही हनुमान जी चाहते हों कि सुग्रीव रूपी जीव की श्रीराम जी के प्रति भक्ति भावना प्रगाढ़ हो जाए। लेकिन सुग्रीव श्रीराम जी की परीक्षा लेते हैं। पहली बात तो यह कि जीव को प्रभु की परीक्षा का अधिकार ही प्राप्त नहीं। क्योंकि सिर्फ प्रभु ही जीव की परीक्षा के अधिकारी हैं। दूसरा यह कि हम ईश्वर के सामर्थ्य अथवा दैवीय स्वरूप की परीक्षा सांसारिक साधनों के बल पर लेकर क्या किसी सुखद परिणाम तक पहुँच सकते हैं? कदापि नहीं! कारण यह कि ईश्वर के साकार रूप को एवं उनके बाह्य क्रिया−कलापों को, बुद्धि और मानवीय मापदंडों से समझा ही नहीं जा सकता। समझेंगे भी कैसे? क्योंकि ईश्वर जब मानव स्वरूप धारण करते हैं तो अनेकों बार वे हँसते दिखाई पड़ते हैं, कभी रोते, कभी खाते तो कभी सोते प्रतीत होते हैं। उन्हें रोता देख हम सोच लेते हैं कि देखो भगवान को भी दुःख, मोह या माया व्याप्ति है। तभी तो वे भी रो रहे हैं। श्रीराम जी वो भी हम यूं ही रोते हुए पाते हैं। जब इनसे सीता जी विलग होती हैं। उन्हें इस स्थिति में देखकर हम क्या बड़े−बड़े तपस्वी भी भ्रमित हो जाते हैं कि देखो श्रीराम जी कोई भगवान हैं या फिर एक साधारण व्यक्ति जो इस प्रकार विलाप कर रहे हैं। हमारी बुद्धि यहां आकर तर्क−वितर्क करने लगती है। और जहाँ प्रभु के बाह्य चरित को देख हम कोई आकलन करने बैठेंगे तो सौ प्रतिशत हमें फंसना व उलझना ही है। उदाहरणतः सेब को बाहर से लाल देखने पर केवल अपना इतना ही अनुभव कह सकते हैं कि यह सेब भीतर से मीठा होगा। लेकिन जब खाएंगे तो वास्तविक परिणाम तो तभी प्रकट होगा कि सेब मीठा है अथवा फीका।
अर्थात् सेब बाहर से कुछ और भीतर से कुछ और हो सकता है। ठीक इसी प्रकार ईश्वर का साकार रूप बाहर से कुछ और होता है एवं भीतर से कुछ और। परंतु यह सब तो ध्यान−साधना की गहन पद्यति से समझ आता है कि वे बाहर से क्या हैं, और भीतर से क्या।
हमने एक अभिनेता या अभिनेत्री को मंच पर अभिनय करते हुए जरूर देखा होगा। मंच पर किसी दृश्य में आप उन्हें खूब रोते बिलखते हुए देख सकते हैं। वह रोने के पात्र को इतनी संजीदगी से निभाते हैं कि देखने वाले अधिकांश होने का पात्र निभाता है। तो वह अपने हिस्से के उस अभिनय को भी पूर्ण समर्पण व कला से ऐसे निभाएगा कि आपको देखकर विश्वास ही नहीं होगा कि क्या यह वही कलाकार है जो कुछ ही क्षण पहले दुःखों के पहाड़ तले दबा हुआ था। और रो−रो कर मानों मरे ही जा रहा था।
सज्जनों हम तनिक भी हैरान नहीं होते क्योंकि हम जानते हैं कि कलाकार वास्तव में दुखी अथवा प्रसन्न नहीं हो रहा। अपितु नाटक में अपने हिस्से आया अभिनय पूर्ण कर रहा है। आप तो उलटा प्रसन्न होते हैं कि भई वाह! कमाल कर दिया, क्या सुंदर व उत्कृष्ट अभिनय किया है।
इसके विपरीत अगर कोई दर्शक यह समझ ले कि नहीं, नहीं यह तो बेचारा सचमुच दुखी है। मुझे अभी जाकर उसे सांत्वना देनी चाहिए। और मंच पर जाकर उस अभिनेता या अभिनेत्री को सांत्वना देने लगें तो क्या वह अमुक व्यक्ति द्वारा दी जा रही सांत्वना पर प्रसन्नता प्रकट करेगा, कि देखो आप कितने अच्छे हैं जो मेरे प्रति सहानुभूति रखते हैं। सज्जनों ऐसा बिलकुल भी नहीं होगा। अपितु अभिनेता रूष्ट होगा कि आपने तो चलते नाटक में विघ्न डाल दिया।
लेकिन निर्देशक जो कि उस दृश्य की संपूर्ण पृष्ठभूमि जानता है वह निश्चित ही प्रसन्न होकर कहेगा कि वाह! क्या बात है। इस दृश्य के मंचन के लिए अभिनेता या अभिनेत्राी क्या शानदार रोय।
सोचिए एक सांसारिक व साधरण व्यक्ति जब कोई नाटक करता है तो उसके अभिनय से हम इतना सम्मोहित जो जाते हैं कि उसी के साथ हम रो भी देते हैं, हँस भी देते हैं। तो जब ईश्वर इस धरा पर मानव शरीर धरण कर, मानव लीला या कहो कि दिव्य अभिनय करते हैं तो क्या हमें मतिभ्रम नहीं होगा? प्रभु के सगुण स्वरूप की लीलाएं देखकर बड़े−बड़े ऋषि−मुनि, तपस्वी भी भ्रमित हो गए तो हमारी क्या बिसात है−
निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहीं कोई।
सुगम अगम नाना चरित सुनी मुनि मन भ्रम होई।।
इसलिए कभी भी बुद्धि से ईश्वर की परीक्षा लेनी ही नहीं चाहिए। और लेनी भी हो तो सुग्रीव की तरह ही लेनी चाहिए। जिसमें प्रभु से कोई चोरी अथवा पर्दा नहीं रखा, उसने प्रभु को स्पष्ट बता दिया कि आप बस ये ताड़ के वृक्ष को एक तीर से काटकर और दुंदुभि का पिंजर दूर फेंक कर दिखा दो। मैं आपके बल व पराक्रम को मान जाऊंगा। प्रभु ने भी देखा कि सुग्रीव कम से कम मन में कोई गांठ तो नहीं रख रहा न। जैसा अंदर है वैसा ही बाहर बता दिया। तो यह तो निर्मलता है, स्पष्टवादिता है। मन में कहीं भी ऐसा नहीं कि प्रभु मेरी इस अविश्वास की मानसिक कमजोरी को जान जाएंगे तो मेरी इज्जत ही क्या रहेगी। मेरी बुद्धिमता व ज्ञानी होने पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा। सुग्रीव का यही पक्ष सकारात्मक रहा कि सुग्रीव सोचता है कि अगर पीठ में फोड़ा है और उसे मैं नहीं देख पा रहा हूँ। तो यह कहाँ की समझदारी है कि मैं उस फोड़ों को वैद्य के भी न दिखाऊँ। अगर वैद्य से ही छुपा लिया तो फिर उपचार कैसे होगा? कौन करेगा? फोड़ा मक्खियों से छुपाऊँ तो समझ आता है। पर वैद्य से क्यों? क्योंकि वैद्य से फोड़ा छुपाने का सीध-सा अर्थ है रोग को और ज्यादा बढ़ा लेना।
निःसंदेह यहाँ सुग्रीव की इसी सहज, सरल भावना के चलते उसका पतन नहीं हुआ। वरना ऐसी परीक्षा लेने जब सती श्रीराम जी के पास गई तो उनका पतन हुआ और वे अथाह कष्टों से घिर गई। प्रसंग कहता है कि जब सती ने श्रीराम जी को सीता वियोग में विलाप करते देखा तो उन्हें श्रीराम जी पर संशय आ गया। यद्यपि इसी प्रसंग में भगवान शंकर जी ने 'जय सच्चिदानंद जग पावन' कह कर उन्हें प्रणाम किया लेकिन सती संदेह ग्रसत हो गई। सोचने लगी कि अगर वे पत्नि वियोग में यूं व्याकुल हैं तो भगवान कहाँ के हुए। लेकिन पतिदेव भगवान शंकर उन्हें ईश्वरीय संबोधन से पुकार रहे हैं यह तो दुविधा हो गई। और मैं अपनी दुविधा निवारण हेतु श्रीराम की परीक्षा लेकर ही परिणाम तक पहुँचुंगी। सती जी माता सीता जी का रूप धारण कर श्रीराम जी की परीक्षा लेती हैं और उनसे अपनी स्वयं की पहचान छुपाकर रखती हैं। ऐसा नहीं कि प्रभु के समक्ष सुग्रीव की तरह विनय करती कि प्रभु मुझे आपके प्रभुत्व पर संदेह हो रहा है। कृपया मेरे संशय का समाधान कीजिए। तो प्रभु को भले इसके लिए लकडि़यां काटनी पड़ती या अस्थि पिंजर तक भी उठाने पड़ते। प्रभु सती जी का संशय निवारण कर उन्हें संतुष्ट अवश्य कर देते। लेकिन सती जी को लगता था कि मैं तो चतुर शिरोमणि प्रजापति दक्ष की पुत्री हूँ। मेरी दृष्टि भला कैसे धोखा खा सकती है। मैं तो परीक्षा लेकर ही दम लूंगी। और सज्जनों श्रीराम जी वहाँ सती जी को पहचान कर उन्हें श्री सीता जी एवं श्री लक्षमण जी सहित चारों ओर से दर्शन देते हैं। सती लज्जित महसूस करती है। लेकिन तब भी श्रीराम के चरणों में स्वयं को गिराती नहीं। उधर भगवान शंकर यह कहकर सती जी का त्याग कर देते हैं कि हे सती! आपने इस तन से हमारी माता सीता जी का वेष धरण कर लिया है। इसलिए अब हम आपको पत्नी रूप में स्वीकार नहीं कर सकते।
इसलिए सज्जनों परीक्षा से प्रभु वश में नहीं आते। अपितु प्रेम, समर्पण व श्रद्धा से ही उन्हें रिझाया जा सकता है। और हनुमान जी ने यह कर दिखाया था। लेकिन कब और कैसे जानने के लिए अगला अंक अवश्य पढ़े...क्रमशः...जय श्री राम
-सुखी भारती