जीवन के हर क्षेत्र में प्रेरणास्रोत और प्रकाश स्तंभ हैं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम

By लोकेन्द्र सिंह | Aug 04, 2020

मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम भारत की आत्मा हैं। राम भारतीय संस्कृति के भव्य-दिव्य मंदिर के न केवल चमकते शिखर हैं, अपितु वे वास्तव में उसके आधार भी हैं। इसलिए राम का जीवन उनके समय से लेकर आज तक प्रासंगिक है। उनका जीवन प्रकाश स्तम्भ की तरह है, जो अंधेरे में हमारा मार्ग प्रशस्त करता है। संसार का ऐसा कोई प्रश्न नहीं है, जिसका व्यवहारिक आदर्श उत्तर राम ने अपने आचरण से नहीं दिया हो। उनके जीवन में सारा जग समाया हुआ है। बाबा तुलसीदास लिखते हैं- ‘सिय राम मय सब जग जानी, करहु प्रणाम जोरी जुग पानी।’ राष्ट्र एवं समाज जीवन की दिशा क्या होनी चाहिए, यह रामकथा में राम के जीवन से अनुभूत की जा सकती है। वह ऐसे नरश्रेष्ठ या अवतार हैं, जिन्होंने वाणी से नहीं अपितु आचरण से जीवनदर्शन को प्रस्तुत किया। इसलिए वह सीधे लोक से जुड़ते हैं। असाधारण होकर भी अपने साधारण जीवन से समूचे लोक का नेतृत्व करते हैं। राम भारतीय संस्कृति के ऐसे नायक हैं, जिन्होंने समाज के सुख-दु:ख और उसकी रचना को नजदीक से देखा-समझा। अयोध्या के राजकुमार-राजा से कहीं अधिक बड़ी भूमिका में राम हमें एक ऐसे जननायक के रूप में दिखाई पड़ते हैं, जिन्होंने उत्तर से दक्षिण तक दुष्ट राजाओं के आतंक से भयाक्रांत भारतीय समाज के साहस को जगाया और उन्हें एकजुट किया। अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार और पराक्रम का बल दिया। राष्ट्र के सोये हुए भाग्य को जगाने का काम लोकनायक करते हैं, वही प्रभु राम ने किया।

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शक्तिशाली राज्य अयोध्या के महाराज दशरथ के वीर पुत्र और भावी सम्राट होने मात्र से राम जनता के नायक नहीं हो जाते। वह अपने व्यक्तित्व को इस प्रकार गढ़ते हैं कि जनता उन्हें स्वाभाविक तौर पर अपना नायक मानती है। जनमानस में राम के प्रति कितना समर्पण था, उनके प्रति कितनी आस्था-भक्ति थी, व्यापक स्तर पर उसका पहला प्रकटीकरण तब होता है, जब राम अयोध्या का भव्य महल छोड़कर वन की ओर निकलते हैं। अयोध्या के समस्त मार्ग अवरुद्ध हो गए हैं। राम को रोकने के लिए जनसैलाब उमड़ आया है। रथ के आगे लोग लेट गए हैं। राम उनसे दूर जाएं, अयोध्या का कोई भी जन यह स्वीकार करने को तैयार नहीं। अयोध्या में आर्तनाद छा गया। यह अगाध श्रद्धा, अपनत्व, ममत्व, स्नेह और भक्ति राम ने अपने आचरण से कमाई थी। अयोध्या का हाल देखकर भरत अपने भाई को वापस लाने के लिए चित्रकूट में पहुँचते हैं। राम से लौटकर चलने के लिए मनुहार करते हैं। करबद्ध प्रार्थना करते हैं। किंतु, राम को मर्यादा की स्थापना करनी है। वह भरत को मना कर देते हैं। परंतु, अयोध्या का क्या, जो दशरथ के बाद राम की है। राम ही अयोध्या को नेतृत्व दे सकते हैं। क्योंकि, अयोध्या की जनता सिर्फ ‘रामराज्य’ चाहती है। राम के विरह की अग्नि अभी ठण्डी भी कहाँ हुई थी? ऐसे में भरत स्वप्न में भी अयोध्या के सिंहासन पर बैठने की सोच नहीं सकते। भाई राम के प्रति भी भरत के मन में जो श्रद्धा है, वह भी इसकी अनुमति नहीं देती। भले ही माता कैकयी भरत को राजा के रूप में सिंहासन पर बैठे देखना चाहती थीं। यदि किसी दबाव में भरत यह करते तो जनमानस उनके विरुद्ध हो सकता था। अयोध्या को सिर्फ राम संभाल सकते थे। इसलिए भरत ने राम की चरणपादुकाएं लीं और अयोध्या लौट गए। 


महल छोड़कर राम जब वन पहुँचते हैं, तब उन्हें ज्ञात होता है कि समाज किन कठिनाइयों से गुजर रहा है। हालाँकि, गुरु वशिष्ठ उन्हें पहले भी समाज की समस्याओं से साक्षात्कार करा चुके थे। समाज को अत्यंत समीप से देखने के बाद राम उसे संगठित और जागृत करना चाहते थे। इसलिए भी संभव है कि राम अयोध्यावासियों और अपने प्रिय भाई भरत की प्रार्थनाओं को अस्वीकार कर देते हैं। वह साधारण जीवन जी कर समाज के सामने अनेक प्रकार के उदाहरण प्रस्तुत करना चाहते हैं। वह चाहते तो वन में किसी एक जगह सुंदर और साधन-सम्पन्न कुटिया बना कर रह सकते थे। लेकिन, उन्होंने वनगमन को राष्ट्र निर्माण के एक अवसर में बदल दिया। अपना हित छोड़ा, कष्ट सहन किए। सरलता को छोड़ा, कठिनता को चुना। आराम का त्याग किया, परिश्रम को चुना। वनवास के दौरान राम ने व्यापक जनसंपर्क किया। वनवासियों को अपने साथ जोड़ा। उन्हें अपना बनाया। सामान्य व्यक्ति जिस संघर्ष भरे जीवन को जी रहा था, उसी को राम ने भी अपनाया। इसलिए वन-ग्राम में रहने वाले सब लोगों के साथ उनका आत्मीय और विश्वास का संबंध जुड़ता।

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वनवास खत्म होने में केवल छह-सात माह ही बचते हैं, तब माता जानकी का अपहरण रावण ने कर लिया। राम ने ऐसे कठिन समय में भी अयोध्या, मिथिला या फिर अन्य किसी मित्र राज्य से सहायता नहीं ली। वह समाज को संदेश देना चाहते थे कि समाज की एकजुटता से बिना साधन के भी रावण जैसे अत्यधिक शक्तिशाली आताताई को भी परास्त किया जा सकता है। संगठन में ही वास्तविक शक्ति है। अत्याचारी और अन्यायी ताकतों का सामना करने के लिए राज्य की सशस्त्र सेना ही आवश्यक नहीं है। हम अपनी शक्ति को एकत्र कर भी दुष्टों को धूल चटा सकते हैं। चूँकि वह मानते थे- ‘यथा हि कुरुते राजा प्रजा तमनुवर्तते’ (उत्तरकाण्ड, सर्ग ४३, श्लोक १९)। अर्थात् प्रजा अपने राजा का अनुसरण करती है। यदि राम ने सेना बुला कर रावण का अंत किया होता, तब जनमानस में ‘संगठन में शक्ति है’ का भाव कभी नहीं आ पाता, तब शायद समाज में पराक्रम का भाव नहीं जाग पाता, तब शायद सामान्य समाज अपने साहस और कौशल को हथियार नहीं बना पाता, अन्याय के सामने सिर उठाने का साहस नहीं कर पाता। वह बाहुबलियों द्वारा पददलित होना, अपना भाग्य समझ लेता। राम ने लोगों का संगठन कर उसे शक्तिशाली सेना का स्वरूप देकर समाज का भाग्य बदल दिया। उन्होंने समाज में संघर्ष और आत्मविश्वास का बीज बो दिया। राम ने आने वाले भविष्य के लिए उदाहरण प्रस्तुत कर दिया कि कितना भी बलशाली दुष्ट शासन हो, संगठित समाजशक्ति द्वारा उसका प्रतिकार किया जा सकता है। अन्यायपूर्ण शासन को जनशक्ति उखाड़ कर फेंक देती है। संगठित जनसमूह के सामने साधन-सम्पन्न दुष्ट ताकत कमजोर पड़ जाती है। अंत में विजय समाज के हिस्से आती है।

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प्रभु राम की ईश्वरीय अवधारणा से इतर, रामकथा ऐसे जननायक की कहानी है, जिसने संपूर्ण भारत को एकसूत्र में पिरोया, समाज के विभेद को समाप्त किया, समाज में मूल्य एवं आदर्श स्थापित किए। आज भी भारत राम के नाम पर एक है। राम ऐसे लोकनायक हैं, जो सिर्फ भक्त शिरोमणि वीर हनुमान के सीने में ही नहीं बसते, वरन भारत के बच्चे-बच्चे में राम की छवि दिखती है। राम ऐसे जननायक हैं, जो आज भी प्रत्येक संकट में हमें सहारा देते हैं। उनका जीवन हमें कठिन से कठिन संकटों का सामना करने की प्रेरणा देता है। लोकनायक होने के लिए किस तरह का संकल्प चाहिए, यह राम के संपूर्ण जीवन से स्पष्ट हो जाना चाहिए। यद्धपि महाकवि भवभूति ने अपने नाटक ‘उत्तररामचरित’ में स्वयं प्रभु राम से वक्तव्य दिलाया है- “स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि, आराधनाय लोकस्य मुंचतो नास्ति मे व्यथा।” अर्थात् राम कहते हैं कि लोक की आराधना के लिए मुझे अपने स्नेह, दया, सौख्य और यहाँ तक कि जानकी का भी परित्याग करने में भी कोई व्यथा नहीं होगी। हमको ज्ञात है कि राम ने लोक की सेवा के लिए फूलों की सेज छोड़ कर कंटकाकीर्ण मार्ग चुना। अपना सर्वस्व त्यागा। राम सुखपूर्वक अपना जीवन बिता सकते थे लेकिन उन्होंने कठिन और कष्टप्रद जीवन को चुना।


-लोकेन्द्र सिंह

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक हैं)

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