विजयादशमी बीत गई है दीपावली की तैयारी आरंभ हो गयी है। दीपावली की तैयारी में घर की साफ सफाई से लेकर खरीददारी तक, घर दुकान प्रतिष्ठान से मंदिरों की सजावट तक, भजन पूजन से सभी मित्रों रिश्तेदारों को शुभकामनाएँ देने तक के काम होते हैं। यह सभी काम केवल त्यौहार की औपचारिकता मात्र नहीं हैं बल्कि इसका उद्देश्य समाज और संबंधियों जुड़ाव का अभियान है। यह जुड़ाव किसी क्षेत्र विशेष या मनुष्यों तक सीमित नहीं अपितु पशु पक्षियों तक से जुड़ाव, पूरी प्रकृति से जुड़ाव इसका उद्देश्य है। बदलती जीवन शैली में आज भले घर और मुहल्ले से ही नहीं नगरों से भी पशु पक्षी गायब हो रहे लेकिन एक समय था जब भारत के घर घर में पशु पक्षी होते थे उन्हें भी दशहरे से दीपावली तक सजाया संवारा जाता था। भारत में यह परंपरा परंपरा कब प्रारंभ हुई आज कहना मुश्किल है लेकिन इसका विस्तृत विवरण रामायण काल में मिलता है। सृष्टि के एक एक प्राणी से रामजी के जुड़ने और जोड़ने के अनेक प्रसंग मिलते हैं फिर भी विजय दशमी से दीपावली के बीच के बीस दिन उन्होंने इसी काम में लगाये। यह समय वह था जब उन्होंने रावण का उध्दार कर अयोध्या वापसी की थी।
यूँ तो रामजी का पूरा वनवास काल वनवासियों और गिरिवासियों के बीच ही बीता है। लेकिन ये बीस दिन वे हैं जब रामजी ने वनवासियों और गिरि वासियों को राजमहलों से जोड़ा था। रामजी ने अपना पूरा वनवास काल को इसी कार्य के लिये समर्पित किया है। वे न केवल वनवासियों से स्वयं जुड़े अपितु उन्हे तंग करने या उनका शोषण करने वाले संगठित समूहों का अंत भी किया। ऐसे शोषक संगठित सशस्त्र शोषणकारी समूहों को तब दैत्य असुर या राक्षस के नाम से संबोधित किया जाता था। ऐसा नहीं था कि ये शक्तियां केवल ऋषि आश्रमों का ही विनाश करती थीं। वे समूचे समाज का शोषण करती थीं। संपूर्ण मनुष्य जाति का शोषण करती थीं। वे मनुष्यों की किस प्रकार सामूहिक हत्या करके संपत्तियों को हड़पते थे इन कथाओं से पुराण भरे पड़े हैं। उनकी घोषणाओं से संबंधित कुछ ऋचाएँ ऋग्वेद में भी आईं हैं। राम का पूरा वनवास काल ऐसी शक्तियों से संघर्ष और वनवासियों का जीवन भय मुक्त बनाने में ही बीता। उन्होंने कैसे यह संघर्ष किया और वनवासियों को एक सूत्र में पिरोया, उनसे अपने अटूट संबंध बनायें इसका विवरण रामायण और विभिन्न ग्रंथो में मिलता है। फिर एक समय ऐसा भी आया जब रामजी ने वनवासी समूहों को राज महल से जोड़ा। यह समय विजयदशमी से दीपावली के बीच का ही मिलता है।
रावण का वध विजयादशमी को हुआ। विभीषण के राज्याभिषेक और सीता की वापसी में तीन दिन और लगे। तीन दिन बाद रामजी लंका से रवाना हुये और दीपावली को अयोध्या लौटे। उन्हें मार्ग में सत्रह दिन लगे। रामजी पुष्पक विमान से लौटे थे। पुष्पक विमान साधारण नहीं था उसकी गति दिव्य थी वह इक्छा शक्ति से चलता था। पुष्पक विमान कुछ क्षणों में ही रामजी को अयोध्या ला सकता था। फिर भी उन्हें मार्ग में सत्रह दिन लगे। वस्तुतः राम जी लौटते समय उन सभी स्थानों पर एक एक दिन रुके जहाँ उन्होंने अयोध्या से श्रीलंका की यात्रा में जाते समय विश्राम किया था लोगों से भेंट की थी या सीता हरण के बाद सहायता ली थी। रामजी के साथ विभीषण सुग्रीव और हनुमान जी भी थे। विभीषण ने आग्रह पूर्वक श्रीलंका के अक्षय खजाने से विनती पूर्वक कुछ भेंट भी की थी। वह सब सामग्री विमान में थी। वनवासियों को सक्षम और समृद्ध बनाने के लिये रामजी ने वह संपत्ति उनके बीच बाँट दी थी। महाराज सुग्रीव और महाराज विभीषण को यह जिम्मेवारी सौंपी कि दंडकारण्य के उस ओर उनके राज्यों की सीमा से लगे वन क्षेत्रों की सुरक्षा के लिये प्रबंध करें जबकि दंडकारण्य के इस ओर के वन क्षेत्र में रहने वालों की सुरक्षा का भार उन्होंने कौशल राज्य को सौंपा।
रामजी चाहते तो कुछ क्षणों में ही अयोध्या लौट सकते थे लेकिन उनके मन में वनवासियों की व्यथा का दृश्य था जो उन्होंने लंका जाते समय अनुभव किया था। उन्ही समस्याओं के समाधान और राजमहल से वनवासियों को सीधे जोड़ने के लिये उन्होंने लौटने में विभिन्न स्थानों पर पड़ाव डाले और व्यवस्था बनाई। श्रीलंका में भी तीन दिन वे किसी उत्सव में नहीं रुके वहां भी उन्होंने वे तीन दिन वनवासियों और गिरिवासियों के बीच ही बिताये। श्रीलंका केवल एक नगर भर नहीं था वहां भी वन और पर्वत क्षेत्र रहे हैं जिनपर रावण ने बल पूर्वक अधिकार किया और शोषण किया था। रावण लंका का मूल शासक नहीं था अपने सशस्त्र समूह के साथ आया और उसने बल पूर्वक अधिकार किया। रावण का उद्धार करने के बाद उन्होंने इन सब नागरिकों का आत्मविश्वास जगाया उन्हे महाराज विभीषण से जोड़ा। रावण विजय के बाद रामजी नगर में नहीं गये। उन्होंने ये तीन इन्ही काम लगाये।
दुनिया के प्रत्येक समाज में क्षेत्रीयता का विभाजन होता है। यह विभाजन प्रकृति के गुणों के कारण है। भूमि के हर हिस्से में एक प्रकार के ही फल फूल या फसल नहीं होते। हर पर्वत पर एक सी औषधि नहीं होती। यह विविधता ही व्यक्ति या समाज की जीवन शैली विकसित करती है। इसी आधार पर समूह बनते हैं जो वर्ग या उपवर्ग का रूप ले लेते हैं। समाज जीवन में यह विभाजन आज भी है। वनवासियों और नगरवासियों के उपवर्ग तब भी थे और आज भी हैं। भील गौंड, कोल, कोरकू माढ़िया मुंडा आदि जो उप वर्ग आज हैं, ऐसे उपवर्ग तब भी थे। रामजी सभी वनवासी वर्गों और उपवर्ग के बीच रहे। उनसे जुड़े और लौटते समय उनके मुखियाओं को अपने साथ लिया। उन सबको साथ लेकर ही रामजी अयोध्या लौटे थे। रामजी जानते थे कि जिसप्रकार एक ही वृक्ष की शाखाएं अलग-अलग दिशाओं में फैलती हैं या उसके पके हुये फल से निकला बीज बीज किसी दूसरे स्थान पर पनप जाता है, नया वृक्ष बन जाता है उसी समाज का विस्तार होता है। विश्व की संपूर्ण मानवता का केन्द्रीभूत विन्दु एक ही है। व्यक्ति अपनी रुचि विशेषता के अनुसार कार्य करता है और रहने के लिये स्थान का चयन करता है। भारत में समाज जीवन की व्यवस्था एक चक्र के समान थी व्यक्ति ने वन सै पहले गाँव आया और गाँव से नगर में। अपनी आयु पूरी करके पुनः वन में लौट गया जिसे वानप्रस्थ कहा गया। तब के भारत में शिक्षा, चिकित्सा और अनुसंधान का केन्द्र वन ही हुआ करते थे। वनों में ही ऋषि आश्रम हुआ करते थे। रामजी पुनः सबको एक सूत्र पिरोया।
अयोध्या लौटते समय उनके पुष्पक विमान में निषाद, किरात, केवट आदि सभी वनवासी समूहों के प्रतिनिधि और ऋषि आश्रमों के प्रतिनिधि भी अयोध्या आये थे जो रामजी के राज्याभिषेक तक अयोध्या में अतिथि के रूप में रहे। रामजी के राज्याभिषेक के समय बैठने की व्यवस्था का वर्णन भी ग्रंथो में मिलता है। उनकी दाईं ओर ऋषि कुल, बाईं ओर वनवासी और गिरिवासी प्रतिनिधि तथा सम्मुख सामान्य नगरवासी बैठे थे। राज्याभिषेक का यह दिवस ही दीपावली का था। समय के साथ परंपरा में कुछ परिवर्तन तो आये पर मूल भाव नहीं बदला आज भी दीवाली उत्सव में प्रत्येक वर्ग और व्यक्ति का जुड़ाव होता है। वह श्रम के रूप में हो, सहयोग के रूप में हो या पूजन परंपरा में हो कोई नहीं छूटता। कोई फल लाता है, कोई फूल, कोई मिट्टी के दिये लाता है कोई तेल घी, कोई रुई की बाती लाता है कोई कपड़े सिलता है कोई पुताई करता है तो कोई सफाई। कोई पूजन सामग्री लाता है तो पूजन करता है। एक एक व्यक्ति जुड़ता है।
यह ठीक है कि भारत की समाज व्यवस्था में समय के साथ कुछ बुराइयाँ जुड़ गयीं लेकिन यह भारत और भारतीयों के कारण नहीं अपितु यह उस गहन अंधकार के कारण आईं जो परतंत्रता के कारण हजार वर्ष तक गहराया रहा। लेकिन अब हम स्वतंत्रता के धवल प्रकाश में हैं हमें उस अंधकारमयी समय में फैलाये गये भ्रम से ऊपर उठना है, उसका प्रतिकार करना है और अपनी मूल परंपराओं के सत्य को समझना है। भारतीय समाज जीवन में वह वन वासी हो, गिरिवासी हो, ग्रामवासी हो या नगर वासी हो सब एक ही वृक्ष की शाखायें हैं। कोई किसी से पृथक् नहीं सब एक दूसरे के पूरक हैं। सबको मिला कर ही हमारा राष्ट्र जीवन सशक्त होगा। यही अभियान रामजी ने चलाया था और विजयादशमी से दीपावली तक के बीस दिन इसी ध्येय के लिये समर्पित किये थे।
रमेश शर्मा
वरिष्ठ स्तंभकार