By आरएन तिवारी | Feb 05, 2021
गीता प्रेमियों ! सोच का प्रभाव हमारे मन पर होता है। मन का प्रभाव तन पर होता है। तन और मन दोनों का प्रभाव हमारे सम्पूर्ण जीवन पर होता है, इसलिए सदा सकारात्मक तथा अच्छा सोचें।
आइए ! गीता प्रसंग में चलते हैं... पिछले अंक में हमने पढ़ा...
धर्म की स्थापना और अधर्म का विनाश करने के लिए ही भगवान अवतार लेते हैं तथा जो जिस भाव से भगवान को भजता है, उसी भाव से भगवान भी उसको स्वीकार करते हैं फिर भी लोग भगवान का आश्रय क्यों नहीं लेते?
श्रीभगवानुवाच
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन ! यह मनुष्यलोक कर्मभूमि है। इसके अलावा दूसरे स्वर्ग, नर्क आदि जो लोक हैं, वे भोगभूमि हैं। मनुष्यलोक में भी कर्म करने का अधिकार केवल मनुष्य को ही है, पशु-पक्षी को नहीं। विधिपूर्वक किए गए कर्मों का फल देवताओं से शीघ्र ही मिल जाता है, इसीलिए वे देवताओं की ही शरण लेते हैं, और उन्हीं की आराधना करते हैं। वे ऐसा समझते हैं कि सांसरिक वस्तुओं की तरह भगवान की प्राप्ति भी कर्म करने से ही होती है, किन्तु मेरे विचार से सांसरिक वस्तुएँ कर्मजन्य हैं, लेकिन भगवान कर्मजन्य नहीं है। भगवान की प्राप्ति केवल उत्कट अभिलाषा और चाह से होती है। हमारी उत्कट अभिलाषा संसार के भोग पदार्थों में होती है, भगवान की प्राप्ति में नहीं। इसीलिए हम, न भगवान को प्राप्त कर पाते हैं और न ही उनके दर्शन कर पाते हैं। जिन्होंने अनन्य भाव से भगवान को चाहा उन्हें भगवान मिले।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥
भगवान कहते हैं- प्रकृति के तीन गुण होते हैं- सतो गुण, रजो गुण और तमो गुण। इनके आधार पर कर्म को चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में मेरे द्वारा बांटा गया है। मानव समाज की कभी न बदलने वाली इस व्यवस्था का कर्ता होने पर भी तुम मुझे अकर्ता ही समझो।
ब्राह्मण में सतो गुण की प्रधानता, क्षत्रिय और वैश्य में रजो गुण की प्रधानता तथा शूद्र में तमो गुण की प्रधानता रहती है। सृष्टि की रचना में भगवान का कुछ भी व्यय (खर्च) नहीं होता, वे ज्यों के त्यों ही रहते हैं इसीलिए उन्हें अव्यय कहा जाता है। भगवान अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं- मैं संसार की रचना करने के साथ-साथ समस्त कर्म करते हुए भी उन कर्मों में लिप्त नहीं होता हूँ। जैसे मेरी कर्मफल में स्पृहा नहीं है वैसे ही तुम्हारी भी कर्मफल में स्पृहा नहीं होनी चाहिए।
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥
प्राचीन कल में सब प्रकार के कर्म-बन्धन से मुक्त होने की इच्छा वाले मनुष्यों ने मेरे इस दिव्य स्वभाव को समझकर कर्तव्य-कर्म करके मोक्ष की प्राप्ति की है। इसलिए ही अर्जुन! तुम भी उन्हीं का अनुसरण करके इस युद्ध को अपना कर्तव्य मानकर युद्ध करो।
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥
कर्म, अकर्म और विकर्म इन तीनों को अच्छी तरह से समझना चाहिए क्योंकि कर्मों की सूक्ष्मता को समझना बहुत कठिन है। भगवान ने कर्म के तीन प्रकार बताए हैं- कर्म, अकर्म और विकर्म। शास्त्र के अनुसार स्वयं के हित के लिए फल की इच्छा से किया गया कार्य कर्म है। फल की इच्छा और आसक्ति से रहित होकर केवल दूसरों के हित को ध्यान में रखकर किया गया कर्म अकर्म बन जाता है और जो कार्य दूसरों का अहित करने अथवा दु:ख पहुंचाने के भाव से किया जाता है वह विकर्म बन जाता है। शास्त्र निषिद्ध कर्म भी विकर्म है।
वास्तव में कर्म, क्या है, अकर्म क्या है, और विकर्म क्या है... इसका समुचित स्वरूप जानने में बड़े-बड़े धर्माचार्य और विद्वान भी अपने-आप को असमर्थ पाते हैं। कृष्ण-सखा अर्जुन भी इस तत्व को न जानने के कारण अपने युद्धरूप कर्तव्य-कर्म को पाप मान रहे हैं। अत: कर्म की गति बहुत गहन है।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
अब भगवान तत्व ज्ञान की महिमा बताते हुए कहते हैं- इस संसार में जप, तप, पूजा, पाठ आदि जितने साधन हैं तथा गंगा यमुना आदि जितने तीर्थ हैं, वे सभी मनुष्य के पापों का नाश करके उसे पवित्र करते हैं। किन्तु उन सबमें तत्व ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कोई दूसरा साधन है ही नहीं क्योंकि वे सब साधन हैं और तत्व-ज्ञान उन सबका साध्य है।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
जिसमें शास्त्रों के प्रति पूर्ण श्रद्धा हो और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वही मनुष्य तत्व-ज्ञान को प्राप्त होकर उसी क्षण भगवान को प्राप्त हो जाता है। जब तत्व-ज्ञान का अनुभव होने पर इस दुख रूपी संसार से संबंध विच्छेद हो जाता है तब मनुष्य अपने आप परम शांति का अनुभव करने लगता है।
अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥
जिस मनुष्य को शास्त्रों का ज्ञान नही है, शास्त्रों में श्रद्धा नही है और शास्त्रों को शंका की दृष्टि से देखता है वह मनुष्य निश्चित रूप से नष्ट हो जाता है, इस प्रकार नष्ट हुआ संशयग्रस्त मनुष्य न तो इस जीवन में और न ही अगले जीवन में सुख को प्राप्त होता है। संशयग्रस्त मनुष्य दुविधा में जीता है, वह निश्चय नहीं कर पाता कि संसार का काम करूँ या भगवान का? इसमें मेरा हित है या अहित है? उसके भीतर संदेह भरे होने के कारण मन में शांति नहीं रहती। इसलिए श्रद्धा और विश्वास के द्वारा संशय को अवश्य ही मिटा देना चाहिए।
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥
अर्जुन के हृदय में संशय था- युद्ध करूँ या नहीं करूँ ? युद्ध रूपी घोर कर्म से मेरा कल्याण कैसे होगा? भगवान अर्जुन के संशय को दूर करना चाहते हैं और समझाते हैं- हे भरतवंशी अर्जुन! तुम अपने हृदय में स्थित इस अज्ञान से उत्पन्न अपने संशय को ज्ञान-रूपी तलवार से काटो और कर्म योग में स्थित होकर युद्ध के लिए खड़ा हो जाओ।
श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु...
जय श्री कृष्ण...
-आरएन तिवारी