By आरएन तिवारी | Jan 29, 2021
गीता प्रेमियों ! दर्द एक संकेत है कि हम जिंदा हैं। समस्या एक संकेत है कि हम मजबूत हैं और प्रार्थना एक संकेत है कि हम अकेले नहीं हैं, हमारे साथ भगवान हैं। आइए ! गीता प्रसंग में चलते हैं- पिछले अंक में हमने पढ़ा- जो मनुष्य भगवान से विमुख रहता है उसके सामने भगवान अपनी योगमाया में छिपे रहते हैं और एक साधारण मनुष्य की तरह दिखते हैं, लेकिन जो भगवान के सम्मुख होता है, भगवान उसके सामने प्रकट हो जाते हैं।
अब भगवान अपने अवतार का कारण बताते हैं-
श्रीभगवानुवाच
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
हे भरत वंशी अर्जुन ! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं अपने स्वरूप को प्रकट करता हूँ। कहने का तात्पर्य यह है कि जितनी बार आवश्यकता और अवसर प्राप्त हो जाए, उतनी बार भगवान अवतार लेते हैं। देखिए ! समुद्र मंथन के समय भगवान ने अजितरूप से समुद्र मंथन किया, कच्छपरूप से मंदराचल पर्वत को धारण किया तथा सहस्त्रबाहु रूप से मंदराचल को ऊपर से दबाकर रखा, फिर देवताओं को अमृत बाँटने के लिए मोहिनी-रूप धारण किया। इस प्रकार भगवान ने एक साथ कई रूप धारण किए। सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग इन चारों युगों में क्रमश: धर्म का नाश होता रहता है। सतयुग में धर्म के चारों चरण रहते हैं, त्रेता में तीन चरण रहते हैं, द्वापर में धर्म के दो चरण रह जाते हैं और कलियुग में केवल एक चरण ही शेष रह जाता है। जब युग की मर्यादा से अधिक धर्म का क्षरण होने लगता है, तब भगवान धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए अवतार लेते हैं। यहाँ बहुत-से लोग यह प्रश्न पूछते हैं कि आज-कल इतना अधर्म बढ़ गया है, फिर भी भगवान अवतार क्यों नहीं लेते? इसका यही जवाब है कि इस युग को देखते हुए अभी ऐसा समय नहीं आया है कि, भगवान अवतार लें। इस कलियुग में अभी भी धर्मात्मा पुरुष हैं। अभी भी धर्म जिंदा है।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
भगवान कहते हैं- हे अर्जुन ! साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए तथा दुष्टों का सम्पूर्ण विनाश करने के लिए और धर्म की फ़िर से स्थापना करने के लिए मैं प्रत्येक युग में समय-समय पर प्रकट होता हूँ। आइए ! इसको थोड़ा अच्छी तरह से समझ लें। साधु अर्थात सज्जन कौन है ?
शास्त्रों में साधु शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्यों ने कहा है- ‘साध्नोति पर कार्यं य: स साधु’ अर्थात् तन, मन और धन से जो दूसरों का हित करे वही साधु है। ज्यों-ज्यों कामनाएँ नष्ट होती हैं, त्यों-त्यों साधुता आती है और ज्यों-ज्यों कामनाएँ बढ़ती हैं, त्यों-त्यों साधुता लुप्त होती है। साधु व्यक्ति के स्वभाव में पशु, पक्षी, वृक्ष, पर्वत, मनुष्य, देवता, पितर, ऋषि, मुनि सबके प्रति हित का भाव भरा रहता है।
भगवान का दुष्टों से विरोध नहीं बल्कि उनके दुष्ट कर्मों से विरोध है। दुष्कर्म संसार का तथा उन दुष्टों का भी अहित करते हैं। इसलिए वे संसार तथा उन दुष्टों की भलाई करने के लिए ही दुष्टों का विनाश करते हैं, इससे संसार में सुख-शांति बढ़ती है तथा वे दुष्ट भी भगवान के धाम में चले जाते हैं। भगवान कितने दयालु हैं, इसीलिए तो उनको ‘दीनदयाल’ कहा जाता है।
ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥
भगवान कहते हैं हे पृथापुत्र ! जो मनुष्य जिस भाव से मेरी शरण में आता हैं, मैं भी उसी भाव से उसको आश्रय देता हूँ। प्रत्येक मनुष्य सभी प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। अभिप्राय है कि- जो व्यक्ति भगवान को अपना गुरु मानता है तो वे श्रेष्ठ गुरु बन जाते हैं, शिष्य मानता है तो वे श्रेष्ठ शिष्य बन जाते हैं, माता-पिता मानता है तो वे श्रेष्ठ माता-पिता बन जाते हैं। पुत्र, भाई, सखा, यहाँ तक कि श्रेष्ठ सेवक भी बन जाते हैं। अर्जुन का श्रीकृष्ण के प्रति सखा भाव था तथा वे उन्हें अपना सारथी बनाना चाहते थे तो भगवान सखा भाव से उनके सारथी बन गए। विश्वामित्र ऋषि ने भगवान श्रीराम को अपना शिष्य मान लिया तो भगवान उनके शिष्य बन गए। भगवान अपने आचरण से यह शिक्षा देना चाहते हैं कि—
जिस प्रकार मेरे साथ जो जैसा संबंध मानता है, उसके लिए मैं भी वैसा ही बन जाता हूँ, उसी प्रकार तुम भी उसके लिए वैसा ही बन जाओ। माता-पिता के लिए तुम सुपुत्र बन जाओ, पत्नी के लिए सुयोग्य पति बन जाओ, बहन के लिए श्रेष्ठ भाई बन जाओ और ज़िम्मेदारी पूर्वक अपने संबंधों का निर्वाह करो।
श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु
जय श्री कृष्ण
- आरएन तिवारी