Gyan Ganga: गीता में भगवान ने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के स्वाभाविक कर्म विस्तार से बताये हैं

By आरएन तिवारी | Jul 09, 2021

प्रभासाक्षी के सहृदय गीता प्रेमियों ! 


महत्व इंसान का नहीं उसके अच्छे स्वभाव का होता है। कोई एक पल में दिल जीत लेता है और कोई जिंदगी भर साथ रहकर भी नहीं जीत पाता।   

आइए ! अब गीता के आगे के प्रसंग में चलते हैं---


पिछले अंक में भगवान ने अर्जुन को सात्विक कर्म, राजसिक कर्म और तामसिक कर्म के विषय में उपदेश दिया था और यह भी कहा था कि कोई भी काम बिना सोचे बिचारे नहीं करना चाहिए। अब आगे के श्लोक में कर्ता अर्थात कर्म करने वाले व्यक्ति के स्वभाव के बारे में बताते हैं।

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मुक्तसङ्‍गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।

सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते॥


भगवान कहते हैं-- जो व्यक्ति अथवा कर्ता राग रहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सफल होने और न होने दोनों परिस्थितियों में हर्ष और शोक का अनुभव नहीं करता, वह सात्त्विक कहा जाता है। सात्त्विक व्यक्ति सामान्य रूप से सतत अपने कर्म में लगा रहता है। 


रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।

हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः॥


जो कर्ता कर्म फल की आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है वह राजस कहा गया है। राजसी प्रवृत्ति के व्यक्ति को जितना भी मिलता है वह उसमें संतोष नहीं करता बल्कि येन केन प्रकारेण और प्राप्त करने की इच्छा रखता है। 


आयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोनैष्कृतिकोऽलसः ।

विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥


जो कर्ता असावधान, शिक्षा से रहित, घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री (दीर्घसूत्री उसको कहा जाता है कि जो थोड़े समय में होने लायक साधारण कार्य को भी फिर कर लेंगे, ऐसी आशा में बहुत समय तक नहीं पूरा करता।) है वह तामस कहा जाता है। तामसी स्वभाव के लोग किसी की नहीं सुनते हैं, अपनी जिद पर अड़े रहते हैं।  


अब भगवान सात्त्विक बुद्धि के लक्षण बताते हुए कहते हैं--- 


प्रवत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।

बन्धं मोक्षं च या वेति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥


हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग (गृहस्थ में रहते हुए फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदर्पण बुद्धि से केवल लोकशिक्षा के लिए राजा जनक की भाँति बरतने का नाम 'प्रवृत्तिमार्ग' है।) और निवृत्ति मार्ग को (देहाभिमान को त्यागकर केवल सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव स्थित हुए श्री शुकदेवजी और सनकादिकों की भाँति संसार से उपराम होकर विचरने का नाम 'निवृत्तिमार्ग' है।), कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ जानती है- वह बुद्धि सात्त्विकी है। 


यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।

अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी॥


भगवान श्री कृष्ण कहते हैं--- हे पार्थ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को अच्छी तरह से नहीं जानता, उसको राजसी बुद्धि वाला व्यक्ति समझना चाहिए। 


अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।

सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी॥


हे अर्जुन! तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी धर्म मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य अर्थवान पदार्थों को भी निरर्थक मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है। कहने का अभिप्राय यह है, कि तामसी व्यक्ति भगवान की निंदा करना, शास्त्र और लोक मर्यादा के विपरीत काम करना, अपने माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार न करना, संत-महात्मा गुरु-आचार्य का अपमान करना, झूठ, कपट, बेईमानी और व्यभिचार आदि कर्मों को भी धर्म (सही) मानकर बिना रोक-टोक के करता रहता है।  


अब आगे के श्लोकों में भगवान सुख के लक्षण बताते हुए कहते हैं---


सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।

अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति॥

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्‌।

तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्‌॥


हे भरतश्रेष्ठ ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और भगवान की सेवा में रम जाता है और जिससे उसके सारे दुःखों का अंत हो जाता है। ऐसा सुख आरंभकाल में विष के समान प्रतीत (जैसे खेल में आसक्ति वाले बालक को विद्या का अभ्यास विष के तुल्य लगता है वैसे ही विषयों में आसक्ति वाले मनुष्य को भगवद्भजन, ध्यान, सेवा आदि साधनाओं का अभ्यास मर्म न जानने के कारण प्रथम 'विष के तुल्य प्रतीत होता' है) होता है, परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है, इसलिए वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है।

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विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्‌।

परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्‌॥


जो सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह पहले- भोगकाल में तो अमृत के तुल्य लगता है, किन्तु परिणाम में विष के तुल्य (बल, वीर्य, बुद्धि, धन, उत्साह और परलोक का नाश होने से विषय और इंद्रियों के संयोग से होने वाले सुख को 'परिणाम में विष के तुल्य' कहा है) है इसलिए वह सुख राजस कहा गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि शुरू-शुरू में विषय भोग बड़े अच्छे लगते हैं, उनमें बड़ा सुख महसूस होता है, परंतु उनको भोगते-भोगते वही सुख बाद में नीरस हो जाता है, उस सुख में अरुचि हो जाती है और अंत में वही अमृत के समान लगने वाला सुख जहर जैसा लगने लगता है।  


यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।

निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्‌॥


जो सुख भोगने में तथा परिणाम में भी दुख और आत्मा को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है। तामसी व्यक्ति को निद्रा, आलस्य और प्रमाद में ही सुख लगता है। वास्तव में ऐसा है नहीं। ये निद्रा, आलस्य और प्रमाद उस इंसान को नष्ट कर देते हैं।


अब भगवान ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म बताते हुए कहते हैं---


शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्‌ ॥


अपने मन का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं। यहाँ एक बात जानने योग्य यह है कि जिन ब्राह्मणों की वंश परंपरा शुद्ध है उनके स्वभाव में ही ये गुण पाए जाते हैं। वर्णसंकरता आने पर इन गुणों में कमी आ जाती है। 


शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्‌।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्‌॥


अब भगवान क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म बताते हुए कहते हैं—

शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव अर्थात शासन करने की योग्यता ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। 


कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्‌।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्‌॥


खेती, गोपालन, खरीदना-बेचना और सत्य व्यवहार (वस्तुओं के खरीदने और बेचने में तौल, नाप और गिनती आदि से कम देना अथवा अधिक लेना एवं वस्तु को बदलकर या एक वस्तु में दूसरी या खराब वस्तु मिलाकर दे देना अथवा अच्छी ले लेना तथा नफा, आढ़त और दलाली ठहराकर उससे अधिक दाम लेना या कम देना तथा झूठ, कपट, चोरी और जबरदस्ती से अथवा अन्य किसी प्रकार से दूसरों के हक को ग्रहण कर लेना इत्यादि दोषों से रहित जो सत्यतापूर्वक पवित्र वस्तुओं का व्यापार है उसका नाम 'सत्य व्यवहार' है।) 


ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना, सेवा की सामग्री तैयार करना, चारों वर्णों के कार्यों में कोई बाधा न आए, सबको सुख आराम मिले इस भाव से अपनी योयता और बल के द्वारा सबकी सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्तव्य है। हमें हर परिस्थिति में अपने-अपने कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए। 


सागर की लहरें न ठहरी

सरिता ने भी गति न छोड़ी

खग ने अपनी दिशा न मोड़ी

व्यर्थ न समय गंवाओ

अपना कर्तव्य निभाओ।।


श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु --------

जय श्री कृष्ण----------


-आरएन तिवारी

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