By अभिनय आकाश | Apr 04, 2022
6 अप्रैल 1896 की तारीख जब पहली बार आधुनिक ओलंपिक खेलों का आयोजन ग्रीस की राजधानी एथेंस में हुआ। लेकिन आज हम आपको ओलंपिक खेलों के इतिहास के बारे में नहीं बताने जा रहे हैं। वजह है इसके ऊपर तो हमने एक लंबा-चौडा एपिसोड किया हुआ है हिस्ट्री को रिविजिट करके पूरा निचोड़ आपके सामने रख दिया है। आज इसी तारीख से जुड़ी एक और बड़े घटनाक्रम का उल्लेख आपके सामने करने जा रहा हूं। जब 1980 के साल में अप्रैल के महीने की 6 तारीख को दिल्ली का फिरोजशाह कोटला मैदान पर कुछ बड़ा होने जा रहा था। उस दिन यहां कोई क्रिकेट का मुकाबला नहीं हो रहा था। बल्कि सियासत की एक नई पारी एक नई पार्टी का आगाज हो रहा था। दो दिन पहले ही अपनी पार्टी से निकाले गए नेताओं का जमावड़ा अपनी नई पार्टी को खड़ा करने के इरादे से हुआ था। इस मीटिंग में पहुंचने वाले नेताओं में दो बड़े वकील थे, एक महरानी थी। जनता पार्टी की सरकार में मंत्री रहे चार बड़े नेता थे और साथ में था कार्यकर्ताओं का हुजूम। पर्दे के पीछे से इस मीटिंग को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का भी आशीर्वाद प्राप्त था। बैठक शुरू हुई तो इस नवगठित पार्टी के अध्यक्ष ने गांधीवादी समाजवाद का राग अलाप दिया जो कि आरएसएस की स्थापित सोच से बिल्कुल अलग था। लेकिन इस मुद्दे को उठाने वाले नेता का कद इतना बड़ा था कि सभी खामोश रहे। हम बात कर रहे हैं भारतीय जनता पार्टी की। जिसकी नर्सरी से अब तक एक राष्ट्रपति दो उपराष्ट्रपति, दो प्रधानमंत्री और तीन नेता प्रतिपक्ष निकल चुके हैं। जिसके बारे में इन दिनों कहा जा रहा है कि वो बदल गई है। बीजेपी के बनने की कहानी तो आपने खूब सुनी होगी लेकिन आज आपको बीजेपी के बदलने की कहानी बताएंगे। इसके साथ ही बताएंगे कि इस बदलाव के पीछे की वजह क्या है। इसके साथ ही चलते-चलते 2 सीटों से 303 के आंकड़े को छूने के सफर से भी एक रूबरू कराएंगे।
2 सीटों से 303 के आंकड़े तक
आज भारतीय जनता पार्टी अपने 42वें जन्मदिवस को मना रह़ी है। अपनी स्थापना के बाद भारतीय जनता पार्टी ने पहले लोकसभा चुनाव में सिर्फ दो सीटों पर जीत हासिल की थी। आधे से अधिक प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई थी। लेकिन आज बीजेपी जिस मुकाम पर है वो किसी को बताने की जरूरत नहीं है। 42 साल पहले 6 अप्रैल 1980 को अटल बिहारी वाजपेयी तथा लाल कृष्ण आडवाणी ने भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की थी। अटल बिहारी वाजपेयी संस्थापक अध्यक्ष थे। 80 में स्थापना के बाद सन 1984 में बीजेपी ने पहला लोकसभा चुनाव लड़ा। देशभर में कुल 224 प्रत्याशी मैदान में उतरे। लेकिन बीजेपी को केवल दो सीटों पर जीत हासिल हुई। लगभग आधे यानी 108 प्रत्याशियों की जमानच जब्त हो गई। लेकिन बीजेपी ने हार नहीं मानी और 1989 का चुनाव और मजबूत होकर लड़ा। 1989 में बीजेपी ने 225 प्रत्याशी उतारे थे। जिसमें से 85 सीटों पर जीत हासिल हुई। 1989 में पार्टी को मिली जीत से देशभर में पार्टी के विस्तार को मदद मिली। इसके बाद राम मंदिर आंदोलन ने पार्टी का जनाधार बढ़ाने में और मदद की। केंद्र में अस्थिरता की वजह से 1991 में फिर से लोकसभा चुनाव हुए। जिसमें भारतीय जनता पार्टी का जनाधार और भी मजबूत होता दिखा। 1991 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने पूरे देश में पहले के मुकाबले दोगुने यानी 468 प्रत्याशी मैदान में उतार दिए। 1991 का चुनाव बीजेपी ने राम मंदिर के मुद्दे पर लड़ा और उसने 120 सीटें जीत लीं। इस साल बीजेपी देश की नंबर दो पार्टी बन गई। इसके साथ ही देशभर में उसका वोट शेयर 20.11 प्रतिशत तक पहुंच गया था। बीजेपी को लग गया कि सत्ता की संजीवनी चाहिए तो राम नाम से राष्ट्रवाद पर जाना होगा। इसी दौर में बीजेपी में मुरली मनोहर जोशी अध्यक्ष बन गए थे। दिसंबर 1991 में उनकी तिरंगा यात्रा निकली जिसका मकसद 26 जनवरी 1992 को श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराना था। साल 1993 में आडवाणी एक बार फिर बीजेपी के अध्यक्ष बनते हैं। आडवाणी को ये अंदाजा था कि पार्टी को नंबर टू से नंबर 1 बनाने और इससे भी आगे प्रधानमंत्री देने के लिए कोई उदार छवि वाला चेहरा चाहिए। 1995 में वाजपेयी जी से बगैर पूछे ही उनको प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया और उनके इस ऐलान के बाद सब के सब हैरान रह गए थे। देशभर में पार्टी का विस्तार होने लगा था और 1996 के लोकसभा चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी एक बड़ा दल बनकर सामने आई। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार भी बन गई। हालांकि ये सरकार केवल 13 दिन चली। बीजेपी की सरकार गिरने के बाद कांग्रेस ने अन्य दलों के साथ गठबंधनन संयुक्त मोर्चा के साथ मिलकर सरकार बनाई। लेकिन वो भी ज्यादा दिन तक नहीं चली। 1998 में फिर से चुनाव कराने पड़े। 1998 के लोकसभा चुनाव तक भारतीय जनता पार्टी को समझ आ चुका था कि क्षेत्रिय दलों के बिना सरकार बनाना संभव नहीं है। यही वजह है कि भाजपा ने उस वक्त कई क्षेत्रिय दलों के साथ गठबंधन किया और खुद 388 सीटों पर ही चुनाव लड़ा। बाकी सीटें सहयोगी दलों के लिए छोड़ दी। बीजेपी की ये रणनीति काम कर गई और पार्टी को 182 सीटों पर जीत मिली। सरकार भी बन गई हालांकि वो सरकार भी 13 महीने में ही विश्वास मत से हार गई। देश को फिर से चुनाव का सामना करना पड़ा। लेकिन भारतीय जनता पार्टी 1998 के चुनाव से सीख चुकी थी कि कैसे जीतना है और सरकार कैसे बनानी है। इसी रणनीति को पार्टी ने 1999 में हुए लोकसभा चुनाव में अपनाया। बीजेपी ने अपने वोट शेयर को 23 फीसदी से ज्यादा कर लिया। लेकिन इसी दौर में यूपी में सपा-बसपा का उभार भी तेजी से हुआ। बीजेपी ने अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर केंद्र में सरकार बनाई और 2004 तक का कार्यकाल पूरा भी किया। देशभर में भाजपा को सिर्फ 138 सीटें मिलीं। साल 2004 में इंडिया शाइनिंग के बुरी तरह फेल होने के बाद एक बार फिर से बीजेपी की कमान लालकृष्ण आडवाणी के हाथों में आ जाती है। लेकिन आडवाणी के नेतृत्व में बीजेपी को 2009 के चुनाव में भी शिकस्त ही मिलती है। इस दौरान बीजेपी ने राजनाथ सिंह से लेकर नितिन गडकरी तक अपने अध्यक्ष बदले। लेकिन पार्टी में बड़ा बदलाव मोदी लेकर आए। जिनके नाम और छवि पर बीजेपी पूर्ण बहुमत पाने में कामयाब हो पाई। 004 से सत्ता से बाहर भाजपा ने 2013 में अटल-आडवाणी के दौर के बाद नए नेता के रूप में अपना चेहरा बनाया था। उस दौर में यह शायद पहला ऐसा मौका था जब भाजपा के किसी अध्यक्ष ने अपने टीम के गठन में इतने बड़े स्तर पर बदलाव किए थे। जिनमें 12 में से दस उपाध्यक्ष और सभी महासचिव नए थेl। छह साल पहले संसदीय बोर्ड से हटाए गए नरेंद्र मोदी को फिर बोर्ड में शामिल कर भाजपा ने अपने इरादे साफ़ जाहिर कर दिए थे। जिसके बाद मोदी को सेंट्रल इलेक्शन कैंपेन कमिटी का चेयरमैन बनाया गया। वो एकमात्र ऐसे पदासीन मुख्यमंत्री थे, जिन्हें संसदीय बोर्ड में शामिल किया गया था। याद कीजिए 2014 की मोदी की यात्राएं और सभाएं। भ्रष्टाचार के आरोपों से धूमिल मनमोहन के मंत्रिमंडल के मुकाबले उन्होंने राजनीति में अलादीन का चिराग रख दिया। गुजरात की चौहद्दी से निकले मोदी ने 2014 के चुनाव में उतरते ही एक इतनी बड़ी लकीर खींच दी थी जिसके सामने सब अपने आप छोटे हो गए थे। बीजेपी तो पहले भी जीत चुकी है लेकिन ऐसी जीत पहले कभी नहीं मिली। 182 की चौखट पर हांफने वाली बीजेपी अपने बूते बहुमत के आंकड़े को पार किया। एक चाय वाले ने भारतीय राजनीति के प्याले में तूफान ला दिया। सोलहवीं लोकसभा अपनी सोलहों कलाओं के साथ उस शख्स पर कुर्बान हो गई और पार्टी की कमान बीजेपी की जीत के सूत्रधार अमित शाह को पार्टी की कमान सौंपी गई। 17वीं लोकसभा में नरेंद्र मोदी ने खुद को प्रधानमंत्री और निरंतर प्रधानमंत्री के दोराहे पर मूर्धन्य की तरह स्थापित कर दिया। वहीं राम से आगे बढ़ चुकी बीजेपी आज जेपी नड्डा के नेतृत्व में विकास के अखाड़े में सारे विरोधियों को धूल चटा चुकी है।
जीत के नारों के बीच छिपा सियासी संदेश
एक राज्य पहाड़ का एक राज्य समंदर किनारे का एक राज्य गंगा किनारे का एक राज्य पूर्वोत्तर का। पांच राज्य में से चार राज्य ऐसे जिसमें भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक हर तरह से भिन्नता है। लेकिन इन चार राज्यों में एक समानता दिखी। बीजेपी की विजय की समानता। पीएम मोदी पर कायम जनता के भरोसी की समानता। लखनऊ से पणजी तक देहरादून से इंफाल तक एक राजनीतिक व्यक्ति के मनोयोग से चुनौतियों के चक्रव्यूह को भेदते हुए बीजेपी इतिहास रचती है। जीत के नारों और मोदी-योगी के जयकारों के बीच वो सियासी संदेश छुपा है जिसकी गूंज 2024 तक जाती है। बीजेपी ने चार राज्यों में अपनी सरकार का गठन कर लिया और मंत्रियों ने शपथ भी ले ली। लेकिन आप जनमानस के मन में बीजेपी की अभी तक ऐसी तस्वीर रही है जो आरएसएस के मुख्यालय नागपुर से नियंत्रित होती है। जो केवल और केवल अपने काडर पर ही भरोसा करती है। जहां दूसरे दल या विचारधारा से आने वाले शख्य के लिए बहुत ज्यादा स्पेस नहीं होता। 2014 से पहले तक अगर बीजेपी की व्याख्या होती तो ये उपरोक्त कही बातें सोलह आने सच होती। स्थापित चेहरों के नेतृत्व में चुनाव में जाना, चाहे भले ही उनमें चुनाव जीताने की काबलियत बची हो या नहीं, इस सारी बातें बेमानी लगती थी। चाहे इसके परिणाम कुछ भी रहे हो। दो बार सत्तारूढ़ होने के बाद भी सदन में विश्वासमत हासिल नहीं कर पाना हो या तीसरी बार पांच साल के कार्यकाल के बाद भी वापस नहीं आना, वो फिर भी खुश थी।
जो उपयोगी है वो उसका है
2014 के बाद बीजेपी में काफी बदलाव आए हैं और इस बात से कोई इनकार भी नहीं कर सकता। उसमें हारी हुई बाजी को जीत में बदलने का हुनर आ गया है। पार्टी को अब हार शब्द इतना नागवार गुजरने लगा है कि पार्टी टाइम पॉलिटिक्स को उसने फुल टाइम जॉब बना दिया है। बात चाहे चुनावी रैलियों के माध्यम से मैदान में उतरना हो या वर्क फ्रॉम होम वाले टाइम में आभाषी मंच का सहारा लेना पार्टी की बस एक ही नीति है द शो मस्ट गो ऑन। वो जोखिम लेने से नहीं डरती उसका सीधा सा फॉर्मूला है जो उपयोगी है वो उसका है और जो अनुपयोगी है वो उसका होकर भी नहीं है।
दूसरे दलों से आए नेताओं को महत्वपूर्ण भूमिका
बीजेपी की बदलती ही सोच का नतीजा है कि पार्टी ने सोनोवाल से लेकर ब्रजेश पाठक तक को राज्य में अहम पदों पर बिठाने में कोई किंतु-परंतु नहीं किया। 2014 से लेकर 2022 तक दो लोकसभा चुनाव और विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मिली जीत की कामयाबी में दूसरे दलों से आए नेताओं की महत्वपूर्ण भूमिका देखने को मिली है। पांच साल पहले किसी दूसरी पार्टी से आया शख्स बीजेपी सरकार में प्रदेश का मुखिया बन रहा है। कोई उपमुख्यमंत्री बन रहा है तो कोई विपक्ष का नेता। हिंदुस्तान की हुकूमत भले ही दिल्ली से चलती हो। लेकिन दिल्ली की गद्दी पर कौन विराजेगा ये उत्तर प्रदेश ही तय करता है। इस जीत और जश्न में डबल इंजन की सरकार वाला दम है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी की बड़ी जीत 2024 में उसके लिए सबसे बड़ा कदम है।
बीजेपी में आए बदलाव की वजह
उत्तर प्रदेश में योगी 2.0 की सरकार के गठन से पहले सीएम का नाम तो सभी को पता था लेकिन डिप्टी सीएम पद को लेकर कयासों का दौर खूब चल पड़ा था। कोई कह रहा था कि इस बार यूपी में चार सीएम बनेंगे। कोई केशव प्रसाद मौर्य के चुनाव हारने के बाद उनके केंद्र में जाने की बात भी करता दिख रहा था। लेकिन योगी कैबिनेट के शपथग्रहण समारोह में एक शख्स के पार्टी के तमाम धुरंधरों को पछाड़ते हुए सीधा डिप्टी सीएम की शपथ लेने के बाद सभी हैरान हो गए, आखिर ये कैसे हो गया? महज पांच साल पहले बसपा से बीजेपी में शामिल होकर सीधा राज्य के उपमुख्यमंत्री का बनाया जाना। लेकिन ये कोई एकलौता उदाहरण नहीं है बल्कि फेहरिस्ता काफी लंबी है। 2015 में कांग्रेस से बीजेपी में शामिल हुए हिमंत बिस्वा सरमा महज छह साल में असम के सीएम बन जाते हैं। यही नहीं, उनसे पहले पांच साल तक असम के सीएम सर्वानंद सोनोवाल रहे। सोनोवाल को जब सीएम की कुर्सी मिली तो असम गण परिषद से बीजेपी में उन्हें भी आए हुए पांच साल का वक्त ही बीता था। कर्नाटक के सीएम वासवराज बोम्मई भी 13 साल पहले कमल थामा था। उधर, बंगाल में बीजेपी ने जिन सुभेंदु अधिकारी को नेता प्रतिपक्ष बनाया है, उन्हें जब ये दर्जा मिला, तब बीजेपी में अधिकारी को आए हुए सिर्फ छह महीने ही हुए थे। आज वह बंगाल में बीजेपी का चेहरा हैं और ममता सरकार को लगातार विभिन्न मुद्दों पर घेरते भी नजर आते हैं। चाहे मध्य प्रदेश के ज्योतिरादित्य सिंधिया हों या यूपी के कौशल किशोर या महाराष्ट्र के नारायण राणे। जब ऐसे चेहरों को लोग बीजेपी में आगे बढ़ते और मजबूत होते देखते हैं तो उन्हें लगता है कि पार्टी बदल गई है या बदल रही है।
-अभिनय आकाश