Interview: राजनीति की तरह फिल्मों में भी हावी है भाई-भतीजावाद: रमेश चंद्र गौड़

By डॉ. रमेश ठाकुर | Nov 06, 2023

विगत दो दशकों से भी ज्यादा वक्त से प्रो0 रमेश चंद्र गौड़ संस्कृति मंत्रालय से जुड़े हैं। रंगमंच का मक्का कहे जाने वाले ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ यानी ‘एनएसडी’ चीफ के रूप में भी सेवाएं दीं, जहां उन्होंने कई बदलाव और सुधार किए। भारत सरकार ने इस वक्त उन्हें इंदिरा गांधी नेशनल केंद्र में कला निधि डिवीजन की हेड की जिम्मेवारी सौंपी है जिसे बखूबी निभा रहे हैं। प्रो0 गौड़ ने बदलती रंगमंची दुनिया को बहुत नजदीक से देखा है। इसी मुद्दे को लेकर डॉ. रमेश ठाकुर ने उनके साथ विस्तृत बातचीत की। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश-


प्रश्नः बदलते सिनेमा के भविष्य को आप किस रूप में देखते हैं?


उत्तर- देखिए, समय के साथ-साथ हर चीज खुद को रिफॉर्म करती है। इस लिहाज से सिनेमा-थिएटर ने भी खुद को बदला। सिनेमा को हम सामाजिक अच्छाइयों और बुराइयों का दर्पण मानते हैं। मुझे लगता है दोनों विधाएं बदलते युग के साथ-साथ आधुनिक हुई हैं। गुजरे जमाने का सिनेमाई पर्दा सफेद होता है, फिर रंगीन हुआ। दृश्य बदले, तो दर्शकों का मिजाज भी चेंज हुआ? सिनेमा के बदलाव के पीछे दर्शकों की पसंद ने भी अग्रणी भूमिका निभाई है। फिल्म मेकर हों या थिएटर आर्टिस्ट, दोनों वैसा ही करते हैं जो पब्लिक की डिमांड होती है। यहां मैं इतना जरूर कहूंगा कि सिनेमा और रंगमंच में काफी भिन्नता है। रंगमंच का आज भी कोई मुकाबला नहीं कर सकता।

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प्रश्नः क्या आपको नहीं लगता रंगमंच को और बढ़ावा देने की जरूरत है?


उत्तर- मनोरंजन की ये ऐसी विधा है जिसकी प्रासंगिकता कभी कम नहीं होगी, बल्कि बढ़ती ही जाएगी। अगर गौर करें, तो ‘वैल्यू एडिशन जैसा मैटेरियल’ आज भी रंगमंच की दुनिया ही दर्शकों को परोसती है। रंगमंच मनोरंजन का बहुत ही मजबूत पिलर है जिसकी उपयोगिता को दर्शक जानते हैं समझते हैं। फिल्मों और ओटीटी प्लेटफार्म पर जब शर्मिंदगी वाले सीन दर्शाए जाते हैं, तो दर्शक अपने बच्चों को रंगमंच के संबंध में बताते हैं। रंगमंच आज भी स्कूलों, कॉलेजों, गांव-खेडो में अपनी धाक जमाए हुए है। एनएसडी में रहते मैंने रंगमंच को गांव-गांव तक पहुंचाने का सफल प्रयास किया। ‘ताजमहल का टेंडर’ जैसे नाटक की गूंज आज भी है। काफी समय तक देश में कुछ चुनिंदा शहरों में एकाध ही ‘रंगमंच महोत्सव’ आयोजित होते थे, लेकिन मैंने एनएसडी के जरिए देशभर में एकसाथ 15 महोत्सव आयोजित करवाए। एनएसडी में कई रिक्तियां ऐसी थीं, जो वर्षों से नहीं भरी गईं, सबसे पहले उन्हें भरवाया।

  

प्रश्नः कहते हैं कि मंझा कलाकार थिएटर से ही निकलता है। पर, मायानगरी में पहुंचकर उनको भी तमाम तरह की चुनौतियों से जूझना पड़ता है?


उत्तर- देखिए, मैं हमेशा से इस बात का पक्षधर रहा हूं कि कुछ ऐसा हो कि जब फिल्मों की कास्टिंग की जाए, तब बाकायदा कलाकारों की खोज हो, स्क्रिप्ट के हिसाब से कलाकारों का चुनाव हो, ऑडिशन अच्छे से हो? पर अब ऐसा कम ही होता है। क्योंकि जहां तक मुझे लगता है, राजनीति की तरह फिल्मों में भी भाई-भतीजावाद हावी हो गया है। निर्देशक, प्रोड्यूर व फाइनेंसरों के बच्चे ही अब फिल्मों में रखे जाते हैं। जब ऐसा होता तो उस कलाकार का हक मार दिया जाता है, जो वास्तव में हकदार होता है। ऐसा करने से फिल्मों की क्वालिटी भी डाउन होती है। उदाहरण हमारे सामने हैं, गुजरे वक्त के तमाम बेहतरीन कलाकारों की अगली पीढ़ी मौजूदा वक्त में फेल हो गई। हालांकि उन्हें जबरदस्ती लांच करने की कोशिशें भी हुईं, लेकिन नहीं चले। एनएसडी से निकले अनगिनत कलाकार ऐसे हैं जिनका कोई गॉडफादर नहीं रहा। बावजूद अपने हुनर के बूते बुलंदियां हासिल की। थिएटर कलाकार अपने सीन में जान फूंक देता है।


प्रश्नः थिएटर कलाकारों के सामने मौजूदा समय में चुनौतियां की भरमार हैं, कैसे दूर हों ये समस्याएं?


उत्तर- समस्याएं हैं तभी तो थिएटर आर्टिस्ट फिल्मों का रुख कर जाते हैं। जहां, तक मैं समझता हूं, इन कलाकारों के सामने अव्वल समस्याएं तो आजीविका की होती है। उनके सामने काम का अभाव होता है। ऐसे में अगर उन्हें फिल्मों से एकाध भी असाइनमेंट मिल जाते हैं, तो वहां पैसा भी अच्छा मिलता है। एक बार जब कोई थिएटर आर्टिस्ट फिल्मों में चले जाते हैं, फिर जल्दी पीछे नहीं मुड़कर नहीं देखते। दरअसल, उन्हें थिएटर के अनुभव का वहां बड़ा फायदा मिलता है। क्योंकि थिएटर आर्टिस्ट कहीं भी, कभी भी मात नहीं खा सकते। वो एक्टिंग की विभिन्न विधाओं में फिट हो जाते हैं। एनएसडी ने न सिर्फ हिंदुस्तानी सिनेमा को, बल्कि दुनिया को बहुत कुछ दिया है। ये एक्टिंग का मक्का है, जिसने बेहतरीन से बेहतरीन कलाकार दिए हैं।


प्रश्नः आप मानते हैं आधुनिक सिनेमा पूरी तरह से व्यवसायिक होता जा रहा है?


उत्तर- ये सच्चाई है, मानने की कोई बात ही नहीं। फिल्मकारों का मकसद अब फिल्मों के जरिए सामाजिक संदेश देना नहीं होता, बल्कि बिजनेस अर्जित करने पर ज्यादा ध्यान होता है। एक फिल्म जब 100 करोड़ रुपए में बनकर तैयार होती है, तो फिल्म मेकर की कोशिश होती है, 200-300 करोड़ कमाने की। सिनेमाई पर्दा अब दर्शकों को अपनी ओर खींचने के लिए मास पर इंपैक्ट डालने के लिए ग्लैमर को बेतहाशा परोसने लगे हैं। लेकिन इससे युवा वर्ग तो आकर्षित हो जाते हैं, पर बुद्धिजीवी वर्ग नहीं? इसलिए रंगमंच को आज भी लोग वैसे ही पसंद करते हैं, जैसे गुजरे वक्त में करते थे। मौजूदा फिल्मों में अनुशासन कतई नहीं होता।

  

प्रश्नः ओटीटी ने भी खेल बिगाड़ा हुआ है?


उत्तर- ओटीटी प्लेटफार्म ठीक है वैसे? पर उनका कंटेंट बेलगाम है। सरकार की तय गाइडलाइन के बिल्कुल विपरीत होता है। कोरोना काल में या लॉकडाउन के वक्त ये ओटीटी बहुत सफल हुआ था। लेकिन उसकी पहुंच सभी तक ओवरऑल नहीं है। हालांकि ओटीटी ने दर्शकों को काफी हद तक सिनेमा घरों में पहुंचने से रोका है। ओटीटी दर्शकों को उनके घरों में ही जरूरत के मनोरंजन के साधन उपलब्ध करवा रहा है। युवा वर्ग इसकी ओर बहुत आकर्षित हुआ है। ओटीटी लंबे रेस का घोड़ा नहीं दिखाई देता। ठीक समय के साथ नई-नई तकनीकें ईजाद होती हैं। उनका टेस्ट लेना चाहिए और स्वागत भी करना चाहिए। बाकी दर्शकों के स्वाद के ऊपर निर्भर करता है कि उन्हें क्या देखना पसंद है और क्या नहीं?


-बातचीत में जैसा डॉ. रमेश ठाकुर से प्रो0 रमेश चंद्र गौड़ ने कहा।

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