तपते टापू बनते शहरों में जनजीवन पर मंडराया संकट, कौन है जिम्मेदार?

By कमलेश पांडे | Jun 19, 2024

उत्तर भारत में भीषण गर्मी और लू से आम जनजीवन बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। क्योंकि लू के दिनों की संख्या इस बार दो गुनी से ज्यादा हो गई है। आंकड़े बता रहे हैं कि लू की चपेट में आने से अबतक दर्जनों लोगों की जान चली गई है। वैसे तो ऐसा हर साल मई और जून के महीनों में होता आया है, लेकिन अब जलवायु परिवर्तन से स्थिति साल दर साल और गम्भीर ही होती जा रही है, जो सार्वजनिक और सामूहिक चिंता की बात है। इस स्थिति से निबटने के लिए सरकार और सामाजिक संगठनों, दोनों को जागृत होना पड़ेगा, अन्यथा जिम्मेदारी और जवाबदेही दोनों तय किये जाने की मांग भी जोर पकड़ेगी, जो जायज होगी।


जानकारों के मुताबिक, देश के कुछेक शहर अब तपते टापू यानी हीट आइलैंड प्रतीत हो रहे हैं। सामान्य शब्दों में हीट आइलैंड का मानक 44 डिग्री और उससे ऊपर का तापमान है। चूंकि यह सामान्य से 4 डिग्री अधिक होता है। इसलिए हीट आइलैंड का शिकार हो रहे शहरों में लू का प्रकोप भी भयावह हो जाता है। इससे शहर की गतिविधियां लगभग ठप पड़ जाती हैं। अमूमन हर साल मई और जून के महीनों में इन शहरों में तापमान 45 से 49 डिग्री तक पहुंच चुका है, जिससे सामान्य जनजीवन प्रभावित हो उठता है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर अंधाधुंध विकास की आंधी में झुलस रहे इन शहरों की मौजूदा स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है और इससे बचने का सही रास्ता क्या है, जिसे सुझाने में सरकार भी लापरवाही बरत रही है!

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मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के साथ उपयुक्त और अनुपयुक्त भूमि के बिगड़ते संतुलन, शहरों में कंक्रीट के बढ़ते जंगल, वातानुकूलित (एयर कंडीशनर) इमारतें, वाहन और उद्योगों के उगलते धुओं के चलते व्याप्त गर्मी से जगह-जगह पर हीट आइलैंड बन रहे हैं। गांवों की अपेक्षा कंक्रीट वाले शहर इससे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं।


वहीं, जिन इलाकों में पेड़-पौधे कम होते हैं और कंक्रीट के भवन, घनी आबादी और एसी ज्यादा होते हैं, वहां पर हीटलैंड बन जाते हैं। वहां पर अन्य जगहों के मुकाबले 2 से 3 डिग्री अधिक तापमान देखने को मिलता है। 


इससे स्पष्ट है कि हीट आइलैंड बनने के वास्ते किसी भी शहर में जो स्थानीय कारण हैं, उनमें बढ़ते भवनों की संख्या, पौधों का कटना, एसी की संख्या बढ़ना, वाहन बढ़ना, घनी आबादियां आदि शामिल हैं। इनका सीधा असर जलवायु परिवर्तन पर पड़ता है, इसलिए इस नजरिए से भी चिंतन जरूरी है।


चिकित्सक बताते हैं कि हीट वेब का असर हीट आइलैंड पर ज्यादा होता है। इसके चलते हृदय रोगियों के साथ मस्तिष्काघात (ब्रेन स्ट्रोक) के मामले भी बढ़ रहे हैं। वहीं अनिंद्रा से तनाव-बेचैनी के साथ लोगों की दिनचर्या भी स्पष्ट तौर पर प्रभावित हुई है। इससे गम्भीर बीमारियां भी बढ़ रही हैं। किसी को त्वचा सम्बन्धी सर्वाधिक बीमारियां हो रही हैं तो कोई घमौरियों से परेशान महसूस कर रहा है। वहीं, काम की गति कम होने से शहर के विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। हीट वेब का वनस्पतियों और फसलों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, जिससे सब्जियों पर महंगाई के बादल मंडराने लगे हैं। वहीं, ऐसे शहरों में लोग बिजली व पानी के संकट के भी शिकार हो रहे हैं। दैनिक मजदूरों के लिए संकट तो आम बात है। वहीं, पशु-पक्षी तक इससे  प्रभावित हो रहे हैं। इसलिए इन सबके लिए एहतियाती उपाय करना राज्य प्रशासन की जिम्मेदारी है।


कुछ शोध रपट बताते हैं कि मकानों में लगाये जा रहे वातानुकूलन संयंत्र (एसी) अंदर तो ठंडक का एहसास करा रहे हैं, लेकिन इसकी कीमत वातावरण के बढ़ते तापमान से चुकाई जा रही है। वहीं, सेंसर आधारित शोध में कंकरीट की इमारतों का तापमान मिट्टी की दीवारों की तुलना में पांच से छह डिग्री तक ज्यादा पाया गया है। वहीं, एक अध्ययन बताते हैं कि हीट आइलैंड बन चुके शहरों में कम बारिश हो रही है, जिसके चलते मौसम की उग्रता बढ़ रही है। खास बात यह है कि प्राकृतिक तौर पर ठंडक बनाये रखने की प्रणाली (नेचुरल कूलिंग सिस्टम) की भी ऐसे शहरों में कमी  दिख रही है। इससे शहर के भीतर और बाहर के तापमान में बड़ा अंतर आया है। इसलिए सरकार को चाहिए कि ऐसे शहरों के लिए वह विशेष रिहायशी व औद्योगिक नीति बनाए, ताकि पर्यावरण और आधुनिकता में एक समन्वय स्थापित हो सके। जनजीवन की रक्षा के लिए ऐसा करने की नितांत आवश्यकता है।


विशेषज्ञों की मानें तो विभिन्न प्रदेशों में हीट आइलैंड चित्रित करने का कोई तंत्र नहीं है, लेकिन लू की स्थिति की लगातार निगरानी की जा रही है। जबकि बिहार-झारखंड, यूपी-उत्तराखंड, दिल्ली-हरियाणा-पंजाब, राजस्थान-मध्यप्रदेश के हीट आइलैंड बन चुके कतिपय शहरों में इन्हें चित्रित करने का तंत्र विकसित किया जाना चाहिए। क्योंकि हीट वेब का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव ऐसे लोगों पर पड़ा है जो सड़क के किनारे रोजगार चलाते हैं। 


एक अध्ययन के मुताबिक, दिल्ली में 49 फीसदी स्ट्रीट वेंडरों का कहना है कि लू के चलते उनकी आय में कमी हुई है। ग्रीन पीस और नेशनल हॉकर फाउंडेशन की अध्ययन बताती है कि 80 प्रतिशत स्ट्रीट वेंडरों ने ग्राहकों की संख्या में गिरावट को स्वीकार किया है, जिससे उनकी आय घटी। इसलिए इनके स्वास्थ्य जोखिम, आजीविका की चुनौतियां और अनुकूलन रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। 


वहीं, बाहरी श्रमिक जो धूप में काम करते हैं, उन्हें गंभीर स्वास्थ्य जोखिमों का अधिक सामना करना पड़ता है। इसलिए ग्रीन पीस इंडिया ने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) से आग्रह किया है कि वे लू को राष्ट्रीय आपदा घोषित करें, जिससे अनुकूलन, शमन और राहत के लिए उचित धन की व्यवस्था सुनिश्चित हो सके। शासन को चाहिए कि वह त्रिस्तरीय पंचायती राजव्यवस्था से जुड़े लोगों को लू, बाढ़ और शीतलहर से बचने-बचाने के लिए प्रशिक्षण दे और ऐसी एहतियाती व्यवस्था करे, ताकि किसी को मौसम की मार झेलनी ही न पड़े। आधुनिक विज्ञान और प्रशासन के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है।


- कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार

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