By रेनू तिवारी | Aug 07, 2023
एक ऐसा समय था जब भारत पूरी दुनिया में सबसे विकसित देश हुआ करता था। भारत की जमीन पर ऐसी-ऐसी फसलें उगती थीं जो यूरोप में सोने के भाव बेची जाती थी। भारतीय मसालों के लिए पूरा यूरोप पागल हुआ करता था। पूरी दुनिया में जितना व्यापार होता है उसका 33 प्रतिशत केवल भारत करता था लेकिन एक दिन यूरोपियन्स की काली नजरें भारत पर पड़ी और वह भारत को लूटकर चले गये। व्यापारिक प्रतिस्पर्धा को लेकर अपने ही महाद्वीप के देशों के जहाजों को समुद्र में दफना देने वाले और बंधुआ मजदूरी करवाने वाले विदेशी भारत को सभ्य बनाने के लिए यहां आये थे। उनका मानना था कि भारत के लोग असभ्य हैं। पूर्तगाली, डच, फ्रांस सहित कई देशों ने भारत पर आक्रमण किया और कब्जा करके व्यापार किया।सबसे आखिरी में सबसे लंबे समय तक ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत पर राज किया। ब्रिटिश सरकार से भारत में व्यापार की मोनोपॉली लेकर कंपनी ने हिंदूस्तान को खूब लूटा। ब्रिटिश सरकार समय समय पर भारतीय पर लगाम लगाने के लिए रेगुलेटिंग एक्ट लाती रही और ब्रिटेन भारत तो लूट-लूटकर फलता-फूलता रहा।
लेकिन कहते हैं न एक दिन पाप का घड़ा फूटता है। 1857 में भारत में एक ऐसी क्रांति हुई जिसने अंग्रेजों की नींव हिलाकर रख दी। भारत की कुछ आंतरिक कलह के कारण ये क्रांति सफल नहीं रही अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने में लेकिन विदेशियों को ये समझ आ गया कि भारत के लोग कमजोर नहीं हैं। इसके बाद भारत में ब्रिटिश क्राउन शासन की शुरुआत हो गयी और कुछ हद तक कंपनी द्वारा किए जा रहे भारतीयों पर अत्याचार कम हुए।
आजादी के 76 साल पूरे होने की खुशी में प्रभासाक्षी की खास सीरीज 'क्रांतिकारी' में आज हम बात करेंगे 1857 की लड़ाई के बारे में जिसने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। साथ ही ये भी जानेंगे की आखिर वो आग की तरह फैली क्रांति असफल कैसे हो गयी। हमें अपने इतिहास से क्या सिखना चाहिए।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के खिलाफ भारत का बड़ा विद्रोह
1857 का भारतीय विद्रोह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के खिलाफ 1857-58 में भारत में एक बड़ा विद्रोह था। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ब्रिटिश क्राउन की ओर से एक संप्रभु शक्ति के रूप में कार्य करता थी। विद्रोह 10 मई 1857 को दिल्ली से 40 मील (64 किमी) उत्तर-पूर्व में मेरठ के गैरीसन शहर में कंपनी की सेना के सिपाहियों के विद्रोह के रूप में शुरू हुआ। इसके बाद यह मुख्य रूप से ऊपरी गंगा के मैदान और मध्य भारत में अन्य विद्रोहों और नागरिक विद्रोहों में बदल गया। विद्रोह की घटनाएं उत्तर और पूर्व में भी हुईं। भारतीय के इस तेज विद्रोह से ब्रिटिश सत्ता के लिए एक सैन्य ख़तरा उत्पन्न हो गया। हालांकि 20 जून 1858 को ग्वालियर में विद्रोहियों की हार के साथ ही उस पर काबू पाया जा सका। 1 नवंबर 1858 को अंग्रेजों ने विद्रोह के दौरान अंग्रेजी सिपाहियों की हत्या में शामिल नहीं होने वाले सभी विद्रोहियों को माफी दे दी। ये वहीं अंग्रेज थे जो भारतीय को सिर उठाने पर भी उनका सिर धड़ से अलग कर देते थे। 1857 की क्रांति ने उन्हें ऐसे हिला दिया था कि वह अपने ही सैनिकों को मारने वालों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं कर सकते थे। हालांकि उन्होंने 8 जुलाई 1859 तक औपचारिक रूप से शत्रुता समाप्त होने की घोषणा नहीं की। आज 1857 की क्रांति को कई नामों से लोग जानते हैं। कुछ लोग इसे सिपाही विद्रोह कहते हैं तो कुछ प्रथम स्वतंत्रता संग्राम।
क्यों हुई थी 1857 क्रांति
भारतीय विद्रोह विभिन्न धारणाओं से उत्पन्न आक्रोश से प्रेरित था। जिसमें आक्रामक ब्रिटिश शैली के सामाजिक सुधार, कठोर भूमि कर, कुछ अमीर जमींदारों और राजकुमारों के साथ दुर्व्यवहार और साथ ही ब्रिटिश द्वारा किए गए सुधारों के बारे में संदेह शामिल था। अफवाहें ये भी उड़ी थी कि ब्रिटिश सेना में शामिल भारतीय सैनिक जिस कारतूस का प्रयोग करते हैं उसमें गाय की चरबी का प्रयोग किया जाता है। कई भारतीय अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए। हालाँकि कई लोगों ने ब्रिटिशों के लिए भी लड़ाई लड़ी और बहुमत ब्रिटिश शासन के प्रति आज्ञाकारी रहा। ब्रिटिशों ने बहुत ही चालाकी के साथ विद्रोह में फूंक डाल दी जिसके लिए उन्हें बहुत पापड़ बेलने पड़े। भारतीय राजाओं की आपसी दुश्मनी के कारण ब्रिटेन के लोग विद्रोह को खत्म करने में कामयाब रहे। 1857 की क्रांति में लड़ाई और ब्रिटिश जवाबी कार्रवाई में दिल्ली और लखनऊ शहर बर्बाद हो गए।
कैसे शुरू हुआ था विद्रोह
मेरठ में विद्रोह शुरू होने के बाद विद्रोही तेजी से दिल्ली पहुंचे। विद्रोहियों ने 81 वर्षीय मुगल शासक बहादुर शाह जफर को हिंदुस्तान का सम्राट घोषित किया गया। जल्द ही विद्रोहियों ने उत्तर-पश्चिमी प्रांतों और अवध (अवध) के बड़े भूभाग पर कब्ज़ा कर लिया। ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रतिक्रिया भी तेजी से आई। सुदृढीकरण की सहायता से जुलाई 1857 के मध्य तक कानपुर पर और सितंबर के अंत तक दिल्ली पर पुनः कब्ज़ा कर लिया गया। हालाँकि, झाँसी, लखनऊ और विशेष रूप से अवध के ग्रामीण इलाकों में विद्रोह को दबाने में 1857 का शेष भाग और 1858 का बेहतर हिस्सा लग गया। कंपनी-नियंत्रित भारत के अन्य क्षेत्र - बंगाल प्रांत, बॉम्बे प्रेसीडेंसी और मद्रास प्रेसीडेंसी - काफी हद तक शांत रहे। पंजाब में सिख राजकुमारों ने सैनिकों और समर्थन दोनों प्रदान करके अंग्रेजों की महत्वपूर्ण मदद की। बड़ी रियासतें, हैदराबाद, मैसूर, त्रावणकोर और कश्मीर, साथ ही राजपूताना की छोटी रियासतें, गवर्नर-जनरल लॉर्ड कैनिंग के नेतृत्व में, अंग्रेजों की सेवा करते हुए विद्रोह में शामिल नहीं हुईं।
1857 के विद्रोह की असफलता के कारण
इस विद्रोह की कोई एक सुनियोजित योजना नहीं थी। अतः यह दिशाहीन हो गया। सुव्यवस्थित संगठन था और पर्याप्त संसाधन नहीं थे। विद्रोहियों के पास अंग्रेजों की तुलना में कम गुणवत्ता वाले हथियार थे। भारतीय विद्रोहियों के पास तांत्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई जैसे कुछ ही बेहतर नेतृत्व मौजूद थे, लेकिन अंग्रेजों के पास निकोलस आउट्रम, हैवलॉक, हडसन जैसे एक से एक कुशल सैन्य नेतृत्व मौजूद थे। इसके अलावा, भारतीय पक्ष की तरफ विभिन्न गद्दार व्यक्ति भी मौजूद थे, जिन्होंने भारत के कुशल नेताओं की सूचना अंग्रेजों को दी थी। विद्रोहियों के पास कोई एक निश्चित राजनीतिक दृष्टि नहीं थी। निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर युद्ध कर रहे थे। देशी शासक विद्रोह को कुचलने में अंग्रेजों की मदद कर रहे थे।
कुछ क्षेत्रों में विशेष रूप से अवध में, विद्रोह ने ब्रिटिश उत्पीड़न के खिलाफ देशभक्तिपूर्ण विद्रोह का रूप धारण कर लिया। हालाँकि, विद्रोही नेताओं ने आस्था के ऐसे किसी लेख की घोषणा नहीं की जो एक नई राजनीतिक व्यवस्था की शुरुआत करता हो। फिर भी, विद्रोह भारतीय और ब्रिटिश साम्राज्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। इसके कारण ईस्ट इंडिया कंपनी का विघटन हुआ और ब्रिटिशों को भारत सरकार अधिनियम 1858 के माध्यम से भारत में सेना, वित्तीय प्रणाली और प्रशासन को पुनर्गठित करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसके बाद नए ब्रिटिश राज में भारत का प्रशासन सीधे ब्रिटिश सरकार द्वारा किया गया। 1 नवंबर 1858 को, रानी विक्टोरिया ने भारतीयों के लिए एक उद्घोषणा जारी की, जिसमें संवैधानिक प्रावधान के अधिकार का अभाव था।अन्य ब्रिटिश विषयों के समान अधिकारों का वादा किया।