तालिबान ने अफगानिस्तान पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया है। अफगानिस्तान में तालिबान सरकार बनने की खबर के बाद से ही दुनिया के लगभग सभी देशों ने अपनी प्रतिक्रिया दी है। अमेरिका और ब्रिटेन तालिबान के शासन वाले सरकार को मान्यता नहीं देने की बात कही हैं। वही, अफगानिस्तान के ताजा हालात को देखें तो वहां अफरा-तफरी का माहौल है। लोगों में डर है। नागरिक देश छोड़कर जाना चाहते हैं। इन सबके बीच हम आपको यह बताते हैं कि मुस्लिम देश तालिबान और अफगानिस्तान में से किसका समर्थन कर रहे हैं।
पाकिस्तान- पाकिस्तान अफगानिस्तान का पड़ोसी मुल्क है। अफगानिस्तान के ताजा हालात पर पाकिस्तान की लगातार पैनी नजर बनी हुई है। पाकिस्तान भले ही तालिबान के साथ अपने संपर्कों को न दिखा रहा हो लेकिन 1996 का तालिबान हो या 2021 का तालेबान, पाकिस्तान की सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई के साथ उसके संबंध मजबूत हुए है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान भी अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे पर कहा कि अब तालिबान बेड़ियो से आजाद हो गया है।
कतर- मुस्लिम दुनिया का छोटा देश कतर अफगानिस्तान विवाद में अहम भूमिका निभा रहा है। तालिबान के लगभग सारे सियासी दफ्तर कतर में ही स्थित है। अमेरिका और तालिबान के बीच वार्ता भी कतर में ही होती रही है। विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर कतर तालिबान का समर्थन करना बंद कर देता है तो उसका अंतरराष्ट्रीय प्रभाव कम हो सकता है।
सऊदी अरब- इस्लामी दुनिया का सबसे ताकतवर देश सऊदी अरब विचारधारा के मामले में वहाबी का समर्थक रहा है। लेकिन अफगानिस्तान के ताजा हालात पर उसने चुप्पी साध रखी है। सऊदी अरब तालिबान को लेकर खुलकर नहीं बोल रहा है। हालांकि अब तक वह पाकिस्तान के जरिए ही तालिबान से डील करता रहा है। 1980 के दशक में सऊदी अरब ने अफगान मुजाहिदीनों की खुलकर मदद की।
तुर्की- तुर्की खुलकर इस मामले में नहीं बोल रहा है। हालांकि उसके इरादे तालिबान के समर्थन नहीं करते हैं। अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिक के वापसी के बाद भी तुर्की ने काबुल एयरपोर्ट की सुरक्षा करने का इरादा जताया है।
ईरान- ईरान शिया बहुल देश है और कट्टर सुन्नी संगठन संगठन से उसका गतिरोध पुराना है। अफगानिस्तान के हालात ईरान के लिए चिंताजनक है। ईरान की सीमा अफगानिस्तान से सटी भी हुई है। अफगानिस्तान को इस बात का भी डर है कि अगर अराजकता फैलती है तब बड़ी संख्या में शरणार्थी ईरान पहुंच सकते हैं। हाल में ही ईरान ने तालिबान से काबुल में अपने राजनयिकों की सुरक्षा की गारंटी भी मांग की थी।