कर्ज़ की रजाई दान का कंबल

By पीयूष पांडे | Feb 10, 2020

दिल्ली की बदनाम सर्दी अब बेवफा भी हो चुकी है। मकर संक्रांति गुज़रने के बावजूद ठंड यहां उसी तरह रात में ताल ठोंककर खड़ी हो जाती है, जिस तरह चुनाव से पहले टिकट के इच्छुक दावेदार पार्टी मुख्यालय पर बोरिया बिस्तर लेकर जम जाते हैं। आलाकमान के समझाने के बावजूद उम्मीदवार आसानी से नहीं लौटते। उसी तरह दिन में सूर्य देव के नियमित दर्शन के बावजूद रात की ठंड नहीं जा रही। ऐसा लग रहा कि दिन और रात दो अलग ध्रुव हैं या कांग्रेस-बीजेपी सरीखी दो पार्टियां, जिनके बीच कोई सिरा नहीं जुड़ता।

 

ठंड के इस स्थायी प्रवास के बीच मेहमानों के अस्थायी प्रवास की खबर ने मेरी मुश्किलें बढ़ा दीं। मुझे ठंड जेब ठंडी करने के मूड में दिखी। इसकी पुष्टि रजाई की दुकान पर पहुंचकर हो गई। श्रीमती जी ने अपने दूर के रईस रिश्तेदारों के लिए दो अच्छी रजाइयों की डिमांड की थी। मैंने रजाईवाले से अच्छी रजाई दिखाने को कहा। रजाई वाले ने पूछा-बजट ? मैंने कहा-दिखाओ तो यार। वो बोला- “आपकी अच्छी की परिभाषा क्या है, बताइए। अच्छी रजाई 32,000 रुपए की है। बेहद हल्की और बहुत गर्म। इतनी गर्म की दो घंटे में आलू उबल जाएं।'' मैं रजाई के दाम सुनकर बेहोश होते होते बचा। खुद को संभाला और कहा- "इतनी महंगी नहीं चाहिए भाई।" उसने कहा-"अच्छी चीज़ महंगी ही मिलती है। वैसे, ईएमआई की सुविधा है। आप पैन कार्ड दिखाइए और एक मिनट में लोन एप्रूव करा देता हूं। या आप क्रेडिट कार्ड से ले लीजिए। रजाई कभी फटेगी नहीं-इसकी गारंटी है।"

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मैंने कहा- "कर्ज पर रजाई ? रजाई वास्तव में बहुत महंगी हो गई है। और रजाई है तो फटेगी ही।" वो बोला- "महंगी रजाई तो 1991 में बिकी थी, जब सिविल वॉर के जमाने की एक रजाई की नीलामी करीब दो करोड़ रुपए की हुई थी। यूनिवर्सिटी ऑफ नेब्रास्का के अंतराष्ट्रीय रजाई अध्ययन केंद्र में आज भी रखी है। आप चाहें तो देख आएं। आपकी रजाई की कीमत आज भले जो हो, 100 साल बाद बहुत हो सकती है।''

मैं दुकानदार के सामान्य ज्ञान से प्रभावित था। हिन्दुस्तान में लोग अलग अलग पेशेवरों की अलग अलग छवि निर्मित कर लेते हैं और जब छवि टूटती है तो झटका लगता है। मसलन-रिक्शेवाला अचानक धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने लगे तो कौतुहल का विषय हो जाता है। किसी मलाईदार विभाग का कोई क्लर्क ईमानदारी से आपका काम करा दे तो आश्चर्य होता है। मैं भी रजाई वाले के सामान्य ज्ञान से अभिभूत था। मुझे अचानक उसके चेहरे पर वो तेज नजर आया, जो दो मिनट पहले तक नदारद था। मुझे एक पल को लगने लगा कि वो मार्क्स की थ्योरी से लेकर नागरिकता संशोधन कानून तक सब विषयों का जानकार है।

मैंने उससे सीधे कहा- "भाई, इतनी महंगी रजाई खरीदने वाला पैसे नहीं हैं। अच्छी जुगाड़ बताओ।"

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वो बोला- "मामला ठंड का ही है तो ये देखिए दान के कंबल। इन्हें ले जाइए। दो रजाइयों की जगह चार कंबल ले जाइए। आपका काम भी हो जाएगा और आपके बजट में भी आ जाएंगे।"

 

मैं शालीन शब्दों में मुंह पर बेइज्जती करने के उसके गुण से भी अब अभिभूत था।

 

पीयूष पांडे

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