कानपुर में आतंक एवं अपराध का पर्याय बन गए एक कुख्यात अपराधी को गिरफ्तार करने की कोशिश में अपने आठ साथियों को खोने के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस ने जैसी कठोर कार्रवाई एवं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश को अपराध मुक्त राज्य बनाने के लिये जिस दृढ़ता एवं संकल्प के साथ अपना मिशन शुरू किया है, उसकी टंकार सुनाई भी देनी चाहिए और दिखाई भी देनी चाहिए। ताकि भविष्य में कोई भी गुंडा-बदमाश-अपराधी उस तरह का दुस्साहस न दिखा सके जैसा विकास दुबे नाम के माफिया सरगना ने दिखाया और पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। इस घटना ने अपराध-मुक्ति की ओर बढ़ते राज्य के संकल्प पर अनेक प्रश्नचिन्ह लगाये हैं। विचारणयी प्रश्न है कि आखिर अपराध एवं अपराधी सरगना से लड़ने के लिये ईमानदार प्रयत्नों में कहां चूक हुई? अपराध-मुक्त संरचना की मंजिल तक पहुंचने के लिये संकल्पपूर्वक कितने कदम उठाए? आखिर अपराध एवं हिंसक वारदातों का अंत कब और कहां होगा?
एक बड़ा सच है कि विकास दुबे जैसे अपराधी समूची व्यवस्था की उपज होते हैं जिसमें शासन-प्रशासन और राजनीति के साथ समाज भी शामिल है। विकास दुबे के बारे में ऐसे तथ्य सामने आने पर हैरानी नहीं कि उसे राजनीतिक संरक्षण मिला और उसके खिलाफ कानून अपना काम सही एवं सटीक तरीके से नहीं कर सका बल्कि यह कानून के शासन और समाज पर एक बड़ा सवाल है कि आखिर जो अपराधी थाने में घुसकर हत्या कर चुका हो वह चुनाव लड़ने और जीतने में समर्थ कैसे रहा? यह भी आम जनता की सोच एवं व्यवस्था की खामी का बेहद शर्मनाक प्रमाण है कि वह जेल में रहते हुए भी अपने गिरोह को चलाने और आपराधिक गतिविधियां अंजाम देने में सक्षम रहा। अपने आतंक के सहारे सक्रिय यह माफिया सरगना किस आसानी से व्यवस्था में छिद्र करने में सफल था, इसका पता इससे चलता है कि उसके लिए काम करने वालों में कई पुलिसकर्मियों के भी नाम सामने आ रहे हैं। इससे पुलिस की छवि एक बार फिर धुंधलाई है। न केवल पुलिस बल्कि राजनीति एवं प्रशासन में भी उसके प्रभावी संबंध अपराध की संरचनाएं करने में सहयोगी बने हैं। इस तरह हमारी राजनीति, प्रशासन एवं सुरक्षा एजेन्सियों की चारित्रिक दुर्बलताएं अनर्थकारी बनती रही हैं। यह आज के समय की विडम्बना ही है कि आज जिनके पास खोने के लिए कुछ नहीं वे अधिक ताकतवर (तथाकथित) हैं। जिनके पास खोने के लिए बहुत कुछ है, (मान, प्रतिष्ठा, छवि, सिद्धांत, पद, सम्पत्ति, सज्जनता) वे लगातार कमजोर होते जा रहे हैं। तथाकथित अपराधी लोग राजनीति में हैं, सत्ता में हैं, सम्प्रदायों में हैं, पत्रकारिता में हैं, लोकसभा में हैं, विधानसभाओं में है, शासन-प्रशासन एवं सुरक्षा एजेन्सियों में हैं, समाज की गलियों और मौहल्लों में तो भरे पड़े हैं। आये दिन ऐसे लोग अराजकता, हिंसा एवं आतंक फैलाते हैं, विषवमन करते हैं, प्रहार करते रहते हैं, चरित्र-हनन् करते रहते हैं, डराते हैं, सद्भावना और शांति को भंग करते रहते हैं। उन्हें राष्ट्रीय एकता, भाईचारे और शांतिपूर्ण समाज-व्यवस्था से कोई वास्ता नहीं होता। जो अपने कुकृत्यों से घायल करते हैं, घाव देते हैं, अराजकता फैलाते हैं। किसी भी टूट, गिरावट, दंगों व युद्धों तक की शुरूआत ऐसी ही बातों से होती है।
आज हर हाथ में पत्थर है। समाज में नायक कम खलनायक ज्यादा हैं। प्रसिद्ध शायर नज्मी ने कहा है कि अपनी खिड़कियों के कांच न बदलो नज्मी, अभी लोगों ने अपने हाथ से पत्थर नहीं फेंके हैं। डर पत्थर से नहीं डर उस हाथ से है, जिसने पत्थर पकड़ रखा है। बंदूक अगर किसी योगी एवं मोदी के हाथ में है तो डर नहीं। वही बंदूक अगर विकास दुबे के हाथ में है तो डर है। समाज एवं राष्ट्र विकास दुबे जैसे अपराधियों से ही डरा हुआ नहीं है बल्कि डर तो उन जैसे अपराधियों का समर्थन करने वालों से भी लग रहा है। हम देख रहे हैं कि सोशल मीडिया पर अपराधी विकास दुबे को हीरो बनाने की मुहिम किस तेजी से शुरू है। विकास दुबे के समर्थन में सोशल मीडिया पर पोस्ट डाले जा रहे हैं। कुछ लोगों ने अशोभनीय और आपत्तिजनक पोस्ट किए हैं। विकास दुबे को मुखबिरी के संदेह में एक पुलिसकर्मी को निलम्बित किया गया है। न जाने पुलिस विभाग में कितने ऐसे मुखबिर होंगे जिनके तार अपराधियों से जुड़े होंगे। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को पुलिस तंत्र में व्याप्त इस तरह की अराजकता एवं भ्रष्टाचार के खिलाफ अधिक कठोर होते हुए पुलिस के भीतर बैठी काली भेड़ों को निकाल बाहर करना होगा। राजनीतिक दलों में पैठ रखने वाले अपराधियों पर काबू पाना बड़ी चुनौती है, जिसकी वजह से स्थानीय अपराधी लगातार अपराधों को अंजाम देते रहते हैं। राजनीति की इन दूषित हवाओं ने भारत की चेतना को प्रदूषित किया है। बात केवल उत्तर प्रदेश की नहीं है, बल्कि देश के किसी भी हिस्से में कहीं कुछ राष्ट्रीय एकता, अखण्डता एवं मूल्यों के विरुद्ध होता है तो हमें यह सोचकर निरपेक्ष नहीं रहना चाहिए कि हमें क्या? गलत देखकर चुप रह जाना भी अपराध है। इसलिये बुराइयों से पलायन नहीं, परिष्कार करना सीखें। ऐसा कहकर हम अपने दायित्व एवं कर्तव्य को विराम न दें कि राजनीति, सत्ता एवं व्यवस्था में तो यूं ही चलता है। चिंगारी को छोटी समझकर दावानल की संभावना को नकार देने वाली व्यवस्थाएं कभी अनहोनी को नहीं टाल सकतीं, सुरक्षा का आश्वासन नहीं बन सकतीं।
अब देश में अपराध एवं आपराधिक राजनीति को समाप्त करने की सकारात्मक स्थितियां बन रही हैं, तब इस घटना पर हो रही राजनीति को भी गंभीरता से लेना चाहिए। क्योंकि आज भी राजनीति ऐसी ही आपराधिक गतिविधियों में ऊर्जा पाती है, हमारे बीच करोड़ों ऐसे दिमाग और करोड़ों ऐसे हाथ हैं जो इन अपराधियों का संरक्षण करते हैं। ऐसे ही राजनीतिक दल एक-दूसरे को निशाना बना रहे हैं, गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि विकास दुबे कोई रातोंरात उभरा माफिया है, जो किसी पर्दे में छिपा हुआ था। पिछले कई वर्षों से अपने अपराधों और लगभग हर राजनीतिक दल में अपनी पहुंच के बूते पर उसने अपने आपराधिक साम्राज्य को कायम किया था। हैरानी की बात तो यह है कि एक अपराधी इतने मामलों में संलिप्त होने के बावजूद जेल की जगह बाहर कैसे घूम रहा था? इससे साफ है कि उसे न केवल राजनीतिक बल्कि पुलिस के भीतर से ही संरक्षण मिला हुआ था। यह पूरा मामला राजनीति के अपराधीकरण का है। राजनीति से जुड़े अपराधियों को अफसरों का संरक्षण प्राप्त होता है। हमारे देश में एक धारणा बड़ी प्रबल है कि कानून केवल कमजोर लोगों के लिए है, बड़े लोगों के लिए कानून अलग होता है। इस दुर्दांत अपराधी और उसे सहयोग-संरक्षण देने वालों को किसी कीमत पर बख्शा नहीं जाना चाहिए, लेकिन इसी के साथ जरूरी सबक भी सीखे जाने चाहिए। सबसे बड़ा सबक तो पुलिस को ही सीखना होगा। आखिर यह कैसे हो गया कि एक कुख्यात अपराधी के घर दबिश देने गई पुलिस ने जरूरी सावधानी का परिचय नहीं दिया? जरूरी साधन-सुविधा एवं सर्तकता के बिना इतनी बड़ी कार्रवाई की गयी। एक बड़ा सवाल यह भी है कि वह आधुनिक हथियारों से लैस क्यों नहीं थी? पुलिस हमारा सुरक्षा बल ही नहीं, देश की संपदा है। उसका इस तरह एक अपराधी से परास्त हो जाना पूरे देश के विश्वास एवं सुरक्षा को धुंधलाता है।
योगी आदित्यनाथ के सामने एक बड़ी चुनौती है, भले ही उन्होंने तीन साल के शासन में उत्तर प्रदेश को अपराधमुक्त राज्य बनाने की दृष्टि से अनेक सफल एवं सार्थक उपक्रम किये हैं, उन्होंने अब तक 113 से ज्यादा गुंडों को मुठभेड़ में मारा गया लेकिन एक बड़ा प्रश्न है कि इस सूची में विकास दुबे कैसे बचा रहा?
-ललित गर्ग
(लेखक, पत्रकार, स्तंभकार)