शिबू सोरेन से लेकर सीता सोरेन तक, वोट के बदले नोट का मामला क्या है जिसमें 7 जजों की बेंच ने पलटा 1998 के नरसिम्हा राव केस का फैसला

By अभिनय आकाश | Mar 05, 2024

साल 2008 की बात है परमाणु समझौते के विरोध में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए सरकार से लेफ्ट की पार्टियों ने अपना समर्थन वापस लेने का ऐलान किया। मनमोहन सरकार को अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा। मनमोहन सरकार ने विश्वास मत तो जीत लिया, लेकिन इसी दिन भारतीय संसद एक शर्मशार कर देने वाली घटना की गवाह बनी। विश्नास मत पर आरोप-प्रत्यारोप के दौर में अचानक बीजेपी के तीन सांसद अशोक अर्गल, फग्गन सिंह कुलस्ते और महावीर भगोरा नोटों की गड्डियां लेकर स्पीकर की सीट के सामने पहुंच गए। उन्होंने आरोप लगाया कि ये रकम उन्हें विश्वास मत के पक्ष में मतदान करने के लिए दी गई थी। इस घटना ने पूरे देश को हैरान कर दिया था। लोकतंत्र की मंदिर शर्मशार हुई थी। इसके डेढ़ दशक बाद भी भारत की राजनीतिक इतिहास में जब-जब सूचिता का जिक्र होगा। संसदीय सुधारों का जब-जब जिक्र होगा तब-तब ये तस्वीर ताजा होगी। फिर ये तस्वीर ताजा हो रही है। सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा फैसला जिसे पार्लियामेंट्री रिफॉर्म की दिशा में एक बड़ा कदम बताया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने 4 मार्च को एक फैसला सुनाया कि कोई सांसद या विधायक अगर रिश्वत लेकर सदन में सवाल पूछता है या भाषण देता है या वोटिंग करता है तो उस केस में उन्हें कोई इम्युनिटी या विशेषाधिकार नहीं मिलेगा। जन प्रतिनिधियों के पास ये विशेषाधिकार रहता है कि अगर वो सदन में कोई बात कहते हैं और अपना मत रखते हैं तो इस पर किसी अदालत में कोई कार्रवाई नहीं हो सकती है। जो भी कार्रवाई होगी वो सदन में होगी और सदन के नियमों से होगी। संविधान का अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 194 सांसदों और विधायकों को एक छूट देता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अब ऐसा फैसला दिया है कि चाहे वो सांसद, विधायक हो वो सवाल पूछने के लिए या वोट करने के लिए रिश्वत लेता है तो उसे अपराध माना जाएगा। इसके साथ ही उस पर एंटी करप्शन लॉ के तहत केस भी दर्ज किया जाएगा। 

इसे भी पढ़ें: SBI ने SC से मांगी 30 जून की मोहलत, कांग्रेस ने इसे लोकसभा चुनाव से जोड़ा, Electoral Bonds का क्या है पूरा मामला?

सुप्रीम कोर्ट में 7 जजों की बेंच ने क्या कहा

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि सांसद और विधायकों की रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी को नष्ट करते हैं। भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी संविधान की आकांक्षाओं और आदर्शों के लिए विनाशकारी हैं। कोर्ट ने कहा कि चुने हुए प्रतिनिधियों के लिए यह आजादी जरूरी है कि वे सदन में तमाम मुद्दों पर खुलकर बोलें। बोलने की आजादी जैसे कई अधिकार सदन के सदस्यों को हासिल है, ये समझा जा सकता है लेकिन पब्लिक प्रॉपर्टी को नुकसान पहुंचाना या हिंसा करने जैसे कामों पर उन्हें इम्यूनिटी हासिल नहीं हो सकती। बेंच ने कहा कि ससद के सदस्यों का भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी, भारतीय संसदीय लोकतंत्र के आधार को खोखला करता है। यह संविधान की आकांक्षाओं सोच और आदशों के लिए विघटनकारी है और नागरिकों को एक जिम्मेदार, प्रतिक्रियात्मक और रिप्रजेंटेटिव डेमेक्रेसी से वंचित करता है।

इसे भी पढ़ें: Supreme Court में जमानत याचिकाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है: न्यायमूर्ति गवई

आरोपियों में कौन थे?

राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के रवींद्र कुमार ने 1 फरवरी, 1996 को केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) में एक शिकायत दर्ज की, जिसमें आरोप लगाया गया कि जुलाई 1993 में राव और उनके कांग्रेस सहयोगियों सतीश शर्मा, अजीत सिंह द्वारा एक आपराधिक साजिश रची गई थी। भजन लाल, वीसी शुक्ला, 3 करोड़ और उक्त आपराधिक साजिश को आगे बढ़ाने के लिए उपरोक्त व्यक्तियों द्वारा 1.10 करोड़ रुपये की राशि झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के सांसद सूरज मंडल को सौंपी गई थी। सीबीआई ने झामुमो सांसद मंडल, शिबू सोरेन, साइमन मरांडी और शैलेन्द्र महतो के खिलाफ मामला दर्ज किया। उस समय संसद में पार्टी के छह सांसद थे। 

जांच के बाद बड़ी टिप्पणी

सीबीआई ने इस मामले में जेएमएम के सांसदों पर केस दर्ज किया। इसमें शिबू सोरेन, साइमन मरांडी और शैलेंद्र महतो के नाम थे। सीबीआई की जांच के बाद इस पर बड़ी टिप्पणी की गई थी और कहा गया था कि जेएमएम के नेताओं के वोट के चलते ही सरकार बच पाई थी। जेएमएम के नेताओं ने जो किया, उसकी गंभीरता से हम परिचित हैं। लेकिन इसके बाद भी वो इम्युनिटी के हकदार हैं, जो संविधान उन्हें देता है। इसके बाद से ऐसे कई मामले आए, जिसमें यूपीए के वक्त का नोट फॉर वोट वाला केस। बीते साल टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा पर भी कैश फॉर क्वेरी के आरोप लगे थे। जिसमें उन पर एक्शन हुआ और उनकी संसद सदस्या चली गई। 

इसे भी पढ़ें: Yes Milord: MPs- MLAs के शरीर में क्या चिप लगाएं जाएंगे? HC ने क्यों दी दिल्ली MCD को भंग करने की धमकी, कोर्ट में इस हफ्ते क्या हुआ

हेमंत सोरेन की भाभी की याचिका ने रखी फैसले की नींव

सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया है उसकी नींव 2012 की एक घटना ने रखी। मामले में हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेन ने अर्जी दाखिल की थी। सीता सोरेन पर आरोप था कि उन्होंने 2012 में राज्यसभा चुनाव में एक विशेष उम्मीदवार के लिए वोट के लिए रिश्वत ली थी। उन्होंने दावा किया कि संविधानिक प्रावधान, जो सांसदों को इम्युनिटी प्रदान करता है सीता सोरेन उन पर भी लागू होता है। उन्होंने 1998 के जजमेंट का हवाला दिया और कहा कि उनके ससुर शिबू सोरेन जेएमएम रिश्वत घोटाले में आरोपमुक्त हुए थे। यह फैसला उन पर भी लागू किया जाना चाहिए। तब तीन जजों की बेंच ने कहा था कि वह 1998 के फैसले को दोबारा देखेगी। सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने 2019 में इस मामले को पांच जजों को रेफर किया था और कहा था कि मामला सार्वजनिक महत्ता और व्यापक प्रभाव का है। इसके बाद मामले को सात जजों की वेच को रेफर किया गया था। 

क्या था पीवी नरसिम्हा राव केस में फैसला?

सुप्रीम कोर्ट ने 1998 में दिए अपने फैसले में कहा था कि एमपी और एमएलए को सदन में बैठने और बयान के बदले कैश के मामले में मुकदमा चलाने से छूट है। दरअसल, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और के पूर्व केंद्रीय मंत्री शिबू सोरेन और चार अन्य पार्टी के सांसदों ने 1993 में पीवी नरसिंह राव सरकार के बचाव में वोट किया था और उन पर वोट के लिए रिश्वत लेने का आरोप था। 1991 का लोकसभा चुनाव पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की छाया में हुआ था। 1989 में बोफोर्स घोटाले के कारण सत्ता गंवाने के बाद कांग्रेस 1991 के चुनाव में हार गई। यह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, उसने जिन 487 सीटों पर चुनाव लड़ा उनमें से 232 सीटें जीतकर, बहुमत के 272 के आंकड़े से काफी पीछे रह गई। पी वी नरसिम्हा राव तब अल्पमत सरकार का नेतृत्व करते हुए प्रधानमंत्री बनने के लिए पार्टी की आश्चर्यजनक पसंद बन गए। राव के कार्यकाल में चुनौतियाँ चिह्नित थीं, सबसे बड़ा आर्थिक संकट था जिसने देश की व्यापक आर्थिक स्थिरता को खतरे में डाल दिया। राव के कार्यकाल में 1991 में आर्थिक उदारीकरण के कदम उठाए गए। लेकिन रामजन्मभूमि आंदोलन के कारण देश राजनीतिक मोर्चे पर भी तेजी से बदल रहा था, जिसके कारण 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ। ये दो महत्वपूर्ण मुद्दे आगे चलकर राव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का आधार बने। सीपीआई (एम) के अजॉय मुखोपाध्याय ने 26 जुलाई 1993 को मानसून सत्र के दौरान प्रस्ताव पेश किया। तब लोकसभा में 528 सदस्य थे, जबकि कांग्रेस की संख्या 251 थी। इसका मतलब था कि पार्टी के पास साधारण बहुमत के लिए 13 सदस्य कम थे। तीन दिन तक बहस चलती रही। 28 जुलाई को अविश्वास प्रस्ताव 14 वोटों से गिर गया, जिसमें पक्ष में 251 और विपक्ष में 265 वोट पड़े। 

प्रमुख खबरें

IPL 2025: इन खिलाड़ियों को नहीं मिला कोई खरीददार, मेगा ऑक्शन में रहे अनसोल्ड

जिम्बाब्वे ने बड़ा उलटफेर कर पाकिस्तान को दी शिकस्त, 80 रन से जीता पहला वनडे

IPL 2025: सस्ते में निपटे ग्लेन मैक्सवेल, पंजाब किंग्स ने महज 4.2 करोड़ में खरीदा

IPL 2025 Auction: सनराइजर्स हैदराबाद ने ईशान किशन पर लगाया बड़ा दांव, 11.25 करोड़ में खरीदा