संतान की दीर्घायु के लिए महिलाएं करती है जीवित्पुत्रिका व्रत का व्रत

By प्रज्ञा पाण्डेय | Sep 23, 2019

आश्विन मास के कृष्णपक्ष की प्रदोषकाल-व्यापिनी अष्टमी के दिन जीवित्पुत्रिका का व्रत किया जाता है। यह व्रत महिलाएं अपनी संतान की दीर्घायु की कामना हेतु करती हैं। जीवित्पुत्रिका बिहार, मध्यप्रदेश और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में मनाया जाता है। तो आइए हम आपको जीवित्पुत्रिका व्रत की महिमा के बारे में बताते हैं।

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जीवित्पुत्रिका की पूजाविधि

जीवित्पुत्रिका एक दिन का व्रत नहीं है बल्कि इस पर्व को तीन दिन तक मनाया जाता है।

 

प्रथम दिन: जीवित्पुत्रिका व्रत के दिन महिलाएं स्वच्छता से स्नान कर पूजा करती हैं। रात के समय स्त्रियां शतपुतिया की सब्जी या नूनी का साग खाती है। 

दूसरा दिन: व्रत के दूसरे दिन को खर जितिया कहा जाता है। यह खुर जितिया अष्‍टमी के दिन होता है। इस दिन स्त्रियां निर्जला व्रत रहती हैं। इस व्रत में व्रती स्त्रियां रात में भी पानी नहीं पीती हैं।

तीसरा दिन: तीसरे दिन पारण होता है। इस दिन व्रत के पारण के बाद भोजन ग्रहण किया जाता है और गले लाल धागे के साथ माताएं जिउतिया पहनती हैं।

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जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा

इस व्रत को माएं बहुत श्रद्धा से करती हैं। जीवित्पुत्रिका से जीमूतवाहन की कथा जुडी हुई है। कथा के अनुसार गन्धर्वों के राजकुमार जीमूतवाहन थे। वे बड़े परोपकारी थे। वृद्धावस्था में जीमूतवाहन के पिता वानप्रस्थ आश्रम जाते समय उन्हें राज-पाट देकर गए। लेकिन सरल जीमूतवाहन का राजा बनकर मन नहीं लगा। वे अपने साम्राज्य को अपने भाइयों पर छोड़कर पिता की सेवा करने के लिए जंगल चले गए। जंगल में उनकी शादी मलयवती नाम की राजकन्या से हो गयी।

 

एक दिन जंगल में कहीं जाते समय जीमूतवाहन को एक वृद्धा रोती हुई दिखाई दीं। उनके पूछने पर बुजुर्ग ने रोते हुए कहा कि मैं नागवंश की स्त्री हूं और मेरा एक ही बेटा है। पक्षियों के राजा गरुड़ के सामने नागों ने उन्हें रोज खाने के लिए नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की है। इस बलि के क्रम में आज मेरे बेटे शंखचूड़ की बलि दी जाएगी।

 

जीमूतवाहन ने बुजुर्ग से कहा डरिए मत मैं आपके बेटे की रक्षा करूंगा। आज उसकी जगह पर मैं खुद जाऊंगा और अपने आपको उसके लाल कपड़े में ढककर वध्य-शिला पर लेट जाऊंगा। इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड़ के से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड़ को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गया। उसके बाद गरुड़ तेजी से आए और वे लाल कपड़े में ढके जीमूतवाहन को पंजे में दबाकर पहाड़ की ऊंचाई पर जाकर बैठ गए।

 

अपनी चोंच में दबे जीव को रोते देखकर गरुड़जी बड़े हैरान हो गए। उन्होंने जीमूतवाहन से पूछा कि वह कौन है। जीमूतवाहन ने सारी बात सुनायी। गरुड़जी उसकी बहादुरी और हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। जीमूतवाहन पर प्रसन्न होकर गरुड़जी ने उनको जीवनदान दे दिया और नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया। इस तरह जीमूतवाहन के साहस से नागों की रक्षा हुई। उसी समय से बेटे की रक्षा के लिए जीमूतवाहन की पूजा प्रारम्भ की गयी।

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आश्विन मास के कृष्ण अष्टमी के प्रदोषकाल में पुत्रवती स्त्रियां जीमूतवाहन की पूजा करती हैं। कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर माता पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखकर जो स्त्रियां शाम को प्रदोषकाल में जीमूतवाहन की पूजा करती हैं और कथा सुनने के बाद पुजारी को दक्षिणा देती है, वह पुत्र-पौत्रों का सुख पाती हैं। व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि के खत्म होने के बाद किया जाता है। यह व्रत बहुत फलदायी है होता है और स्त्रियां बहुत श्रद्धा से इस व्रत को करती हैं।


जीवित्पुत्रिका व्रत का पारण भी है खास 

जीवित्पुत्रिका के दूसरे दिन पारण होता है। पारण की भी खास तैयारी होती है। पारण के दिन ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान दिया जाता है। साथ ही इस दिन व्रती महिलाएं लाल रंग के धागे में सोने की जिउतिया पहनती हैं और तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं।

 

प्रज्ञा पाण्डेय

 

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