आज के दौर में भी जरूरी हैं जेपी और लोहिया, पर शिष्यों ने ही भुला दिया

By अनिल जैन | Oct 11, 2018

जयप्रकाश नारायण (जेपी) और डॉ. राममनोहर लोहिया। 1942 के भारत छोडो आंदोलन के दो अप्रतिम नायक और आजादी के बाद भारतीय समाजवादी आंदोलन के महानायक। लोहिया ने अपने विशिष्ट चिंतन से समाजवादी आंदोलन के भारतीय स्वरूप को गढ़ा और हर किस्म के सामाजिक−राजनीतिक अन्याय के खिलाफ अलख जगाया, तो राजनीति से मोहभंग के शिकार होकर सर्वोदयी हो चुके जेपी ने वक्त की पुकार सुनकर राजनीति में वापसी करते हुए भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ देशव्यापी संघर्ष को नेतृत्व प्रदान कर लोकतंत्र को बहाल कराया। आज देश के हालात जेपी और लोहिया के समय से भी ज्यादा विकट और चुनौतीपूर्ण हैं लेकिन हमारे बीच न तो जेपी और लोहिया हैं और न ही उनके जैसा कोई प्रेरक व्यक्तित्व। हां, दोनों के नामलेवा या उनकी विरासत पर दावा करने वाले दर्जनभर राजनीतिक दल जरूर हैं, लेकिन उनमें से किसी एक का भी जेपी और लोहिया के कर्म या विचार से कोई सरोकार नहीं है। 11 अक्टूबर को जेपी का जन्मदिन होता है और 12 अक्टूबर को लोहिया का निर्वाण दिवस। सवाल है कि आज के वक्त में जेपी और लोहिया को क्यों याद करें और कैसे करें?

 

आज के दौर में जेपी और लोहिया के महत्व को समझते हुए उन्हें याद करने के लिए हमें थोड़ा फ्लैशबैक में जाना होगा! आजादी के बाद पहले आमचुनाव में कांग्रेस के मुकाबले समाजवादी खेमे को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा था। दूसरे नंबर पर कम्युनिस्ट रहे थे। समाजवादियों का नेतृत्व कर रहे जयप्रकाश को चुनाव नतीजों ने बेहद निराश किया और कुछ समय बाद वे सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर विनोबा के साथ सर्वोदय और भूदान आंदोलन से जुड गए। इसके बाद 1957 और 1962 के आम चुनाव में भी कांग्रेस का दबदबा बरकरार रहा। राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर कांग्रेस को अजेय माना जाने लगा, लेकिन 1967 आते−आते स्थितयिां बदल गईं। कांग्रेस को लोकसभा में बहुत साधारण बहुमत हासिल हुआ और विधानसभा के चुनावों में उसे कई राज्यों में करारी हार का सामना करना पड़ा। जनादेश के जरिये कांग्रेस इन राज्यों में सत्ता से बेदखल जरूर हो गई लेकिन कोई अन्य पार्टी भी सरकार बनाने लायक जीत हासिल नहीं कर सकी। ऐसे में तात्कालिक रणनीति के तौर पर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया। इस नारे ने खूब रंग दिखाया। कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट, जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी आदि ने अपनी−अपनी विचारधारा से ज्यादा व्यावहारिकता को अहमियत दी। परिणामस्वरुप नौ राज्यों में संयुक्त विधायक दलों की सरकारें बनीं। कांग्रेस के अजेय होने का मिथक टूट गया।

 

इसी दौरान लोहिया की असामयिक मौत से समाजवादी आंदोलन के साथ ही गैर कांग्रेसवाद की रणनीति को भी गहरा झटका लगा। अगला लोकसभा चुनाव आते−आते विपक्षी एकता छिन्न−भिन्न हो गई। इंदिरा गांधी कुछ समाजवादी कार्यक्रमों के जरिये अपनी 'गरीब नवाज' की छवि बनाने में कामयाब रहीं और निर्धारित समय से एक साल पहले यानी 1971 में हुआ आम चुनाव उन्होंने भारी−भरकम बहुमत से जीता। इस जीत ने उन्हें थोड़े ही समय में निरंकुश बना दिया। वे चापलूसों से घिर गईं। लोकतांत्रिक संस्थाओं को प्रयासपूर्वक अप्रासंगिक और निष्प्रभावी बनाया जाने लगा। असहमति और विरोध की आवाज को निर्ममतापूर्वक दमन शुरू हो गया। ऐसे ही माहौल ने जयप्रकाश नारायण को एक बार फिर सक्रिय राजनीति में लौटने और अहम भूमिका निभाने के लिए बाध्य किया। उनकी अगुवाई में बिहार से ऐतिहासिक छात्र आंदोलन की शुरूआत हुई, जिसने देखते ही देखते राष्ट्रव्यापी शक्ल ले ली। इस आंदोलन को दबाने के लिए इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू कर दिया। 1975 से 1977 के बीच 19 महीने का वह आपातकालीन दौर आजाद भारत का सर्वाधिक भयावह दौर था। लेकिन यह दौर भी खत्म हुआ। चुनाव का मौका आया तो जेपी के आह्वान पर सभी गैर वामपंथी विपक्षी दलों की एकता और भारतीय जन की लोकतांत्रिक चेतना से तानाशाही हुकूमत पराजित हुई। पहली बार केंद्र की सत्ता से कांग्रेस को बेदखल होना पडा। इस प्रकार जो काम लोहिया से अधूरा छूट गया था, उसे जयप्रकाश ने पूरा किया।

 

आपातकाल को जनता के मौलिक अधिकारों और अखबारों की आजादी के अपहरण, विपक्षी दलों के क्रूरतापूर्वक दमन के साथ ही संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका समेत तमाम संवैधानिक संस्थाओं के मानमर्दन के लिए ही नहीं, बल्कि घनघोर व्यक्ति−पूजा और चापलूसी के लिए भी याद किया जाता है। लेकिन आपातकाल को याद रखना ही काफी नहीं है। इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि इस बात के प्रति सतर्क रहा जाए कि कोई भी हुकूमत आपातकाल को किसी भी रूप में दोहराने का दुस्साहन न कर पाए। सवाल है कि क्या आपातकाल को दोहराने का खतरा अभी भी बना हुआ है और भारतीय जनमानस उस खतरे के प्रति सचेत है? कोई तीन साल पहले आपातकाल के चार दशक पूरे होने के मौके पर उस पूरे कालखंड को शिद्दत से याद करते हुए भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने देश में फिर से आपातकाल जैसे हालात पैदा होने का अंदेशा जताया था। हालांकि आडवाणी इससे पहले भी कई मौकों पर आपातकाल को लेकर अपने विचार व्यक्त करते रहे थे, मगर यह पहला मौका था जब उनके विचारों से आपातकाल की अपराधी कांग्रेस नहीं, बल्कि उनकी अपनी पार्टी भाजपा अपने को हैरान−परेशान महसूस करते हुए बगले झांक रही थी। वह भाजपा जो कि आपातकाल को याद करने और उसकी याद दिलाने में हमेशा आगे रहती है।

 

आडवाणी ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में देश को आगाह किया था कि लोकतंत्र को कुचलने में सक्षम ताकतें आज पहले से अधिक ताकतवर हैं और पूरे विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल जैसी घटना फिर दोहराई नहीं जा सकतीं। आडवाणी का यह बयान यद्यपि तीन वर्ष से अधिक पुराना है लेकिन इसकी प्रासंगिकता तीन वर्ष पहले से कहीं ज्यादा आज महसूस की जा रही है। उनकी आशंका को अगर हम अपनी राजनीतिक और संवैधानिक संस्थाओं के मौजूदा स्वरूप और संचालन संबंधी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि आज देश आपातकाल से भी कहीं ज्यादा बुरे दौर से गुजर रहा है। श्रीमती इंदिरा गांधी ने तो संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर देश पर आपातकाल थोपा था, लेकिन आज तो औपचारिक तौर आपातकाल लागू किए बगैर ही वह सब कुछ बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा हो रहा है जो आपातकाल के दौरान हुआ था। फर्क सिर्फ इतना है कि आपातकाल के दौरान सब कुछ अनुशासन के नाम पर हुआ था और आज जो कुछ हो रहा है वह विकास और राष्ट्रवाद के नाम पर।

 

आपातकाल कोई आकस्मिक घटना नहीं बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीकरण, निरंकुशता, व्यक्ति−पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बढती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी। आज फिर वैसा ही नजारा दिख रहा है। सारे अहम फैसले संसदीय दल तो क्या, केंद्रीय मंत्रिपरिषद की भी आम राय से नहीं किए जाते, सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री की चलती है। इस प्रवृत्ति की ओर विपक्षी नेता और तटस्थ राजनीतिक विश्लेषक ही नहीं, बल्कि सत्तारुढ़ दल से जुड़े कुछ वरिष्ठ नेता भी यदा−कदा इशारा करते रहते हैं। इस सिलसिले में पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी के कई बयानों को याद किया जा सकता है। ये दोनों नेता साफ तौर पर कह चुके हैं कि मौजूदा सरकार को ढाई लोग चला रहे हैं। आपातकाल के दौरान संजय गांधी और उनकी चौकड़ी की भूमिका सत्ता−संचालन में गैर−संवैधानिक हस्तक्षेप की मिसाल थी, तो आज वही भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निभा रहा है। संसद को अप्रासंगिक बना देने की कोशिशें जारी हैं। न्यायपालिका के आदेशों की सरकारों की ओर से खुलेआम अवहेलना हो रही है। असहमति की आवाजों को चुप करा देने या शोर में डुबो देने की कोशिशें साफ नजर आ रही हैं। आपातकाल के दौरान और उससे पहले सरकार के विरोध में बोलने वाले को अमेरिका या सीआईए का एजेंट करार दे दिया जाता था तो अब स्थित यिह है कि सरकार से असहमत हर व्यक्ति को पाकिस्तान परस्त या देशविरोधी करार दे दिया जाता है। आपातकाल में इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय और संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रमों का शोर था तो आज विकास और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आवरण में हिंदुत्ववादी एजेंडा पर अमल किया जा रहा है। इस एजेंडा के तहत दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का तरह−तरह से उत्पीड़न हो रहा है।

 

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आपातकाल के बाद से अब तक लोकतांत्रिक व्यवस्था तो चली आ रही है, लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं, रवायतों और मान्यताओं का क्षरण तेजी से जारी है। अलबत्ता देश में लोकतांत्रिक चेतना जरूर विकसित हो रही है। जनता ज्यादा मुखर हो रही है और वह नेताओं से ज्यादा जवाबदेही की अपेक्षा भी रखती है। लेकिन यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही किया जाए, यह जरुरी नहीं। वह लोकतांत्रिक आवरण और कायदे−कानूनों की आड़ में भी हो सकता है। मौजूदा शासक वर्ग इसी दिशा में तेजी से आगे बढ़ता दिख रहा है। ऐसे में नहीं दिख रहा है तो वह है जेपी और लोहिया जैसा कोई निश्छल महानायक, जो सत्ता के एकाधिकारवाद या निरंकुशता को विश्वसनीय चुनौती दे सके।

 

-अनिल जैन

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