इंसानियत भूल चुके अस्पतालों को ''समझाने'' का समय आ गया

By डॉ. नीलम महेंद्र | Dec 21, 2017

“अपना दर्द तो एक पशु भी महसूस कर लेता है लेकिन जब आँख किसी और के दर्द में भी नम होती हो, तो यह मानवता की पहचान बन जाती है।'' मैक्स अस्पताल का लाइसेंस रद्द करने का दिल्ली सरकार का फैसला और फोर्टिस अस्पताल के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने का हरियाणा सरकार का निर्णय, देश में प्राइवेट अस्पतालों की मनमानी रोकने के लिए इस दिशा में किसी ठोस सरकारी पहल के रूप में दोनों ही कदम बहुप्रतीक्षित थे। इससे पहले इसी साल अगस्त में सरकार ने घुटने की सर्जरी की कीमतों पर सीलिंग लगाकर उसकी कीमत 65% तक कम कर दी थी।

इसी प्रकार दिल के मरीजों का इलाज में प्रयुक्त होने वाले स्टेंट की कीमतें भी सरकारी हस्तक्षेप के बाद 85% तक कम हो गई थीं। एनपीपीए पर मौजूद डाटा के मुताबिक अस्पताल इन पर करीब 654% तक मुनाफ़ा कमाते थे। लेकिन अब एडमिशन चार्ज, डाक्टर चार्ज, इक्विपमेंट चार्ज, इन्वेस्टिगेशन चार्ज, मेडिकल /सर्जिकल प्रोसीजर, मिसलेनियस जैसे नामों पर अब भी मरीजों से किस प्रकार और कितनी राशि वसूली जाती है, फोर्टिस अस्पताल का यह ताजा केस इसका उदाहरण मात्र है।

 

चिकित्सा के क्षेत्र में इस देश के आम आदमी को बीमारी की अवस्था में उसके साथ होने वाली धोखाधड़ी और "लापरवाही" पर ठोस प्रहार का इंतजार आज भी है। वैसे तो हमारे देश के सरकारी अस्पतालों की दशा  किसी से छिपी नहीं है लेकिन जब भारी भरकम फीस वसूलने वाले प्राइवेट अस्पतालों से मानवता को शर्मसार करने वाली खबरें आती हैं तो मानव द्वारा तरक्की और विकास के सारे दावों का खोखलापन ही उजागर नहीं होता बल्कि बदलते सामाजिक परिवेश में कहीं दम तोड़ती इंसानियत का रुदन भी सुनाई देता है।

 

एक व्यक्ति जब डाक्टर बनता है तो वो मानवता की सेवा की शपथ लेता है जिसे "हिप्पोक्रेटिक ओथ" कहते हैं, वो अपने ज्ञान के बल पर "धरती का भगवान" कहलाने का अधिकार प्राप्त करता है, लेकिन जब वो ही मानवता की सारी हदें पार कर दे तो इसे क्या कहा जाए? सवाल तो कई और भी हैं, जो चिकित्सा कभी एक "सेवा" का जरिया थी, वो पैसा कमाने वाला एक "पेशा अर्थात प्रोफेशन" क्यों और कैसे बन गई? वो चिकित्सक जिसे कभी भगवान की नजर से देखा जाता था आज संदेह की नजर से क्यों देखा जाता है? वो जाँचें जो बीमारी का पता लगाने के उद्देश्य से कराई जाती थीं आज वो कमीशन के उद्देश्य से क्यों करवाई जा रही हैं?

 

एक मरीज जिसे सहानुभूति की नजर से देखा जाना चाहिये उसे पैसा कमाने का जरिया क्यों समझा जाता है? जिस मामले में मैक्स का लाइसेंस निरस्त हुआ है उसमें अस्पताल ने पहले जीवित नवजात को नर्सरी में रखने के 50 लाख रुपए मांगें थे और बच्चे की माँ के बेहतर इलाज के लिए 35 हजार रुपये अलग से मांगे थे। इस देश का एक मिडिल क्लास आदमी आखिर क्या करे जब हमारे देश के सरकारी अस्पताल इस स्थिति में हैं नहीं कि वो इलाज के लिए वहाँ जाए और उसकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि प्राइवेट अस्पतालों में जो रकम इलाज के नाम पर उससे मांगी जाती हैं उसे वो भुगता पाए?

 

क्या जो पैसा इन प्राइवेट अस्पतालों द्वारा फीस और इलाज के नाम पर वसूला जाता है और मरीज के परिजनों द्वारा इतनी बड़ी रकम के लिए असमर्थता जताने के बाद जिस प्रकार का बर्ताव इनके द्वारा मरीजों से किया जाता है यह किसी भी दृष्टि से उचित ठहराया जा सकता है? आखिर वो जिसके हाथों में किसी के जीवन की डोर को एक बार फिर थाम लेने की ताकत हो, वो इतना कठोर और भावनाशून्य कैसे हो सकता है कि पैसा न मिलने की अवस्था में बिना ईसीजी या फिर अन्य कोई भी जाँच किए बिना ही एक जीवित बच्चे को "मृत" बताकर पोलीथीन में लपेट कर उसके परिजन को दे दे?

 

क्या यह पैसे के लालच में एक नन्हीं सी जान की "हत्या, एक कोल्ड ब्लडिड मर्डर" नहीं है जिसे समुचित देखभाल और इलाज से बचाया भी जा सकता था? आखिर वो जिसकी तरफ एक माता पिता अपनी बीमार बच्ची के इलाज के लिए आखिरी उम्मीद की नजर से देखते हैं, इतना बेरहम कैसे हो सकता है कि लगभग पन्द्रह दिनों तक अस्पताल में "इलाज" के बावजूद जब वो पिता को उसकी बेटी की लाश सौंपता है तो उसे 15,79,000 रुपए का बिल भी थमा देता है?

 

इतनी बेशर्मी कि बच्ची के तन पर पहने कपड़ों के 900 रुपयों के अलावा "कफन" तक के 700 रुपए वसूले जाते हैं? क्या प्रसव कराने वाले ये "भगवान" इस बात को समझते हैं कि एक माँ प्रसव पीड़ा का दर्द तो हँसते हँसते सह लेती है लेकिन अपने बच्चे को खोने की पीड़ा कैसे सहती है यह तो उसका दिल ही जानता है। क्या बच्चे के बदले पिता को उसके बच्चे का शव सौंपने वाले ये अस्पताल महसूस कर पाते हैं कि एक  पिता के वो मजबूत कंधे जो अपने दिल के टुकड़े को दुनिया की सैर कराते नहीं थकते थे, आज उसके शव का बोझ उठाने से पहले ही झुक कर रह जाते हैं?

 

अगर इन अस्पतालों को चलाने वाले चिकित्सक इन भावनाओं को नहीं समझ सकते तो भगवान तो क्या ये शैतान कहलाने के लायक भी नहीं! यह बात सही है कि जिंदगी और मौत ऊपरवाले के हाथ होती है लेकिन वो "लालच" जिसे "लापरवाही" का नाम दिया जा रहा है जब किसी की मौत का जिम्मेदार बन जाए तो उसे क्या कहा जाए? और वो "लापरवाही" जो किसी की जान ले ले, किसी के अपने को उससे जुदा कर दे, किसी का दिल का टुकड़ा या फिर उसका सहारा ही छीन ले, किसी के जीवन के सपने को ही तोड़ दे, वो केवल 'लापरवाही' नहीं होती बल्कि नैतिकता और जिम्मेदारी के एहसास का आभाव होता है और चिकित्सा जैसे जिम्मेदारी से युक्त सेवा कार्य में ऐसे चिकित्सकों की आवश्यकता नहीं जो अपने भौतिक लालच के सामने अपनी नैतिक जिम्मेदारी को ही न समझें। क्यों नहीं ऐसे लापरवाह और लालची चिकित्सकों की डिग्री वापस ले ली जाए ताकि समाज में किसी और परिवार का नुकसान न हो। समय आ गया है कि सरकार लालच में बेकाबू होते जा रहे इन अस्पतालों को मरीजों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और दायित्व जिन्हें वे भूल चुके हैं कठोर कानूनों के दायरे में लाकर समझाए।

 

- डॉ. नीलम महेंद्र

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