डेथ कमीशन वाले कट्टर मौलाना को ईरान का ताज, भारत के साथ रिश्तों पर गिरेगी गाज?

By अभिनय आकाश | Jun 19, 2021

दुनिया में किसी भी मुल्क की पहचान कैसे बनती है? कई सारे मानक हैं, मसलन उसका इतिहास, उसकी संस्कृति, उसका भौगोलिक परिवेश। इन सबसे इतर एक और चीज है जो किसी देश की चाल और उसका चरित्र तय करती है। उस देश को चलाने वाली सरकारें, उस सरकार का मुखिया। यह फार्मूला ईरान पर भी लागू होता है।  ईरान में राष्ट्रपति पद के चुनाव में देश के सर्वोच्च नेता आयतुल्ला अली खामेनेई के कट्टर समर्थक एवं कट्टरपंथी न्यायपालिका प्रमुख इब्राहीम रईसी ने बड़े अंतर से जीत हासिल की। ऐसा प्रतीत होता है कि राष्ट्रपति पद के चुनाव में देश के इतिहास में इस बार सबसे कम मतदान हुआ। प्रारंभिक परिणाम के अनुसार, रईसी ने एक करोड़ 78 लाख मत हासिल किए। चुनावी दौड़ में एकमात्र उदारवादी उम्मीद वार अब्दुलनासिर हेम्माती बहुत पीछे रहे गए। ईरान के गृह मंत्रालय में चुनाव मुख्यालय के प्रमुख जमाल ओर्फ ने बताया कि प्रारंभिक परिणामों में, पूर्व रेवोल्यूशनरी गार्ड कमांडर मोहसिन रेजाई ने 33 लाख मत हासिल किए और हेम्माती को 24 लाख मत मिले। एक अन्य उम्मीदवार आमिरहुसैन गाजीजादा हाशमी को 10 लाख मत मिले। इस बार मतदान प्रतिशत 2017 के पिछले राष्ट्रपति चुनाव के मुकाबले काफी नीचे लग रहा है। ईरान में राष्ट्रपति पद के लिए हर चार साल में एक बार चुनाव होता है। चुनाव जीतने वाला व्यक्ति एक बार में अधिकतम दो कार्यकाल तक राष्ट्रपति बन सकते हैं। हसन रूहानी 2013 में राष्ट्रपति बने थे और लगातार दो बार इस पद पर रह चुके हैं। ऐसे आज आपको विस्तार से बताएंगे ईरान में नए नेता से कितनी उम्मीदें और क्या होंगी चुनौतियां, इसके साथ ही आपको डेथ कमीशन के बारे में भी बताएंगे ।1988 से 1990 के बीच पत्थर मार-मारकर भी जान ली गई और लोगों को बेहहमी से कत्ल किए जाने के फैसलों पर मुहर लगाने वाला न्यायाधीश अब उस मुल्क का राष्ट्रपति बन गया है। लेकिन शुरुआत करने से पहले थोड़ा बैक ग्राउंड समझ लेते हैं। 

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इतिहास- ईरान का पुराना नाम फ़ारस है और इसका इतिहास बहुत ही नाटकीय रहा है। फारसी सास्कृतिक प्रभाव वाले क्षेत्रों में आधुनिक ईरान के अलावा इराक का दक्षिणी भाग, अज़रबैजान, पश्चिमी अफगानिस्तान, ताजिकिस्तान का दक्षिणी भाग और पूर्वी तुर्की भी शामिल हैं। ये सब वो क्षेत्र हैं जहाँ कभी फारसी सासकों ने राज किया था और जिसके कारण उनपर फारसी संस्कृति का प्रभाव पड़ा था। ईरान एक ऐसा देश है जो तकरीबन ढाई हजार साल तक राजशाही के अंदर रहा है। जिन्हें शाहों के नाम से जाना गया। 1950 में ईरान की जनता ने मोहम्मद मुसादिक के रूप में एक धर्मनिर्पेक्ष राजनेता को प्रधानमंत्री चुना। मुसादिक एक नेशनलिस्ट लीडर थे जो चाहते थे कि ईरान के ऑयल सेक्टर का राष्ट्रीयकरण हो। इससे पहले ईरान के के तेल के व्यापार का पूरा नियंत्रण ईरानी कंपनी का था, जिसका असल में मालिक ब्रिटिश और अमेरिकी कंपनी थी। मोहम्मद मुसादिक ने इसके राष्ट्रीयकरण की कोशिश की। जिसे रोकने के लिए एक सिक्रेट मिशन को अंजाम दिया गया, जिसका नाम था-मिशन एजेक्स। एक ऐसा ऑपरेशन जिसे अमेरिका की सीआईए औप ब्रिटेन की सीक्रेट एजेंसी द्वारा किया गया। जिसका मुख्य लक्ष्य था ईरान के तत्कालीन प्रधानमंत्री को सत्ता से हटाना। 1953 में अमेरिका ने ब्रिटेन के साथ मिलकर एक साज़िश के तहत मुसादिक का तख्तापलट कर दिया. और एक लोकतांत्रिक देश को राजशाही में तब्दील कर मोहम्मद रज़ा पहेलवी को ईरान का नया शाह बना दिया। रजा पहेलवी को ये पता था कि उसे अपनी सत्ता पर नियंत्रण मजबूत करना है तो ईरान के अंदर की जनता का समर्थन हासिल करना होगा। 1963 में एक नई नीति व्हाईट रिव्ल्यूशन ईरान में शुरू की गई। इसका मकसद वहां लैंड रिफॉर्म करना था जिससे किसानों का सपोर्ट शाह को मिले। शाह ने अगला क़दम यही उठाया. ईरान के बाज़ार को दुनिया के लिए खोल दिया. जिसका नतीजा ये हुआ कि तेहरान फैशन का हब बन गया।

अयातुल्ला खुमैनी की एंट्री 

करीब 10 सालों तक ईरान को पश्चिमी रंग में बदलते हुए अपनी आंखों से देखने के बाद लोग शाह पहेलवी के खिलाफ सड़कों पर उतर आए और इन लोगों की अगुवाई इस्लामिक लीडर आयतुल्लाह रुहुल्लाह खुमैनी कर रहे थे। जिसने इस्लामिक लॉ में विशेषज्ञता हासिल की है उसे अयातुल्ला की डिग्री मिलती है। शाह के नीतियों के विरोध की वजह से खुमैनी चर्चा में आना शुरू हुए। उनका कहना था कि शाह देश की बजाय सिर्फ अमेरिका का भला सोच रहे हैं। शाह की सुरक्षा एजेंसियों ने फौरन आयतुल्लाह खुमैनी को गिरफ्तार कर लिया. और उन्हें 18 महीनों तक जेल में यात्नाएं दी गईं. 1964 में जेल से आज़ादी के लिए उनके सामने दो शर्तें रखी गईं. या तो वो शाह से माफी मांगे या देश छोड़ दें। माफी नहीं मांगने पर खुमैनी को देश निकाला दे दिया गया। वो 12 साल ईराक में रहे फिर वहां से भी निकाले जाने के बाद पेरिस में रहे। लेकिन इस दौरान जब वो देश में नहीं थे तो तब भी उनके भाषण कैसेट्स के माध्यम से वितरित होते थे। 

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ईरान की इस्लामिक क्रांति

खुमैनी का उद्देश्य ईरान को राजशाही से आजादी दिलाने के साथ ही इस्लामिक देश बनाना था। अपने लेखन और उपदेशों में उन्होंने इस्लामिक न्यायविदों द्वारा ईश्वरीय राजनीतिक नियम को शामिल करने के लिए इस्लामी न्याय विज्ञान के संरक्षण वलयत-ई-फकीह के सिद्धांत का विस्तार किया। उनका कहना था कि ईरान तबतक तरक्की नहीं कर सकता जब तक ईरान के सारे कानून इस्लामिक न हो। वलयत-ई-फकीह का मतलब होता है रूल ऑफ फिकह। जिसमें हर फैसला फकीह की रहनुमाई में लिया जाता है जो कुरान और हदीस की रौशनी में होता है।  ईरान की इस्लामिक क्रांति (फ़ारसी: इन्क़लाब-ए-इस्लामी) सन् 1979 में हुई थी जिसके फलस्वरूप ईरान को एक इस्लामिक गणराज्य घोषित कर दिया गया था। इस क्रांति को फ्रांस की राज्यक्रांति और बोल्शेविक क्रांति के बाद विश्व की सबसे महान क्रांति कहा जाता है। इसके कारण पहलवी वंश का अंत हो गया था और अयातोल्लाह ख़ुमैनी देश के पहले रहबर-ए-आला यानी ईरान के सर्वोच्च नेता बन गए।ईरान में रहबर-ए-आला यानी सुप्रीम लीडर को देश का सबसे बड़ा धार्मिक और राजनीतिक ऑथोरिटी माना जाता है. वो सेना के कमांडर इन चीफ़ भी होते हैं। आयतुल्लाह ख़ुमैनी साल 1989 में अपनी मौत तक इस पद रहे. उनके दो बेटे थे मुस्तफ़ा ख़ामनेई और अहमद ख़ामनेई. मौजूदा सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह अली ख़ामनेई, अहमद ख़ामनेई के बेटे हैं जो साल 1989 में सुप्रीम लीडर बने। 

डेथ कमीशन और राजनीतिक विरोधियों के फैसले पर मुहर

खुमैनी देश के सुप्रीम लीडर हो गए और उन्हें ईरान में सक्रिय लेफ़्ट-विंग और उदारवादी गुटों को रास्ते से हटाना ज़रूरी लगा। इसी क्रम में मुजाहिदीन-ए-ख़ल्क (एमईके) भी निशाने पर आया। मुजाहिदीन-ए-ख़ल्क के सैकड़ों लोग गिरफ्तार किए गए और हजारों ऐसे भी लोग थे जिनपर केवल एमईके से हमदर्दी रखने का शक था।  हज़ारों राजनैतिक विरोधियों को भी जेल भेजा गया। मुक़दमे चले और अदालती कार्यवाही में मनमानी की गई। आरोप है कि 1988 से 1990 के बीच इसी तरह हज़ारों लोगों की हत्या हुई। इनमें सैकड़ों राजनैतिक क़ैदी भी शामिल थे। ज़्यादातर को फांसी दी गई। कइयों की पत्थर मार-मारकर भी जान ली गई। ये भी आरोप है कि नाबालिगों और गर्भवती महिलाओं तक की हत्या कराई गई। 1988 में बड़े पैमाने पर वामपंथी नेताओं, राजनीतिक क़ैदियों और असंतुष्टों को सामूहिक रूप से मृत्युदंड का फ़ैसला सुनाया गया। तेहरान इस्लामिक रिवोल्यूशन कोर्ट की चार सदस्यों की स्पेशल कमीशन जिसकी नियुक्ति ख़ुद सुप्रीम लीडर ख़ोमैनी ने की थी, केवल इसलिए कि उन्हें  राजनैतिक क़ैदियों के मुक़दमे की सुनवाई करना था। इस कमीशन को अमेरिका ने कथित तौर पर डेथ कमीशन कहा था। इस रेवॉल्यूशनरी कोर्ट के चार सदस्यीय स्पेशल कमीशन में शामिल थे- इब्राहिम रईसी। 

इब्राहिम रईसी का संक्षिप्त परिचय

इब्राहिम रईसी ने न्यायपालिका में विभिन्न पदों पर काम किया है और सुप्रीम लीडर का चुनाव करने वाली काउंसिल ऑफ़ एक्सपर्ट के सदस्य और फिर चेयरमैन भी रह चुके हैं। 2017 में हसन रूहानी के ख़िलाफ़ राष्ट्रपति पद के चुनाव में उन्हें केवल 38.5 फ़ीसद वोट मिले थे। लेकिन चुनाव हारने के बावजूद रईसी को मार्च 2019 में आयतुल्लाह अली ख़ामनेई ने न्यायपालिका का प्रमुख बना दिया था। 

30 हजार का कत्ल-ए-आम

1980 में राईसी करज की क्रांतिकारी अदालत के अभियोजक बने। 20 साल की उम्र में राईसी की तैनाती तेहरान के पश्चिम में कर दी गई थी। 1988 में उन्हें प्रमोट करके डिप्टी प्रौसेक्यूटर बनाया गया। पीपुल्स मुजाहिद्दीन से जुड़े कैदियों को मारने की समिति के सदस्य बनाए गए। राईसी उस समिति के सदस्य थे जिसके आदेश पर जेल में बंद करीब तीस हजार कैदियों को गोली मार दी गई थी। महिलाओं और बच्चों को भी तब नहीं छोड़ा गया था। पूरी दुनिया में ईरान के इस कदम की आलोचना हुई थी। तभी से रईसी ईरान के कट्टर मौलवियों की लिस्ट में शामिल हो गए थे।

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अमेरिका लगा चुका है प्रतिबंध

रईसी पहले ईरानी राष्ट्रपति हैे जिन पर पदभार संभालने से पहले ही अमेरिका प्रतिबंध लगा चुका है। उनपर यह प्रतिबंध 1988 में राजनीतिक कैदियों की सामूहिक हत्या के लिये तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना झेलने वाली ईरानी न्यायपालिका के मुखिया के तौर पर लगाया गया था। वर्ष 2017 में हुए चुनाव में रायसी ने भी चुनाव लड़ा था लेकिन उदारवादी रुहानी ने उन्‍हें भारी मतों से हरा दिया था। रायसी को 38 फीसदी वोट मिले थे, वहीं रुहानी को 57 प्रतिशत वोट मिले थे। 

नए निजाम की चुनौतियां

नए राष्ट्रपति के सामने घरेलू स्तर पर चुनौतियों के अलावा विदेश नीति से जूझने की भी चुनौती है। साथ ही देश की गणतांत्रिक व्यवस्था और इस्लामिक राज्य व्यवस्था वाली देश की हाइब्रिड प्रणाली के भविष्य को लेकर भी वो अहम भूमिका निभा सकते। अपने परमाणु कार्यक्रम और इसे लेकर पश्चिमी देशों के साथ तनावपूर्ण रिश्तों के कारण ईरान अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के केंद्र में है। इसके अलावा कड़े प्रतिबंधों से जूढ रहे ईरान में हसन रूहानी इस वादे के साथ उस वक्त चुनाव जीतने में कामयाब हुए थे कि वो पश्चिमी देशों के साथ बेहतर संबंध स्थापित करेंगे। साल 2015 में उन्होंने पश्चिमी देशों के साथ ऐतिहासिक परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। देश की अर्थव्यवस्था इस वक्त एक साथ कई स्तरों पर मुश्किलों से जूझ रही है। दूसरी तरफ देश पर कड़े प्रतिबंध लगे हैं, कोविड-19 महामारी का अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा है और भ्रष्टाचार भी बढ़ रहा है।

सुप्रीम लीडर सबसे पॉवरफुल

राष्ट्रपति ईरान का सर्वोच्च अधिकारी होता है। मगर शक्तियों के लिहाजे से वो सबसे ऊपर नहीं होता। ईरान के संविधान के मुताबिक़, राष्ट्रपति ईरान में दूसरा सबसे ज़्यादा ताक़तवर व्यक्ति होता है। वह कार्यकारिणी का प्रमुख होता है जिसका दायित्व संविधान का पालन करवाना है। यहां सबसे बड़ी अथॉरिटी हैं सुप्रीम लीडर। इनका आधिकारिक टाइटल है- अयातुल्लाह। साल 1979 में हुई इस्लामिक क्रांति के बाद से अब तक सिर्फ़ दो लोग सर्वोच्च नेता के पद तक पहुँचे हैं। इनमें से पहले ईरानी गणतंत्र के संस्थापक अयातुल्लाह रुहोल्ला ख़ुमैनी थे और दूसरे उनके उत्तराधिकारी वर्तमान अयातोल्लाह अली ख़ामेनेई हैं। सर्वोच्च नेता ईरान की सशस्त्र सेनाओं का प्रधान सेनापति होता है। सर्वोच्च नेता के अलावा ईरान में संसद और विशेषज्ञों की समिति भी है। ईरान में 290 सदस्यों वाली संसद मजलिस को हर चार सालों में आम चुनाव के माध्यम से चुना जाता है। विशेषज्ञों की समिति 88 सदस्यों की मज़बूत संस्था है, जिसमें इस्लामिक शोधार्थी और उलेमा शामिल होते हैं।  इस संस्था का काम सर्वोच्च नेता की नियुक्ति से लेकर उनके प्रदर्शन पर नज़र रखना होता है। ईरान के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति सर्वोच्च नेता करते हैं. मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्च नेता के प्रति ही उत्तरदायी होते हैं।  

भारत पर क्या होगा असर 

अमरीकी प्रतिबंधों व गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहा ईरान शिया इस्लामिक देश है और भारत में भी ईरान के बाद सबसे ज़्यादा शिया मुसलमानों की आबादी है। अगर भारत का विभाजन न हुआ होता यानी पाकिस्तान नहीं बनता तो ईरान से भारत की सीमा लगती। भारत के साथ ईरान के रिश्ते अच्छे बने रहें, उसी लिहाज से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल सितंबर में चार दिनों के भीतर ही रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस. जयशंकर को ईरान दौरे पर भेजा था। ईरान से भारत के संबंध हमेशा से अच्छे रहे हैं। जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने का चीन, तुर्की और पाकिस्तान के साथ ईरान ने भी विरोध किया था। - अभिनय आकाश

 

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