By डॉ. रमेश ठाकुर | Apr 08, 2022
पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के हालात अच्छे नहीं हैं, सामाजिक-राजनैतिक दोनों। कुर्सी को लेकर पक्ष-विपक्ष में टांग खिंचाई के बीच वहां के मानवाधिकार व सामाजिक कार्यकर्ता भी दुखी हैं। नेताओं की सियासी लड़ाई में आम जनता बेहाल है। पाकिस्तान के मौजूदा हालात पर वहां के प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता अंसार बर्नी खुद मानते हैं कि मौजूदा स्थिति से पाकिस्तान को निकालना बड़ा मुश्किल होगा। बर्नी पाकिस्तान के पहले ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो अपने यहां मानवाधिकार का मसला वर्षों से जोर-शोर से उठाते आए हैं। ऐसे तमाम मसलों पर डॉ. रमेश ठाकुर ने अंसार बर्नी से बातचीत की, पेश हैं बातचीत के मुख्य हिस्से।
प्रश्न- इमरान खान के निर्णय को आप कैसे देखते हैं?
उत्तर- मेरे देखने और ना देखने से कुछ बनने-बिगड़ने वाला नहीं? हमारे अंदरूनी मुल्क के हालातों से पूरी दुनिया वाकिफ हो गई है, छिपाने को कुछ बचा नहीं? सब कुछ सड़क और अखबारों में आ चुका है। मैं तो यही कहूंगा, खुदा किसी के भीतर कुर्सी का इतना मोह पैदा ना करे, सिर्फ अपने स्वार्थ और गद्दी की चाह में कोई व्यक्ति किस हद तक गिर सकता है। इसका सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है। अब वास्तविक रूप को भी आवाम ने देख लिया।
प्रश्न- मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर आपका अनुभव बहुत लंबा है, क्या इसका असर भी वहां दिखता है?
उत्तर- मैं पाकिस्तान हुकूमत के भीतर कैबिनेट में मानवाधिकारों के लिए कार्यवाहक संघीय मंत्री रहा हूं। तब अपने से जो बन पड़ा मैंने सुधार करवाया, लेकिन मेरे पद से हटते ही सब कुछ पहले जैसा हो गया। नौबत अब ऐसी है कैबिनेट से ये पद भी हटा दिया है। देखिए, सत्ता जिसके हाथ में आती है वह अपने विशेषाधिकार से चलाता है। उसमें कोई दखलंदाजी नहीं कर सकता। इमरान खान से आवाम को ढेरों उम्मीदें थीं, पर वह उनकी उम्मीदों पर ज्यादा खरा नहीं उतर सके।
प्रश्न- इमरान खान के उम्मीदों पर खरा नहीं उतरने के कारण क्या देखते हैं आप?
उत्तर- कोई एक कारण नहीं, कई हैं। दरअसल, वह पारंपरिक सियासी बंदे नहीं हैं, क्रिकेट ग्राउंड का उनके पास अनुभव है जो सियासत से बिल्कुल अलहदा होती है। जितने अच्छे खिलाड़ी वह क्रिकेट के थे, उतने सियासत के खिलाड़ी साबित नहीं हो पाए, एक वाजिब आरोप ये भी यदा-कदा लगा है कि उनको काम करने नहीं दिया गया। ऐसा हो भी सकता है। देखिए, गठबंधन की सरकार में चुनौतियां हजारों होती हैं। प्रेशर भी होता है। पर, इंसान को इन सबके इतर काम करना होता है।
प्रश्न- आपको क्या लगता है उनको इस्तीफा दे देना चाहिए था, या संसद भंग करने का निर्णय ही अच्छा था?
उत्तर- मुकम्मल तौर पर तो उन्हें इस्तीफा ही देना चाहिए था। इस्तीफा देने के तुरंत बाद चुनावों में जाते तो उनकी लोकप्रियता बरकरार रहती, आवाम में इज्जत बढ़ती। अविश्वास प्रस्ताव का संसद में पहुंच जाना, उसके बाद उसे कैंसिल करवाना, ये नाटक नहीं करना चाहिए था। उनको अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना चाहिए था। मुझे लगता है उनको पता था उसमें वह पराजित होते, इसलिए संसद में पहुंचे ही नहीं और राष्ट्रपति से मिलकर अविश्वास प्रस्ताव को ही कैंसिल करवा दिया। ये असंवैधानिक तरीका रहा।
प्रश्नः तो क्या विपक्षी दल सरकार बनाने में सफल हो जाते?
उत्तर- मुझे लगता है शायद हो जाते। पीएमएल-एन नेता मरियम औरंगजेब का 177 सांसदों के समर्थकों का दावा ठीक था। इस वक्त पीएमएल-एन मुल्क की दूसरी बड़ी पार्टी है जिसके पास 84 सांसद हैं, उनके साथ पीपीपी भी है जिनके पास भी 56 एमपी हैं। बाकी छोटे दलों को मिलाकर आंकड़ा सरकार बनाने को पार करता है। 4 निर्दलीय भी उनके पक्ष में थे। इस स्थिति में सरकार बन सकती थी।
प्रश्नः महंगाई की मार से पाकिस्तान कराह रहा है, कैसे निकल पाएगा इस आफत से?
उत्तर- बिल्कुल, महंगाई इस वक्त सर्वाधिक ऊंचाई पर है। पर, इससे सियासतदानों को शायद फर्क नहीं पड़ता। सरकार रहे उनकी या नहीं, उन्हें कोई मतलब नहीं। वह अपना ऐशोआराम का जीवन जीते रहेंगे, उनके ठिकाने पाकिस्तान में भी हैं और अन्य देशों में भी सुरक्षित हैं। चक्की के बीच आटे की भांति तो जनता पिस रही है। बेरोजगारी-महंगाई से लोग पीड़ित हैं।
प्रश्नः इमरान खान इस सबके पीछे अमेरिका का हाथ बता रहे हैं?
उत्तर- दूसरे मुल्कों से संबंध खराब करने की ये बचकानी हरकत है और कुछ नहीं। आपके यहां की फोरन पॉलिसी की भी सराहना की है। उनसे कोई पूछे आपको किसने रोका था, आप तो स्वतंत्र रूप से काम कर रहे थे, फिर दिक्कतें कहां आईं विदेशों से अच्छे संबंध बनाने में, ये कहो ना कि मैं ऐसा कर नहीं पाया। अनुभव की कमी कह लो, या अतिउत्साह।
प्रश्नः दोनों मुल्कों की आपसी नफरतें कभी कम हो पाएंगी या नहीं?
उत्तर- देखिए, ये नफरतें सियासी हैं जिनमें नेताओं के नफे-नुकसान शामिल हैं। कायदे से देखें तो दोनों मुल्कों की आवाम के एहसास और भावनाएं एक समान हैं। यानी ईश्वर-अल्लाह ने हमारे बीच कोई भेद नहीं किया है। अगर हमारे खून का रंग एक है, हमारा दर्द एक है, तो हम एक-दूसरे को नुकसान कैसे पहुंचा सकते हैं? वे कौन लोग हैं, जो मजहब के नाम पर दूसरों का कत्ल करने पर आमादा हैं? इसे शायद बताने की जरूरत नहीं?
-डॉ. रमेश ठाकुर