अनादिकाल से भारत योग भूमि के रूप में विख्यात इसलिये रही कि इसने शरीर से ही नहीं बल्कि मन से स्वस्थ रहना सिखाया। भारतीय योग तन और मन को स्वस्थ, सहज एवं संतुलित रखने का दर्शन है। सर्व भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामया का पाठ पठाने वाले देश का कण-कण, अणु-अणु न जाने कितने योगियों की योग-साधना से आप्लावित हुआ है। इसी भूमि पर कभी वैदिक ऋषियों एवं महर्षियों की तपस्या साकार हुई थी तो कभी भगवान महावीर, बुद्ध एवं आद्य शंकराचार्य की साधना ने इस माटी को कृत्कृत्य किया था। साक्षी है यही धरा रामकृष्ण परमहंस की परमहंसी साधना की, साक्षी है यहां का कण-कण विवेकानंद की विवेक-साधना का, साक्षी है क्रांत योगी से बने अध्यात्म योगी श्री अरविन्द की ज्ञान साधना का और साक्षी है महात्मा गांधी की कर्मयोग-साधना का। योग साधना की यह मंदाकिनी न कभी यहां अवरुद्ध हुई है और न ही कभी अवरुद्ध होगी। इसी योग मंदाकिनी से आज समूचा विश्व आप्लावित हो रहा है, निश्चित ही यह एक शुभ संकेत है सम्पूर्ण मानवता के लिये। विश्व योग दिवस की सार्थकता इसी बात में है कि सुधरे व्यक्ति, समाज व्यक्ति से, विश्व मानवता का कल्याण हो। सचमुच योग वर्तमान की सबसे बड़ी जरूरत है। लोगों का जीवन योगमय हो, इसी से युग की धारा को बदला जा सकता है।
योग दिवस की अन्तराष्ट्रीय स्वीकार्यता के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सूझबूझ एवं प्रयासों से अपूर्व वातावरण बना है। जी-20 देशों की अध्यक्षता करते हुए सहज ही योग की प्रासंगिकता बढ़ी है क्योंकि आज महामारी, महायुद्ध, आतंकवाद, बढ़ती महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी के कारण जीवन का हर क्षेत्र समस्याओं से घिरा हुआ है, जिसके कारण हर व्यक्ति एवं परिवार अपने दैनिक जीवन में अत्यधिक तनाव/दबाव महसूस कर रहा है। हर आदमी संदेह, अंतर्द्वंद्व और मानसिक उथल-पुथल की जिंदगी जी रहा है। मनुष्य के सम्मुख जीवन का संकट खड़ा है। मानसिक संतुलन अस्त-व्यस्त हो रहा है। मानसिक संतुलन का अर्थ है विभिन्न परिस्थितियों में तालमेल स्थापित करना, जिसका सशक्त एवं प्रभावी माध्यम योग ही है। योग एक ऐसी तकनीक है, एक विज्ञान है जो हमारे शरीर, मन, विचार एवं आत्मा को स्वस्थ करती है। यह हमारे तनाव एवं कुंठा को दूर करती है। जब हम योग करते हैं, श्वासों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, प्राणायाम और कसरत करते हैं तो यह सब हमारे शरीर और मन को भीतर से खुश और प्रफुल्लित रहने के लिये प्रेरित करती है। योग जीवन की अस्त-व्यस्तता एवं तनावों से मुक्ति का सशक्त माध्यम है। योग करना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है इसे सही तरीके से करना।
योग मनुष्य की चेतना को शुद्ध एवं बुद्ध करने की प्रक्रिया है, यह मनुष्य को ऊपर उठाने का उपक्रम है, जीवन में संतुलन स्थापित करने का साधन है एवं परमात्मा एवं परम ब्रह्म से एकाकार होने का विज्ञान है। ब्रह्म का साक्षात्कार ही जीवन का काम्य है, लक्ष्य है। यह साक्षात्कार न तो प्रवचन से ही प्राप्त हो सकता है, न बुद्धि से ही प्राप्त हो सकता है और न बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है, उसके लिये जरूरी है स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार और यह साक्षात्कार उसी को होता है जिसका अंतःकरण निर्मल और पवित्र है। पवित्र अंतःकरण ही वह दर्पण है जिसमें आत्मा का दर्शन, प्रकृति का प्रदर्शन और ब्रह्म का संदर्शन होता है। शुद्ध अंतःकरण में बुद्धि आकाशवत् निर्मल और स्वच्छ रहती है, मन गंगा जैसा पवित्र रहता है, चित्त ऐसा स्थिर रहता है जैसे बिना वायु के अविचल दीपक की ज्योति और सम्पूर्ण चेतना भगवान में मिलने के लिए ऐसी बहती है जैसे समुद्र में मिलने के लिए नदियां। जैसे शीशे में अपना चेहरा तभी दिखलायी पड़ता है जबकि शीशा साफ और स्थिर हो, इसी प्रकार शुद्ध अंतःकरण से ही परम ब्रह्म के दर्शन होते हैं। योग व्यायाम का ऐसा प्रभावशाली प्रकार है, जिसके माध्यम से न केवल शरीर के अंगों बल्कि मन, मस्तिष्क और आत्मा में संतुलन बनाया जाता है। यही कारण है कि योग से शारीरिक व्याधियों के अलावा मानसिक समस्याओं से भी निजात पाई जा सकती है।
मेरी दृष्टि में योग मानवता की न्यूनतम जीवनशैली होनी चाहिए। आदमी को आदमी बनाने का यही एक सशक्त माध्यम है। एक-एक व्यक्ति को इससे परिचित- अवगत कराने और हर इंसान को अपने अन्दर झांकने के लिये प्रेरित करने हेतु विश्व योग दिवस को और व्यवस्थित ढंग से आयोजित करने के उपक्रम होने चाहिए। इसी से योगी बनने और अच्छा बनने की ललक पैदा होगी। योग मनुष्य जीवन की विसंगतियों पर नियंत्रण का माध्यम है। योग मनुष्य को पवित्र बनाता है, निर्मल बनाता है, स्वस्थ बनाता है। यजुर्वेद में की गयी पवित्रता- निर्मलता की यह कामना हर योगी के लिए काम्य है कि ‘‘देवजन मुझे पवित्र करें, मन में सुसंगत बुद्धि मुझे पवित्र करे, विश्व के सभी प्राणी मुझे पवित्र करें, अग्नि मुझे पवित्र करें।’’ योग के पथ पर अविराम गति से वही साधक आगे बढ़ सकता है, जो चित्त की पवित्रता एवं निर्मलता के प्रति पूर्ण जागरूक हो। निर्मल चित्त वाला व्यक्ति ही योग की गहराई तक पहुंच सकता है।
स्वामी विवेकानंद कहते हैं- ‘‘निर्मल हृदय ही सत्य के प्रतिबिम्ब के लिए सर्वोत्तम दर्पण है। इसलिए सारी साधना हृदय को निर्मल करने के लिए ही है। जब वह निर्मल हो जाता है तो सारे सत्य उसी क्षण उसमें प्रतिबिम्बित हो जाते हैं।...पावित्र्य के बिना आध्यात्मिक शक्ति नहीं आ सकती। अपवित्र कल्पना उतनी ही बुरी है, जितना अपवित्र कार्य।’’ आज विश्व में जो आतंकवाद, हिंसा, युद्ध, साम्प्रदायिक विद्धेष की ज्वलंत समस्याएं खड़र है, उसका कारण भी योग का अभाव ही है। जब मानव अपनी आधिदैविक, आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक समस्याओं को सुलझाने के लिए अथवा उनका समाधान पाने के लिए योग का आश्रय लेता है तो वह योग से जुड़ता है, संबंध बनाता है, जीवन में उतारने का प्रयास करता है। किन्तु जब उसके बारे में कुछ जानने लगता है, जानकर क्रिया की प्रक्रिया में चरण बढ़ाता है तो वह प्रयोग की सीमा में पहुंच जाता है। इसी प्रयोग की भूमिका को जीवन का अभिन्न अंग बनाकर हम मानवता को एक नयी शक्ल दे सकते है।
आत्म विकास हेतु योग एक प्रमुख साधना है। पातंजलि योगशास्त्र में योग का अर्थ चित्तवृत्ति-निरोध किया है। चित्त की वृत्तियों को रोककर एकाग्रता अथवा स्थिरता लाने को योग कहा है। बौद्ध शास्त्रों में योग का अर्थ समाधि किया है, जबकि जैन शास्त्रों में योग का अर्थ मन, वचन, काया को जोड़ने से अथवा संयोग करने से किया है। ऊपरी तौर पर इन परिभाषाओं में भेद दिखाई देता है परन्तु वास्तव में इनका अर्थ मन, वचन,. काया का निरोध कर एकाग्रता लाना व उनका आत्म-विकास के मार्ग में प्रवृत्ति करना है।
प्रसिद्ध उक्ति है- ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’! इसके अनुसार निरोग एवं दृढ़ता से युक्त-पुष्ट शरीर के बिना साधना संभव नहीं। इसलिए योग को इस प्रकार गूंथ दिया गया है कि शरीर की सुडौलता के साथ-साथ आध्यात्मिक प्रगति भी हो। शरीर की सुदृढ़ता के लिए आसन एवं दीर्घायु के लिए प्राणायाम को वैज्ञानिक ढंग से ऋषियों ने अनुभव के आधार पर दिया है इससे व्यक्ति एक महान संकल्प लेकर उसे कार्यान्वित कर सकता है। अतः योग इस जीवन में सुख और शांति देता है और मुक्ति के लिए साधना का मार्ग भी प्रशस्त करता है। योग केवल सुंदर एवं व्यवस्थित रूप से जीवन-यापन करना ही नहीं सिखाता अपितु व्यक्तित्व को निखारने की कला को भी सिखाता है।
इस संसार में कर्म में प्रवृत्त परायण लोग शारीरिक शक्ति प्रधान होते हैं, कुछ लोग भक्ति परायण होकर भावनात्मक शक्ति प्रधान होते हैं, कुछ अन्य लोग ध्यान परायण होकर मानस शक्ति प्रधान होते हैं तो कुछ लोग विचार परायण होकर बौद्धिक शक्ति प्रधान होते हैं। इस प्रकार साधक भेद के अनुसार कर्मयोग, भक्तियोग, राजयोग एवं ज्ञानयोग-क्रमशः ये चार मार्ग प्रसिद्ध हैं। राजयोग के अनेक प्रभेदों में से एक ‘आष्टांग योग है’ है। आजकल व्यवहार में इसके दो अंग-आसन और प्राणायाम-विशेष रूप से प्रचलित हैं। ‘ज्ञानादेव तु कैवल्य’ इस उक्ति के अनुरूप आपके शरीर एवं मन को उस ज्ञानानुभूति के योग बनाना ही योग का प्रमुख लक्ष्य है। विश्व योग दिवस की निरन्तरता बनी रहे, यह अपेक्षित है। यह इतिहास न बने, बल्कि परम्परा बने- यही आजादी के अमृतकाल को अमृतमय बनाने के लिये योग दिवस का उद्घोष हो, इसी से लोगों को नयी सोच मिले, नया जीवन-दर्शन मिले।
- ललित गर्ग