By डॉ. प्रभात कुमार सिंघल | Jul 29, 2022
एक समय था जब घने जंगलों में बाघों की संख्या बहुत अधिक थी। जंगल के राजा का महत्व इस से बढ़ कर क्या होगा की इसे भारत के राज चिन्ह में सम्मान दिया गया है। धीरे-धीरे बाघों की प्रजाति विभिन्न कारणों से लुप्त होने लगी और इन्हें बचाने और संरक्षित करने के लिए बाघ संरक्षण परियोजनाएं संचालित की जाने लगी। देश के ही नहीं विदेश के सैलानी भी राष्ट्रीय पार्कों में इन्हें देखने के लिए जाते हैं। वे सोभग्यशाली होते हैं जिन्हें बाघ दिखाई दे जाते हैं। बाघों और उनके शावकों की अठखेलियां देख कर सैलानी इस यादगार और रोमांचक पलों को अपने कैमरे में कैद करते देखे जाते हैं। बच्चों को बाघ दिखने के लिए चिड़ियाघर ले जाते हैं।
भारत में हर चौथे साल टाइगर की गणना की जाती है। पहली गणना 2006 में की गई तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। वर्ष 1984 में टाइगर की संख्या 4000 के करीब पहुंच चुकी थी वह गिरकर 2006 में 1411 पर आ गई। घटती संख्या को देखते हुए 2010 में रूस के सेंट्स पिट्सबर्ग ने 2022 तक टाइगर की संख्या को दोगुना करने का लक्ष्य तय किया। उल्लेखनीय बात यह है कि भारत ने इस लक्ष्य को चार साल पहले ही पूरा कर लिया है। 2018 में ही भारत में टाइगर की संख्या 2967 हो गई है।
रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में वर्ष 2010 में आयोजित बाघ सम्मेलन में वर्ष 2022 तक बाघों की संख्या को दुगुनी करने के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त की जा कर हर वर्ष 29 जुलाई को अन्तर्राष्ट्रीय बाघ दिवस मनाए जाने का निर्णय लिया गया। इसका उद्देश्य बाघों के निवास स्थान का संरक्षण, विस्तार तथा उनकी स्थिति के बारे में जागरूकता को बढ़ावा देना था। सम्मेलन दुनिया के 12 देशों भारत, रूस, चीन, नेपाल, भूटान, थाइलैंड, लाओस, म्यांमार, मलेशिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, वियतनाम ने भाग लिया। शिकार और वनों के नष्ट होने के कारण विश्व के कई देशों में बाघों की संख्या में काफी गिरावट आई है।
बाघ संरक्षण की दिशा में भारत में किए गए प्रयासों से जो परिदृश्य उभरा है वह काफी आशा जनक है, जो बताता है कि देश में बाघों का कुनबा निरन्तर बढ़ रहा है। इस सन्दर्भ में देखें तो केंद्र सरकार ने 7अप्रैल 1973 में बाघों के संरक्षण के लिए "टाईगर परियोजना" (प्रोजेक्ट टाइगर) प्रारम्भ की थी। उस समय देश में 9 स्थानों को बाघ संरक्षित क्षेत्र बनाया गया, जिनकी संख्या अब बढ़ कर 50 हो गई है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब राजस्थान में कोटा जिले में मुकुंदरा हिल्स एवं बूंदी जिले में रामगढ़ को टाईगर रिजर्व बनाया गया है। मुकुंदरा टाईगर रिजर्व को 2022 में मानसून के बाद दर्शकों के लिए खोलने की तैयारी की जा रही है। इससे सैलानियों के लिए पर्यटन का नया गनत्व्य विकसित होगा और लोगों को रोजगार भी मिलेगा। स्थानीय सांसद और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला इस दिशा में सक्रिय और संकल्पबद्ध हैं।
बाघ संरक्षण दिवस के मौके पर दो वर्ष पूर्व 2020 में केंद्रीय पर्यावरण ,वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावडेकर ने वर्ष 2018 की अखिल भारतीय बाघ अनुमान रिपोर्ट के हवाले से बताया था कि देश में 2967 बाघ हैं। इसे विश्व रिकार्ड बताते हुए गिनीज विश्व रिकॉर्ड में शामिल किया गया। भारत में मध्य प्रदेश में सबसे अधिक 526 बाघ पाए गए हैं। कर्नाटक में 524 और उत्तराखंड में 442 बाघ हैं। महाराष्ट्र में 312, उत्तर प्रदेश में 173, राजस्थान में 69, आंध्रप्रदेश में 48, बिहार में 31, ओडिशा में 28, तेलंगाना में 26, छत्तीसगढ़ में 19, झारखंड में 5 बाघ हैं। पाँच वर्षों में, संरक्षित क्षेत्रों की संख्या 692 से बढ़कर 860 से अधिक हो गई। कहा गया कि विश्व के सन्दर्भ में भारत में करीब 70 प्रतिशत से ज्यादा बाघ हैं।
उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व 2014 में हुई बाघों की गणना में देश में बाघों की संख्या 2,226 थी, अर्थात 2018 की अनुमान रिपोर्ट में कुल 741 बाघों की बढ़ोतरी दर्ज की गई। वर्ष 2010 की गणना ने यह संख्या 1,706 और 2006 में 1,411 बाघ थे। इससे साफ होता है कि भारत में बाघों की संख्या में निरन्तर वृद्धि दर्ज की जा रही हैं। मध्यप्रदेश में पेंच टाइगर रिज़र्व में बाघों की संख्या सबसे अधिक है, वहीं तमिलनाडु में सथ्यमंगलम टाइगर रिज़र्व ने 2014 से “अधिकतम सुधार” दर्ज किया। छत्तीसगढ़ और मिजोरम में उनके बाघों की संख्या में गिरावट देखी गई जबकि ओडिशा में बाघों की संख्या स्थिर रही। अन्य सभी राज्यों में रुझान सकारात्मक पाया गया।
गौरतलब है कि 19 वीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप में 50 हजार से एक लाख टाइगर पाए जाते थे। लेकिन बेइंतहा शिकार की वजह से 1972 आते-आते देश में 1827 टाइगर ही बचे थे। उसके बाद से उनके संरक्षण के लिए 1973 में टाइगर प्रोजेक्ट शुरू किया गया। प्रोजेक्ट के तहत उस समय देश के नौ टाइगर रिजर्व संरक्षित किए गए। आज इनकी संख्या 50 तक पहुंच गई है। विशेषज्ञों की माने तो गणना में एक बदलाव कर दिया गया है।
दरअसल 18 महीने से पहले टाइगर की मौत की दर कहीं ज्यादा होती है इसलिए 18 महीने रखा जाता है। 12 महीने का मानक रखने से निश्चित तौर पर टाइगर की संख्या में 150-200 का अंतर आता है। यानी 2014 के मानक के अनुसार टाइगर की संख्या 2700 के करीब होगी। लेकिन यह बात समझनी होगी कि 1973 से अभी तक हम 900 टाइगर ही बढ़ा पाएं हैं। आज संरक्षित क्षेत्र में हम उस स्तर पर पहुंच गए हैं, जहां हम बहुत ज्यादा टाइगर नहीं बढ़ा सकते हैं। ऐसे में हमें बेहतर प्रबंधन पर सोचना होगा। जिससे टाइगर का बेहतर संरक्षण हो सके। जबकि कुछ विशेषज्ञ इस बात से असहमत भी हैं। ख़ैर यह तो चर्चा का विषय और अपने-अपने विचार हैं।
देश में बाघों की वृद्धि जहां हर्षित करता है वहीं कई चिंताएं और चुनौतियां भी विचारणीय हैं। बाघों की गणना पर एक नज़र डाले तो आसमान वितरण देखने को मिलता है जो चिंतनीय है। देश के तीन राज्यों नागालैंड, मिजोरम एवं उत्तर पश्चिम बंगाल क्षेत्र ऐसे हैं जहां टाइगर खत्म हो गए हैं। तीन टाइगर रिजर्व बक्सा, डंपा और पालामऊ में एक भी टाइगर नहीं पाया गया है। झारखंड और गोवा जैसे राज्य में इनकी संख्या केवल पांच और तीन है। यही नहीं बिहार, आंध्रप्रदेश-तेलंगाना, ओडीसा, अरूणाचल प्रदेश और सुंदरबन क्षेत्र में बाघों की संख्या स्थिर हो गई है।
केवल चार राज्यों में 62 फीसदी बाघ मौजूद हैं। बाघों का ये असमान वितरण का साफ संकेत है कि कैसे कई राज्यों में कुप्रबंधन होने की वजह से टाइगर विलुप्त होने की स्थिति में पहुंच गए हैं। यही नहीं देश के आधे से ज्यादा टाइगर रिजर्व में सड़क, रेलवे आदि इंफ्रास्ट्रक्चर गतिविधियों में बढ़ोतरी से भी टाइगर की सुरक्षा पर खतरा बढ़ा है। विकास के कार्यों में वन भूमि के काम में आने से वन क्षेत्र घटता है जिस से बाघों के प्राकृतिक आवासों में कमी आती है और उनके भोजन के लिए जानवरों की भी कमी होती हैं। अवैध शिकार और वन क्षेत्र में अवैध खनन भी चिंता के विषय हैं।
बढते प्रोजेक्ट क्लीयरेंस क्या खतरा बन सकते हैं, इस पर “मैनेजमेंट इफेक्टिवनेस इवैल्युएशन ऑफ टाइगर रिजर्व रिपोर्ट 2018” के अनुसार बढ़ते इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट की वजह से देश के 50 टाइगर रिजर्व में से करीब आधे रिजर्व में जो सड़क, हाइवे और रेल नेटवर्क विस्तार का काम चल रहा है। वह टाइगर के लिए खतरा हैं।
सरकार भी इस खतरे से सावचेत है।नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ की स्टैण्डिंग कमेटी की 47 वीं बैठक में इस बात को उठाया गया है। उसके अनुसार सड़कों और नहरों के चौड़ीकरण, रेलवे लाइन प्रोजेक्ट की वजह से जानवरों की मौत में इजाफा हुआ है, इसकी वजह से जानवरों के लिए बेहतर रास्ते का प्रबंधन करना जरूरी है। इस मामले में समुदाय के साथ कैसे बेहतर तालमेल कर टाइगर का संरक्षण किया जा सकता है, उसका एक सफल उदाहरण राजस्थान के रणथंभौर में टाइगर वॉच संस्था के कन्जर्वेशन बॉयोलॉजिस्ट धर्मेंद्र खांडल का रहा है। उनका कहना है कि टाइगर की संख्या बढ़ने की प्रमुख वजह उसके शिकार को रोकने और सरकार के स्तर पर बदली सोच का परिणाम है। सरकार के स्तर पर वैज्ञानिक गणना पर तो जोर है, लेकिन प्रबंधन में वैज्ञानिक सोच की कमी है। नेशनल टाइगर कन्जर्वेशन अथॉरिटी को प्रोफेशनल बनाने की जरूरत है। अभी जंगलों में कई ऐसे वनस्पतियां पहुंच गई हैं। पर्यटन के भरोसे ही लोगों को नहीं जोड़ सकते हैं। मनरेगा सहित दूसरी सरकार की योजनाओं को इसके तहत जोड़ कर समुदाय बेहतर प्रबंधन किया जा सकता है। इसी जरूरत को देखते हुए हमने पचास लोगों की टीम बनाई जिसे हम 3000 से लेकर 11000 रुपये तक प्रतिमाह को वेतन भी देते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि टाइगर का संरक्षण बढ़ा।
यह सारा परिदृश्य संकेत देता है कि हमें केवल टाइगर की बढ़ी संख्या को देखकर खुश होने की जरूरत नहीं है वरन बेहतर प्रबंधन, बाघों का आसमान वितरण को कम करने और विकास एवं संरक्षण के स्तर पर संतुलन बनाने पर फोकस करना होगा।
डॉ. प्रभात कुमार सिंघल, कोटा
(लेखक राज्य स्तरीय अधिस्विकृत स्वतंत्र पत्रकार हैं)