सैनिक विद्रोह नहीं, जनसहभागिता से पूर्ण राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम की चिंगारी थी 1857 की क्रांति

By डॉ. प्रभात कुमार सिंघल | May 10, 2020

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में 1857 के सैनिक विद्रोह को विस्मृत नहीं किया जा सकता। इसे सैनिक विद्रोह, सैनिक क्रांति या ग़दर कह कर इतिश्री नहीं की जा सकती। देखा जाये तो भारतीय इतिहास की यह  एक ऐसी घटना थी जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिये न केवल चिंगारी का काम किया वरण संग्राम का बीजारोपण भी किया। भारत में अंग्रेजों की दासता और उनके अत्याचारों से कहराती पीड़ित आम जनता, किसान, सैनिक ही नहीं कुलीन वर्ग की घोर पीड़ा औऱ उन पर हो रहे अन्याय से मुक्ति का यह संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की भूमिका का श्रीगणेश कहा जा सकता है। यूं कहें कि इस घटना से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन शुरू हो गया तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।


इस घटना के समय वैसे तो भारत में मुगल साम्राज्य के अंतिम शासक बहादुर शाह ज़फर द्वितीय का शासन था परंतु ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी जो व्यापार करने आई थी अपना आधिपत्य स्थापित करने में सक्रिय थी। लार्ड डलहौजी की विस्तारवाद की नीति के तहत रियासतों पर अनेक प्रतिबंध लगाना, बहादुर शाह एवं नाना साहब के साथ दुर्व्यवहार ने देशी रियासतों एवं नवाबों में असंतोष एवं घृणा को जन्म दिया। स्थायी बंदोबस्त, रैयावाडी, महा लवाड़ी प्रथाओं से किसानों का शोषण होने एवं बार-बार पड़ने वाले अकाल से टूटटी किसानों की कमर, बड़े पैमाने पर ईनाम की जागीरें छीन लेना, भारत से कच्चा समान इंग्लैंड भेजने एवं वहां से पक्का माल मंगाने से धरेलू उद्योग नष्ट हो जाना, समाजिक जीवन में दखल देना, हर स्तर पर भेदभाव करना, हिन्दू एवं मुस्लिम धर्म की निंदा कर ईसाई धर्म का प्रचार करना जैसे कारणों से जनता उद्वेलित थी और आजादी पाने के लिए मौके की तलाश में थी। ये सब वजह क्रांति की मूलाधार बनी।

 

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मेरठ में 10 मई 1857 को विद्रोही सैनिकों और पुलिस फोर्स ने अंग्रेजों के विरूद्ध साझा मोर्चा गठित कर क्रान्तिकारी घटनाओं को अंजाम दिया। सैनिकों के विद्रोह की खबर फैलते ही मेरठ की शहरी जनता और आस-पास के गांव विशेषकर पांचली, घाट, नंगला, गगोल इत्यादि के हजारों ग्रामीण मेरठ की सदर कोतवाली क्षेत्र में जमा हो गए। इसी कोतवाली में इंचार्ज धन सिंह कोतवाल के पद पर कार्यरत थे। मेरठ की पुलिस बागी हो चुकी थी। धन सिंह कोतवाल क्रान्तिकारी भीड़ (सैनिक, मेरठ के शहरी, पुलिस और किसान) में एक  नेता के रूप में उभरे। उनका आकर्षक व्यक्तित्व, उनका स्थानीय होना, पुलिस में उच्च पद पर होना और स्थानीय क्रान्तिकारियों का उनको विश्वास प्राप्त होना कुछ ऐसे कारक थे जिन्होंने धन सिंह को मेरठ की क्रान्तिकारी जनता के नेता के रूप में उभरने में मदद की। क्रांति का तात्कालिक कारण मेरठ में 1853 की राइफल्स में उपयोग में लाये जाने वाले कारतूस बने। इनकी खोल पर सुअर एवं गांय की चर्बी लगी थी। जिनकी टोपी को इस्तेमाल से पहले मुह से खोलना पड़ता था। इसने हिन्दू और मुस्लिमों की भावना को ठेस पहुँची। इनके इस्तेमाल पर मंगल पांडेय ने आवाज उठाई। छावनी के सैनिक आगे बढे तो उन्हें मौत के घाट उतार दिया। मंगल पांडेय को फांसी दे दी गई। इससे क्रांति का माहौल भड़क उठा। भारतीय सैनिकों की सामूहिक परेड बुलाई, इनकार करने वाले 85 सेनिको को दस साल कैद की सजा सुनाई गई कोर्ट मार्शल कर वर्दी उतर दी गई और लोहे की जंजीरों में जकड़ दिया गया और उन्हें विक्टोरिया पार्क की जेल में बंद कर दिया गया। दस मई को क्रांतिकारियों ने इन्हें जेल से मुक्त कराया एवं दिल्ली की और कूंच कर गए। ये 11 मई को सुबह दिल्ली में बहादुरशाह ज़फर से मिले,वहाँ कर्नल रिप्ले की हत्या कर दी। 


मेरठ क्रान्ति में अग्रणी भूमिका निभाने की सजा पांचली व अन्य ग्रामों के किसानों को मिली। मेरठ गजेटियर के वर्णन के अनुसार 4 जुलाई, 1857 को प्रातः चार बजे पांचली पर एक अंग्रेज रिसाले ने तोपों से हमला किया। रिसाले में 56 घुड़सवार, 38 पैदल सिपाही और 10 तोपची थे। पूरे ग्राम को तोप से उड़ा दिया गया। सैकड़ों किसान मारे गए, जो बच गए उनमें से 46 लोग कैद कर लिए गए और इनमें से 40 को बाद में फांसी की सजा दे दी गई।

 

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दिल्ली से यह क्रांति समूचे उत्तर भारत में फ़ैल गई। अलीगढ़, इटावा, गोरखपुर, बुलंदशहर आदि में स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। फैजाबाद, झांसी, दिल्ली, कानपुर, इलाहाबाद, ग्वालियर, गोरखपुर देश में क्रांति के प्रमुख केंद्र बन गए। विद्रोह शुरू करने की योजना 31 मई 1857 से बनाई गई थी परंतु यह निर्धारित समय से पूर्व ही 10 मई 1857 को शुरू हो गई। सम्पूर्ण भारत में 562 देशी रियासतें थी जिसमें से राजपूताने (वर्तमान राजस्थान) में 19 रियासतें थी। देश में क्रांति का नेतृत्व प्रमुख रूप से बहादुरशाह द्वितीय, नाना साहब, मिर्जा मुगल, बख्तर खान, रानी लक्ष्मी बाई, ताँतिया टोपे एवं बेगम हज़रत महल ने किया और वीरता एवं साहस का परिचय देते हुए संचालन किया।


राजपूताने में छः छावनी नसीराबाद, ब्यावर-अजमेर, नीमच- वर्तमान में मध्यप्रदेश, देवली-टोंक, खेरवाड़ा-उदयपुर एवं एरिनपुरा-पाली में स्थित थी। खेरवाड़ा एवं ब्यावर छावनी ने इस में भाग नहीं लिया। राजपूताने में क्रांति का प्रारम्भ सबसे पहले 28 मई को नसीराबाद से हुआ जब अजमेर से 15वीं बंगाल इन्फेंट्री को नसीराबाद भेजने का निर्णय लिया गया। इस से नाराज़ सैनिकों ने बम्बई से सैनिक बुला लिए एवं तोपें तैयार कराई। सेना ने ब्रितानियों को मौत के घाट उतार दिया और उनकी सम्पत्ति नष्ट कर दी। विद्रोही 18 जून को दिल्ली विद्रोह में शामिल हो गए।


नीमच में भी इससे प्रेरित हो कर हीरासिंह के नेतृत्व में सेना ने ब्रितानियों को मौत के घाट उतार दिया। मीर आलम खान के नेतृत्व में टोंक, देवली, नीमच की संयुक्त सेना दिल्ली चली गई। क्रांति के अमर शहीद हेमू कालानी को टोंक में फांसी दे दी गई। जयपुर में नजारत खान और शादुल्ला खान के नेतृव में षडयंत्र रचा गया पर समय से पूर्व पता लगने से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। एरिनपुरा में जोधपुर लीजन टुकड़ी ने विद्रोह किया और दिल्ली चलो का नारा दिया। जोधपुर के ठिकाने आउवा के ठिकानेदार ठाकुर कुशल सिंह ने विद्रोह किया, आस-पास की जागीरें भी शामिल हो गई। बीथोड़ा एवं चेलावास में युद्ध हुए। जोधपुर के पोलिटिकल एजेंट मैक मेसन का सिर काट कर आउवा किले के मुख्य दरवाजे पर लटका दिया। बाद में ठाकुर कुशाल सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया पर साक्ष्य के अभाव में छोड़ दिया गया। कर्नल होम्स ने आउवा किले को जीत कर सुगाली माता की मूर्ति, 6 पीतल एवं 7 लोहे की तोपें अजमेर ले आया।


राजपूताने में क्रांति का सर्वाधिक प्रभाव कोटा में हुआ। यहां 1857 की क्रांति की शुरुवात प्रत्यक्ष रूप से 15 अक्टूबर से हुई जब पोलिटिकल एजेंट मेजर बर्टन द्वारा लाला जयदयाल जैसे प्रमुख आंदोलनकारियों को गिरफ्तार करने के षड़यंत्र का पता चलने पर फौजें भड़क उठी। सेना और जनता ने इसी दिन एजेंटी बंगले को घेर कर चार घंटे गोली बारी की। एजेंटी बंगले को आग लगादी। मेजर बर्तन के दो पुत्रों की तलवार से हत्या कर दी गई और बर्टन का सिर पूरे शहर में घूमा कर तोप से उड़ा दिया गया। पूरे शहर पर आंदोलनकारियों का कब्ज़ा हो गया और कोटा महाराव अपने किले गढ़ में कैद हो कर रह गये।

 

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आंदोलनकारियों ने महाराव की मदद के लिए दिल्ली जा रहे हरकारे को पकड़ लिया, गढ़ पर हमला बोल दिया, गढ़ पर कब्ज़ा नहीं कर सके तो नगर सेठों और जागीरदारों की हवेलियों को लूटना शुरू कर दिया। कोयले वालो की एवं दानमल जी की हवेलियों पर हमला कर भारी क्षति पहुँचाई। आंदोलनकारियों के होंसले बुलंद थे। शहर के दरवाजों पर घमासान युद्ध हुआ और गढ़ में घुस कर पुनः नगर पर कब्जा कर दिलेरी और साहस का परिचय दिया। होली के बाद तक संघर्ष जारी रहा, रंगों की होली खून की होली बन गई। जनरल लारेंस एवं रॉबर्ट के नेतृव में अंग्रेजी फौज के 300 सिपाहियों की टुकड़ी ने चम्बल के किनारे आन्दोलनकारियों को पीछे हटने पर विवश किया और उनकी 50 तोपों पर कब्जा कर लिया व गढ़ में प्रवेश कर गए। रणनीति के तहत 29 मार्च 1858 को आंदोलनकारियों पर तोपें चलवा दी, बम फिंकवाये। आंदोलनकारियों के होंसले पस्त नहीं हुए। करीब दो हज़ार लोग अंग्रेजी सेना का घेरा तोड़ कर बच निकले।


आगे एक और घमसान संघर्ष में अंग्रेजी फौज शहर पर कब्जा करने में सफल हुई गढ़ में कैद विद्रोहियों के सिर कटवा दिए, कई की सम्पत्ति ज़ब्त कर नीलम कर दी एवं सगे संबंधियों को यातनाएं दी गई और दड़वाड़ा के समीप चम्बल के किनारे मेवाती विद्रोहियों के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। महाराव को उनका शासन सौंप कर 27 अप्रैल को वापस लौट गई। इस संग्राम में अमिट बलिदान के लिए चिरस्मरणीय लाला जयदयाल और मेहराब खान को अंग्रेजी सरकार ने महाराव पर दबाव डाल कर 1860 में एजेंटी बंगले के नीम के पेड़ पर फांसी लगवा दी।


अंग्रेजों की दमनकारी नीति से 1857 की क्रांति को दबा दिया गया। बड़ा परिणाम निकला कि 1858 में ब्रिटिश संसद ने निर्णय लेकर भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन समाप्त कर भारत का शासन सीधे ब्रिटिश क्राउन के अधीन चला गया। इस क्रांति से अंग्रेजों के अत्याचारों से मुक्त होने में जिस प्रकार क्रांतिकारियों ने मुकाबला किया, जुल्म सहे उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया वरण इस से भड़की चिंगारी हमारे भावी आजादी के आंदोलन के लिए नींव का पत्थर बन गई।


डॉ. प्रभात कुमार सिंघल

लेखक एवं पत्रकार

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