देश और समाज के रूप में शारीरिक रूप से किसी भी तरह की अक्षमता के शिकार लोगों के साथ सम्मानपूर्ण और बराबरी का व्यवहार हम कैसे कर सकते हैं जब हमने अभी तक सक्षम लोगों के साथ ही बराबरी तो छोडो मानवतापूर्ण व्यवहार करना भी नहीं सीखा है। यह बात दीगर है कि हम कृत्रिम बुद्धि के ज़माने में प्रवेश कर चुके हैं शायद तभी हमारी प्राकृतिक बुद्धि भ्रष्ट होती जा रही है। पिछले दिनों असक्षम कहे जाने वाले लोगों ने साबित कर दिया है कि वास्तव में वे कितने सक्षम हैं और उनके साथ अमानवीय व्यवहार करने वाला समाज कितना असक्षम। आम आदमी अपनी कमियों को दयनीय स्थिति में ढालकर दूसरों से मुफ्त में कुछ न कुछ ले लेना चाहता है लेकिन इन्होंने अपनी कमियों को अपनी खूबियां बना दिया।
उन्होंने अपने इरादों को विकसित किया और अपने लिए ही नहीं देश के लिए भी नाम अर्जित किया। कह सकते हैं अच्छा वक़्त भी उनके साथ था तभी उनके स्वप्नों और प्रयासों को आर्थिक उंचाई भी मिली। अब उनकी सफलता सभी के लिए प्रेरणा बन कर बह रही है। लगता है बुद्धिमान लोग अब कम से कम सक्षम लोगों की प्रतिभा को तो मान्यता देना शुरू करेंगे। कहीं राजनीतिजी हमेशा की तरह उनकी गर्दन तो नहीं पकड़ लेंगी। फिलहाल तो हमने मान्यताओं और सुविधाओं को जाति, धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र और पहुंच के गड्ढों में बांट रखा है। क्या अब पूर्ण अंगों वाले दिव्य अंगों वालों बारे सोचने का मौक़ा लेंगे। यहां तो पढ़े लिखे संपन्न व्यक्ति ऐसा व्यवहार करते हैं मानो अनपढ़, साधनहीन और उज्जड हों। अक्षम माने जाने वाले इन लोगों की लगन, मेहनत और अभ्यास यह साबित करता है कि ज़िंदगी का उदास अन्धेरा कोना प्रकाश को कई गुणा फैला सकता है। सुविधाओं की नदी में पैदा होने वाले ज़रूरी नहीं कि बढ़िया तैराक भी हों। हमारे यहां तो समान रूप से वाजिब अधिकार मिलना संभव नहीं है।
बस उन्हें दिव्यांग कहकर संतुष्ट किया जा रहा है। वे संतुष्ट हों न हों हम उन्हें संतुष्ट मान लेते हैं। वास्तव में उनके लिए अपने बूते कहीं जाना, खरीददारी और कामकाज के लिए सुविधाएं अभी दूर हैं। आलीशान बाज़ारों की बहार तो सक्षम लोगों के लिए है। पार्किंग की सुविधा के लिए तो आम इंसान भी परेशान दिखता है इन्हें कहां से मिलेगी। होंगी तो देंगे न। यहां तो सक्षम लोगों को सड़क पार करना नहीं आया न ही सिखाया तभी तो सभी चलती गाड़ियों के बीच से निकलते हैं। टॉयलेट तो ढूंढना पड़ता है जो महिलाओं और बच्चों के लिए और मुश्किल है। अक्षम लोगों के लिए तो असंभव सा है। कितने ही कार्यालयों में रैम्प बनाने बारे विचार ही चलता रहता है। फुटपाथ पर चलना, बस में चढ़ना, मूवी देखना सभी जगह असुविधा की कंटीली घास उगी है। हस्पताल में व्हील चेयर के चिन्ह के नीचे यदि व्हील चेयर उपलब्ध होगी तो टूटी फूटी ही होगी।
ऐसा कहा जा सकता है यदि यह विजेता दिव्यांग न होते तो इतने मैडल लाकर यह साबित न करते कि उन्हें अक्षम समझने वाले ज्यादा अक्षम हैं।
- संतोष उत्सुक