सोशल मीडिया के इस युग में समृद्ध बाल साहित्य उपलब्ध नहीं

By कौशलेंद्र प्रपन्न | Aug 14, 2017

बड़ों की दुनिया रोज दिन नई नई तकनीक और विकास के बहुस्तरीय लक्ष्य को हासिल कर रही है। सामाजिक विकास की इस उड़ान में अभिव्यक्ति की तड़पन को महसूस किया जा सकता है। इसका दर्शन हमें विभिन्न सामाजिक मीडिया के मंचों पर देखने−सुनने को मिलता है। यहां मसला यह दरपेश है कि क्या इन मंचों पर बाल अस्मिता और किशोर मन की अभिव्यक्ति की भी गुंजाईश है या फिर बाल साहित्य के नाम पर तथाकथित कहानी, कविता तक ही महदूद रखते हैं। सोशल मीडिया में क्या किशोर व बाल अस्मिता का भूगोल रचा गया है या फिर वयस्कों की दुनिया में ही इनके लिए एक कोना मयस्सर है। लक्ष्य की ओर दृष्टि, उद्देश्य और रणनीति की स्पष्टता बेहद अहम है। अपने करीब के तमाम संसाधनों का इस्तेमाल अपने लक्ष्य प्राप्ति की दृष्टि से की जाए तो वह भौतिक दूरी काफी करीब आ जाती है। हम नागर और ग्रामीण समाज की बेचैनीयत छुपी नहीं है कि हम अपने अंदर की छटपटाहटों, हलचलों को दूसरे समाज, व्यक्ति और संस्कृति तक हस्तांतरित करना चाहते हैं। 

दूसरे शब्दों में कहें तो जब हम संप्रेषण की तीव्रता से इस कदर बेचैन हो जाएं कि किसी भी तरह किसी भी कीमत पर खुद को उड़ेल देने की छटपटाहट हो तो यह अभिव्यक्ति की अनिवार्यता नहीं तो क्या है। जब हम खुद को अभिव्यक्ति के संवेदनात्मक स्तर पर लरजता हुआ पाते हैं तब हमारे सामने जो भी सहज माध्यम मिलता है उसमें खुद को बहने देते हैं। समय के साथ हमारे संप्रेषण के माध्यमों में परिवर्तन आने लाजमी थे जो हुए। वह बदलाव दृश्य एवं श्रव्य दोनों ही माध्यमों में साफतौर पर देखे और महसूस किए जा सकते हैं। सोशल मीडिया और उसके चरित्र में भी एक जादू है जिसे अनभुव किया जा सकता है। यह इस माध्यम का आकर्षण ही है कि छह साल का बच्चा और अस्सी साल का वृद्ध सब के सब इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। यूजर फ्रैंडली माध्यम होने के नाते बड़ी ही तेजी से प्रसिद्धी के मकाम को हासिल किया है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस सामाजिक माध्यम में बच्चों की दुनिया व बच्चों के लिए क्या है तो इसके लिए हमें सोशल मीडिया के विभिन्न स्वरूपों की बनावटी परतों को खोलना होगा। हम इस आलेख में खासकर उन बिंदुओं की तलाश करेंगे जहां हमें सोशल मीडिया में बाल अस्तित्व के संकेत भर मिलते हों।

 

आज से पहले भी समाज में रहने वाले लोग आपस में संवाद स्थापित करने के लिए कोई न कोई माध्यम तो अपनाते ही थे। वह माध्यम मुनादी रहा हो या मेघदूत की रचना करने वाले कालीदास जिन्होंने अपने संदेश प्रेषित करने के लिए दूत के तौर पर मेघ को माध्यम बनाया। भोजपत्र, ताड़पत्र, पेपाईरस, पत्थर, मिट्टी के टेब्लेट्स आदि भी माध्यम ही थे जिसके जरिए लोग अपने विचारों, भावनाओं और संदेश को एक दूसरे तक संप्रेषित किया करते थे। छपाई से पूर्व के विभिन्न माध्यम छपाई मशीन के सामने पानी भरते नजर आने लगे। दूसरे शब्दों में संवाद के माध्यम तकनीक विकास के साथ बदलते चले गए। मुद्रित माध्यम भी हमें खूब भाया। शिलालेखों से लेकर भोजपत्रों पर लिखकर लेखन माध्यम को आगे बढ़ाया। यह एक माध्यम था जिसके खोल में हम अपनी ज्ञान−विज्ञान, संस्कृति, सभ्यता भाषा आदि को न केवल संजो रहे थे, बल्कि उन्हें आने वाले समय के लिए संरक्षित भी कर रहे थे। इस यात्रा में दरपेश बात यह भी है कि हमने अपने बच्चों की ज्ञानात्मक और संवेदनात्मक विकास के लिए पंचतंत्र और कथासरित सागर, बेताल पचीसी आदि की रचना की। यह भी एक अभिव्यक्ति ही थी। हमारे ऋषियों ने काफी मंथन करने के बाद बाल विमर्श और बाल साहित्य के माध्यम से उनकी संवेदना और भावनाओं के सम्यक विकास हो सके। 

 

तकनीक के इस्तेमाल ने भाषा को भी खासा प्रभावित किया है। जब हम कागज पर लिखा करते थे तब हमारे मन में जो आता था व लिखना चाहते थे वही शब्द प्रयोग करते थे। बार बार काटना, मिटाना और फिर सुप्रयुक्त शब्दों को लिखने की आजादी हमारे पास थी। लेकिन जब से कम्प्यूटर व लैपटॉप पर सीधे लिखने लगे तब से लेखन में वह आजादी छीन सी गई। साथ ही एक व्यापक अनुभव बताता है कि जब से हमने कागज कलम से लिखना छोड़ा उसके बाद यदि एक पन्ना भी हाथ से लिखना पड़े तो हाथ की मांसपेसियां दर्द करने लगती हैं। ऐसे में बच्चों व विद्यार्थियों के लिए यह नुकसानदेह ही माना जाएगा जिनकी अंगुलियां सिर्फ फोन, लैपटॉप, टेब्लेट्स के की-पैड पर टपर टपर टाईप करने लगीं। क्योंकि उन्हें अभी तो परीक्षाओं में लिखने से निजात नहीं मिली है।

 

भाषा किसकी, किसके लिए और किसके द्वारा बनती, संवरती और ताउम्र हमारे साथ रहती है। यदि भाषा हमारे साथ पूरी जिंदगी साथ निभाती है तो उस भाषा का अपना क्या चरित्र है? यदि कोई चरित्र है तो उसको बरकरार रखने में हम किस स्तर तक अपनी भूमिका निभाते हैं? सवाल तो और भी उठते हैं, लेकिन उसका निदान भी तो हो। पहली बात तो यही कि भाषा का अपना चरित्र जैसा कि हिन्दी साहित्य के अध्येताओं, भाषाविदों ने बताए हैं कि भाषा बहता नीर है। अनवरत निर्बाध गति से बहती रहती है। बदलाव और प्रवहमान रहना ही भाषा की नियति और स्वभाव है। यदि इन्हीं सूत्रों के सहारे आगे बढ़ें तो सच भी लगता है, बल्कि यही सच है भाषा के साथ कि भाषा समाज, व्यक्ति, काल एवं परिस्थिति के अनुकूल अपना चोला बदलती रहती है। कहीं 'का हो का हाल बा' वाक्य में 'का' क्या बोली में शामिल हो जाती है तो वही संस्कृत में का स्त्रीलिंग प्रथम पुरुष में आ जाती है। किन्तु अर्थ में अंतर नहीं दिखाई देता। बा संस्कृत के वर्तते जिसका अर्थ होता है है, का लघु रूप ले लेता है। इस तरह से भाषा अपना रूप लघु व दीर्घ करती रहती है।

 

बहरहाल भाषा के आवागमन पर नजर डालें तो बहुत दिलचस्प नजारा देखने को मिलता है। भाषा विज्ञान बड़ी ही विस्तार से भाषाओं के बदलते स्वरूप का निदर्शन कराती है। वहीं आम बोलचाल में भी भाषा की छटाएं देखने को मिलती हैं। भोजपुरी, मागधी, ब्रज, अवधी आदि बोलियां किस तरह हमारे जनजीवन से होती हुईं एक शोध का विषय बनीं इसका उदाहरण सूर, तुलसी, कबीर, विद्यापति, रैदास आदि में मिलता है। भाषा एवं साहित्य का रिश्ता बहुत प्राचीन रहा है। भाषा को किस तरह सार्वजनीन किया जाए व सर्वमान्य किया जाए इसके लिए समय समय पर विद्वानों ने अथक प्रयास किए हैं। इस कड़ी में डॉ. महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। क्योंकि इन्होंने 1902−1920 तक सरस्वती के संपादन काल खंड में समकालीन लेखकों की भाषा को न केवल परिमार्जित किया बल्कि उन्हें लिखने के कौशल भी प्रदान किए। यदि साधारण शब्दों में कहें तो भाषा हमारी संप्रेषणीयता में न केवल मददगार होती है, बल्कि हमारी अभिव्यक्ति को मारक और प्रभावशाली भी बनाती है। एको शब्दः सुप्रयुक्तः स्वर्गेलोको कामधुक भवति यानी एक शब्द का सही समुचित प्रयोग स्वर्गकारी सुख प्रदान करने वाला होता। लेकिन शर्त यही है कि हमारी अपनी भाषा पर उस तरह का अधिकार हो। दरअसल भाषा की भी साधना होती है। भाषा के भी साधक हैं जिन्होंने पूरी जिंदगी भाषा को समझने, बरतने में लगा दी। 

 

सोशल मीडिया की दुनिया में जिस तरह की भाषा इस्तेमाल हो रही है उसे देख कर यह जरूर विश्वास होता है कि इसके यूजर यानी प्रयोगकर्ताओं ने भाषा के पारंपरिक स्वरूप के स्थान पर एक नया शार्ट रूप बना लिया है। जिसे हम मोबाईल, सोशल साईट पर चैटिंग के दौरान इस्तेमाल करते हैं। एसएमएस की भाषा के करीब खड़ी यह भाषा कई शब्दों की महज ध्वनि को आधार बना कर संवाद स्थापित करती है। वहीं कई स्थानों पर शब्दों के बीच के वर्णों का लोप भी कर देती है। लेकिन जब जिस प्रकार की शब्दावली इस्तेमाल में आने लगीं तो धीरे−धीरे इसका दायरा भी बड़ा होता रहा। यह भाषा क्या व्यापक भाषा− शास्त्र विमर्श व भाषा शिक्षण− प्रशिक्षण का हिस्सा बन पाएगी या महज आम फहम के बीच बोलचाल तक सिमट कर रह जाएगी यह कहना अभी जल्दबाजी होगी। 

 

बाल उपन्यासों की संख्या बेहद निराश करने वाली है क्योंकि बाल उपन्यास लेखकों की बेहद कमी है। बाल कहानियों, बाल कविताओं, बाल गीतों आदि में तो बहुसंख्यक लेखक मिलेंगे। किन्तु जब बाल उपन्यास, बाल नाटक, बाल यात्रा संस्मरण आदि की बात होती है तब एक बड़ा हिस्सा सूखाग्रस्त नजर आएगा। यह वह क्षेत्र है जिसमें बहुत कम लेखक अपनी ताकत, लेखकीय प्रतिबद्धता एवं सृजनशीलता के हल चलाना चाहते हैं। क्योंकि इस क्षेत्र में खतरे उठाने होंगे। यह वह क्षेत्र है जहां प्रसिद्धी इतनी जल्दी नहीं मिलती। प्रसिद्ध शिक्षाविद्, लेखक प्रो. कृष्ण कुमार ने बीस साल पहले इन पंक्तियों के लेखक से बातचीत में कहा था कि बाल साहित्य में शिद्दत और प्रतिबद्धता से लिखने वालों की नितांत कमी है। जो हैं वे हैं तो वयस्कों की दुनिया के किन्तु कभी कभार बच्चों के लिए भी लिख लेते हैं। यदि कोई इस क्षेत्र में अपना समय लगाए तो उसे स्थापित होने व पहचान बनाने में कम से कम बीस साल तो लग ही जाते हैं। और यह बात आज शत प्रतिशत सही लगती है।

 

जो भी पुराने बाल कथाकार, लेखक, कवि हैं या तो वे अब नहीं हैं और जो हैं उनकी अवस्था अब सक्रियता से कट चुकी है। हरकिृष्ण देवसरे, रमेश तैलंग, शेरजंग गर्ग, दिविक रमेश, प्रकाश मनु, क्षमा शर्मा, पंकज चतुर्वेदी आदि को छोड़ दें तो यह बच्चों की दुनिया तकरीबन खाली है। कहना न होगा कि आने वाली लेखकों की पीढ़ी भी तत्काल प्रसिद्धी हासिल करने वाली विधा में ही लिखना, छपना चाहती है।

 

- कौशलेंद्र प्रपन्न

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