By आरएन तिवारी | Aug 05, 2022
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में गोता लगाकर सांसारिक आवा-गमन के चक्कर से मुक्ति पाएँ और अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ। आज-कल हम श्रीमद् भागवत महापुराण के अंतर्गत राम-कथा का श्रवण कर रहे हैं। पिछले अंक में हम सबने राम-तत्व तक पहुँचने के लिए सबसे पहले छोटे भैया शत्रुघ्न जी और उनकी शक्ति स्वरूपा श्रुतकीर्ति का का आश्रय लिया था।
आइए ! आगे की कथा प्रसंग में चलते हैं---
शत्रुघ्न जी और उनकी शक्ति स्वरूपा श्रुतकीर्ति के सहारे हमने प्रथम सीढ़ी पार कर ली, आइए ! अब दूसरी सीढ़ी पर चलें। शत्रुघ्न जी के बड़े भैया कौन हैं तो लक्ष्मणजी। लक्ष्मण का मतलब है जिसके जीवन का एक ही लक्ष्य हो। लखन लाल के जीवन का लक्ष्य क्या है? उनको रामजी के अतिरिक्त किसी से कोई मतलब नहीं। शास्त्र कहते हैं— “मातृ देवो भव पितृ देवो भव आचार्य देवो भव।“ और यही शिक्षा रामजी ने भी लक्ष्मण जी को दी थी— भैया लक्ष्मण ! भरत शत्रुघ्न मामा के यहाँ गए हैं और माता-पिता ने हमें वन जाने की आज्ञा दे दी है, अब अयोध्या की ज़िम्मेदारी तुम्हारे कंधों पर है। तुम यहीं रहकर माता-पिता की सेवा करो। पर क्या लक्ष्मण मान गए? लक्ष्मण जी ने सीधा जवाब दिया।
गुरु पितु मातु न जानऊँ काऊ, कहहू स्वभाव नाथ पतियाहू ।
मुझे किसी से कोई मतलब नहीं। तीनों का नाम ले लिया। गुरु, माता और पिता। रामजी ने कहा-- ये तुम बोल रहे हो। रामो विग्रहवानधर्म;। साक्षात धर्म के विग्रह श्री रामजी के अनुज बोल रहे हैं। अरे! आश्चर्य है, जब तुम माता पिता और गुरु को ही नहीं मानते, तो मानते किसको हो? लक्ष्मण जी ने कहा— मैंने तो जीवन में केवल एक ही को माना है।
मोरे सबही एक तुम स्वामी, दीनबंधु उर अंतर्यामी।
संसार के जितने नाते हैं उन समस्त नातों और रिश्तों को मैंने आप में ही देखा है।
माता रामो मत् पिता रामचन्द्र; स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्र;
सर्वस्वं मे रामचन्द्र; दयालु; नान्यम जाने नैव जाने न जाने॥
न अन्यम जाने। मैं अन्य किसी को जानता नहीं। भगवान बोले- तुम सही कह रहे हो, क्योंकि मुझको प्रणाम करते समय लोग यही बोलते हैं—
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव-----
किन्तु तुम कहाँ से बोल रहे हो? लक्ष्मण जी बोले- हे दीन बंधु ! क्या तुमसे कोई झूठ भी बोल सकता है? मैं बाहर से बोल रहा हूँ कि भीतर से मुझसे ज्यादे आप जानते हैं। आप अंतर्यामी हैं मेरे भीतर झाँककर देखिए कि मैं कहाँ से बोल रहा हूँ। लक्ष्मण जी के हृदय की भावना जब भगवान जान गए तब प्रसन्न होकर बोले अच्छा कोई बात नहीं माता जी से आज्ञा लो और मेरे साथ चलो।
भगवान ने लक्ष्मण को हृदय से लगाकर कहा—
बहुत प्यार करते हैं तुझको लखन ---
मांगऊ विदा मातु सन जाई आवहू बेगि चलहू बन भाई॥
ऐसा ही लक्ष्य हमारे जीवन में सुदृढ़ हो जाए तो समझ लो कि हमारे हृदय भवन में लखन लाल जी प्रकट हो गए। अब लक्ष्मण जी अकेले थोड़े ही आएंगे उनकी शक्ति भी प्रकट होंगी। लक्ष्मण जी की शक्ति कौन हैं ? उर्मिला देवी ।
यदि हमारा लक्ष्य सुदृढ़ हो जाएगा तो हमारे हृदय में प्रभु से मिलने की इच्छा तीव्र हो जाएगी। उर में प्रभु से मिलने की उत्कंठा ही उर्मिला है। प्रभु कहाँ मिलेंगे कब मिलेंगे कैसे मिलेंगे यह इच्छा जागृत हुई तब समझ लेना चाहिए कि हमारे हृदय में लक्ष्मण और उर्मिला का जोड़ा प्रकट हो गया। हमने दो सीढ़ी पार कर ली। आइए अब तीसरी सीढ़ी की तरफ चलते हैं। तीसरे भैया कौन हैं? भरतजी भरत का मतलब है भर देने वाला। ये क्या भरेंगे। जिसके पास जो वस्तु है वही तो देगा। भरत जी प्रभु के साक्षात प्रेम विग्रह हैं। इनके भीतर राम-रस लबालब भरा है। जो इनका सुमिरन करता है उसका हृदय भी राम-रस से भर देते हैं। हम सबका हृदय अभी विषय रस से भरा है, अब राम रस से कैसे भरेगा? खारा पानी लोटे में भरा है तो पहले उसको फेंकना पड़ेगा तब, खाली होने पर उसमे गंगाजल भरेगा। भरत जी ये दोनों काम कर देते हैं। हमारे भीतर जो विषय रस भरा है उसे निकालकर उसमे राम-रस भर देते हैं। यही भरत जी का काम है। गोस्वामी जी इशारा करते हैं।
भरत चरित कर नेम, तुलसी जे सादर सुनही
सीय राम पद प्रेम, अवसि होय भव रस विरति॥
अवसि होय यह पद बीच में रखा राम पद प्रेम अवसि होय और भव रस विरति अवसि होय। दोनों काम हो गया। जो भव रस भरा है वह निकल जाएगा वैराग्य हो जाएगा और राम-रस से हमारा हृदय लबालब भर जाएगा। ये दोनों काम भरत जी के सुमिरन से हो जाता है। अब हमारा हृदय राम-रस से परिपूर्ण हो गया इसकी पहचान क्या है तो जब भरत जी की शक्ति प्रकट होगी। वो कौन है मांडवी। मांडवी का मतलब संसार के चराचर प्राणियों में ऐसा प्रेम जागे जैसा कि माँ का अपने बेटे के प्रति होता है। हमारे मन में जब ऐसा प्रेम जागने लगे तब समझ लेना चाहिए कि हमारे हृदय भवन में मांडवी प्रकट हो गईं। हृदय जब राम रस से भर जाता है तब संसार के समस्त जीवों के प्रति प्रेम स्वत; जागृत होने लगता है।
शेष अगले प्रसंग में । --------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
-आरएन तिवारी