जम्मू-कश्मीर के चुनावी नतीजों के निहितार्थ

By उमेश चतुर्वेदी | Oct 08, 2024

जम्मू और कश्मीर राज्य एवं राम मंदिर में क्या कोई समानता हो सकती है? मोटे तौर पर देखें तो इनमें कोई समानता नहीं हो सकती। लेकिन जब भारतीय जनता पार्टी के संदर्भ में दोनों को ही देखें तो समानता नजर आती है। राममंदिर और जम्मू-कश्मीर, भारतीय जनता पार्टी के कोर मुद्दे रहे हैं। लेकिन चुनावी मोर्चे पर दोनों ही मुद्दे कम से कम स्थानीय स्तर पर भाजपा को निराश ही करते रहे हैं। संविधान के अनुच्छेद 370 और कैबिनेट के प्रस्ताव 35 ए की वजह से जम्मू-कश्मीर की स्थिति देश के अन्य राज्यों से अलग रही है। यह अलग स्थिति ही वहां के अलगाववाद की नासूर का कारण मानी जाती रही है। भारतीय जनता पार्टी ने अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करके एक तरह से इस नासूर को ही खत्म कर दिया। ऐसे में इसका चुनावी श्रेय भारतीय जनता पार्टी को मिलने की उम्मीद होना स्वाभाविक है। लेकिन विधानसभा चुनाव नतीजों ने पार्टी को निराश ही किया है। 


यहां पर राममंदिर आंदोलन और उस बीच हुए उत्तर प्रदेश के चुनावों की याद आना स्वाभाविक है। छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद अव्वल तो होना चाहिए था कि आगामी चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को अपने दम पर भारी जीत मिलती। लेकिन 1993 के विधानसभा चुनावों में भाजपा सबसे बड़ा दल बनकर भले ही उभरी, लेकिन वह बहुमत से दूर रही। जनवरी 2024 में अयोध्या में भव्य राममंदिर बनकर तैयार हो गया। देश और दुनिया में राममंदिर को लेकर अलग तरह का उत्साह देखा गया। पांच सौ वर्षों के संघर्ष का अंत हुआ। इस संघर्ष की अगुआ भारतीय जनता पार्टी ही रही। इसलिए इस संघर्ष का उसे चुनावों में फायदा मिलना चाहिए था। लेकिन उलटबांसी देखिए कि कुछ ही महीनों बाद हुए लोकसभा चुनावों में अयोध्या वाली फैजाबाद सीट भारतीय  जनता पार्टी हार गई। इस कड़ी में कोर मुद्दे से जुड़े इलाके जम्मू-कश्मीर में बीजेपी को चुनावी बढ़त ना मिलना, पार्टी के लिए तीसरा झटका कहा जा सकता है।

इसे भी पढ़ें: Jammu Kashmir में कैसे हारकर भी 'जीत' गई बीजेपी? मोदी, राहुल, अब्दुल्ला और मुफ्ती के लिए क्या मायने रखते हैं ये नतीजे

जम्मू-कश्मीर में जिस नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन को बहुमत मिला है, उसका चुनावी वादा है कि राज्य की पुरानी स्थिति बहाल करेंगे यानी अनुच्छेद 370 को फिर से प्रभावी बनाएंगे। यह बात और है कि इस महत्वपूर्ण अनुच्छेद की बहाली जम्मू-कश्मीर की आधी-अधूरी विधानसभा के वश की बात नहीं है। लेकिन इस जीत के जरिए नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस नैतिक रूप से राष्ट्रीय स्तर पर दबाव बनाने की कोशिश तो जरूर ही करेंगी। इसका उसे राष्ट्रीय फायदा भले ही न मिले,लेकिन केंद्रीय सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर परेशानी खड़ी करने का जरिया वे बनाते रहेंगे। वैसे भी भारत की राजनीति आज जिस मुकाम पर है, उसमें राजनीतिक दलों को सिर्फ अपने सियासी स्वार्थ और फायदे की चिंता है। उनकी प्राथमिकता में राष्ट्र बाद में आता है। इसलिए अंदरूनी मुद्दों को अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उछालने में दलों को कोई हिचक नहीं होती। विपक्ष के नेता राहुल गांधी के लंदन और अमेरिका के भाषण इसके उदाहरण हैं।


दुनिया में भारत का दबदबा भले ही बढ़ रहा हो, भारत तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था भले ही हो, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ ताकतें ऐसी भी हैं, जो भारत में उथल-पुथल देखना चाहती हैं। इसके लिए वे अपने तईं प्रयास भी करती रहती हैं। जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन की जीत को ये ताकतें बहाना बनाएंगी और यह नैरेटिव स्थापित करने की कोशिश करेंगी कि जम्मू-कश्मीर की मौजूदा स्थिति उसकी अवाम को ही स्वीकार्य नहीं है। इस बहाने घूम-फिरकर उसी तर्क को बढ़ावा दिया जाएगा, जो पाकिस्तान देता रहा है। जिसकी वकालत नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी जैसे दल भी करते रहे हैं। पाकिस्तान कश्मीर को लेकर जनमत संग्रह की बात करता रहा है तो नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी प्रकारांतर से पाकिस्तानी मंशा को ही आगे बढ़ाते रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में भाजपा की चुनावी जीत ना मिलने के बाद वे फिर भाजपा के नजरिए को गलत साबित करने की कोशिश करेंगे । 


जम्मू-कश्मीर के चुनावी अभियान के दौरान विशेषकर कश्मीर घाटी के वोटरों के जो विचार सामने आ रहे थे, उससे ऐसे ही चुनाव नतीजों की उम्मीद थी। जिस घाटी में पत्थरबाजी रूक गई, जहां आतंकी घटनाओं पर लगाम लग गई, जहां ढाई दशक से पहले की तरह पर्यटकों की आमद बढ़ी, जहां अमन बढ़ा, वहां के लोग खुलकर कहते रहे कि उन्हें हिंदू राज नहीं चाहिए। नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली सरकार की वजह से उन्हें ये सारी सहूलियतें मिलीं, राज्य में बदलाव आया। विकास की नई बयार बही। फिर घाटी के लोगों को ना तो नरेंद्र मोदी पसंद हैं और ना ही भारतीय जनता पार्टी। फिर कश्मीर घाटी में नवगठित विधानसभा की 47 सीटें आती हैं, जबकि जम्मू इलाके में 43 सीटें हैं। घाटी की सीटों पर भाजपा की चुनावी संभावनाओं की कोई उम्मीद भी नहीं लगाए हुए था। वैसे भी घाटी की 28 सीटों पर बीजेपी ने अपने उम्मीदवार भी नहीं दिए थे। जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय का आंदोलन जिस प्रजा मंडल ने चलाया, उसका आधार जम्मू इलाके में ही रहा। वह एक तरह से भाजपा के पूर्ववर्ती जनसंघ का ही हिस्सा था। देश मान कर चल रहा था कि जम्मू इलाके की 43 सीटों में ज्यादातर पर बीजेपी की जीत होगी। लेकिन वहां बीजेपी 29 सीटें ही जीत पाई। जाहिर है कि 14 सीटों पर उसे हार का सामना करना पड़ा। वैसे बीजेपी का एक धड़ा मान रहा है कि पार्टी की आपसी गुटबाजी और गलत टिकट बंटवारा पार्टी की सफलता की राह में बाधा बन गया। वैसे पार्टी के लिए संतोष की बात यह भी है कि घाटी की कई सीटों पर उसके उम्मीदवार हजार-दोहजार वोटों के ही अंतर से हारे हैं...फिर भी बीजेपी को सोचना होगा कि आखिर उससे चूक कहां हुई कि अपने गढ़ में वह शत-प्रतिशत सफलता हासिल क्यों नहीं कर पाई। वैसे बीजेपी इस बात से राहत की सांस ले सकती है कि हरियाणा में वह धमाकेदार जीत के साथ वापस लौट रही है। 


- उमेश चतुर्वेदी

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

प्रमुख खबरें

मिस इंडिया से पायलट बनने तक रोमांचक रहा है Gul Panag का जीवन, जानिए भारत की सुपरलेडी की कहानी

आज से ठीक 194 साल पहले जन्मी थीं भारत की पहली महिला शिक्षिका, स्कूल जाते समय Savitribai Phule पर लोग फेंकते थे कीचड़

खेल रत्न, अर्जुन और द्रोणाचार्य अवॉर्ड विजेताओं की पूरी लिस्ट, जानें किसे मिला कौन सा पुरस्कार

Election year in Canada: विपक्षी कंजर्वेटिव पार्टी को मिल रहा 50% सपोर्ट, ट्रूडो को लग सकता है झटका