Gyan Ganga: पूतना के सभी पापों को नजरंदाज करके प्रभु ने उसे भी परम गति प्रदान की

By आरएन तिवारी | Nov 12, 2021

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !

तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:॥ 


प्रभासाक्षी के कथा प्रेमियों ! पिछले अंक में श्री शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को बताया कि भगवान श्रीकृष्ण की सुंदर और सरस लीलाएं ही रस के रूप में विद्यमान हैं। भागवत कथा में आदि से अंत तक स्वयं परमात्मा ही विराजमान हैं, इसीलिए श्रीमद्भागत महापुराण को सभी पुराणों का तिलक (शिरोमणि) कहा जाता है। कथा प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए श्री शुकदेव जी कहते हैं-- श्रीमद्भागत महापुराण में स्वयं परमात्मा ही विराजमान हैं।

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तेनेयम वाङ्मयी मूर्ति किसी ने पूछा, महाराज ! फल तो खाया जाता है, पिया नहीं जाता। व्यास जी कहते हैं कि फल वह खाया जाता है, जिसमे छिलका हो गुठली हो। चूसकर गुठली फेंक दिया। यह भागवत तो सम्पूर्ण कृष्ण का विग्रह है। शब्द के रूप में साक्षात प्रभु हैं, छिलका गुठली वाली कोई चीज नहीं की फेंके। इसलिए पियो। पिवत भागवतं रसमालयम्। कब तक पियो तो मुहू; बार-बार पियो। तब तक पीते रहो जब तक कृष्ण रूप न हो जाओ। रसमालयम न हो जाओ। 


किसको पिला रहे हैं। तो रसिका; भुवि भावुका; रसिक भावुक आओ पियो। देखिए प्याऊँ पर जिसको प्यास नहीं है वह नहीं आएगा, यदि आएगा तो हजारों प्रश्न पूछकर माथा गरम कर देगा। रेगिस्तान में पानी का महत्व समझ में आता है। वहाँ वह प्रश्न नहीं करेगा, फटाफट पानी से प्यास बुझाएगा। रसिक और भावुक का नाम इसीलिए लिया कि ये कृष्ण-कथा अमृत के लिए तड़प रहे हैं। उनकी पैनी निगाह लगी रहती है। कहाँ कथा हो रही है। वे कार्ड, निमंत्रण नहीं ढूँढ़ते। काकभुसुन्डी की कथा सुनने शिवजी गरुण सभी दौड़ पड़े। व्यास जी कहते हैं-- धावन्ति रस लंपटा; भगवान में जिसकी श्रद्धा नहीं, प्रेम नहीं, वे तो कथा में आते ही नहीं और कदाचित बुलाने पर आ भी गए, तो उल्टे सीधे प्रश्न करने लगते हैं। भगवान ऐसा क्यों करते हैं, भागवत में ऐसा क्यों लिखा है? अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क करके व्यास जी का भी चित्त भ्रमित न कर दे, इसलिए उन्होंने फालतू लोगों को कथा में बुलाया ही नहीं। केवल भावुक, रसिकों को ही बुलाया। प्यासे को ही पानी पिलाने में मजा आता है। 


आइए कथा के तृतीय स्कन्ध में प्रवेश करें--- 


श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ---


दुर्योधन ने जुए में पांडवों का सब कुछ हरण कर लिया। भरी सभा में विदुर को बुलाया गया। विदुर ने नीति भरा उपदेश दिया जो विदुर नीति प्रसिद्ध हुआ। दुर्योधन ने विदुर को भी अपमानित कर राज्य से बाहर निकाल दिया। विदुर तीर्थस्थान प्रभास क्षेत्र में चले गए वहाँ उद्धव से मुलाक़ात हुई। विदुर ने उद्धव से सारा समाचार पूछा। विदुर ने जब कृष्ण के बारे में पूछा, तो उद्धव ने अपने प्रियतम कृष्ण का स्मरण किया और बचपन की लीलाओं में तन्मय हो गए। उद्धव जी जब पाँच साल के थे तभी बालकों की तरह खेल खेल में ही कृष्ण की मूर्ति बनाकर सेवा-पूजा में ऐसे तन्मय हो जाते थे कि भोजन करने के लिए माँ के बुलाने पर भी छोड़कर नहीं जाते थे। उद्धव जी भाव-विभोर हो गए और कहने लगे— हे विदुर! भगवान कृष्ण के साथ रहते हुए भी हम उन्हे एक श्रेष्ठ पुरुष ही समझते रहे, उनके अंदर छिपे ब्रह्म को नहीं पहचान सके। हे विदुर! भगवान श्री कृष्ण जिन अलंकारों को धारण करते थे वे अलंकार अपना परम सौभाग्य समझते थे। कभी-कभी प्रभु अपने प्रतिबिंब पर मोहित होकर नाचने लगते थे। जो स्वयम अपनी सुंदरता पर मुग्ध हो जाए, आभूषण जिनके अंग में आकर अपना परम सौभाग्य समझे ऐसी उनकी बाँकी-झांकी थी। और स्वभाव का तो कहना ही क्या?

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अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिंघासया पाययदप्यसाध्वी .

लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोयम् कं वा दयालुं शरणम् व्रजेम..।। 


कैसा सरल स्वभाव था हमारे प्रभु का। जो अपने स्तनों में कालकूट विष लगाकर पूतना भगवान को मारने की दुर्भावना से आई, उस पापिनी पूतना के सभी पापों को नजरंदाज करके प्रभु ने उसे भी परम गति प्रदान की और कहा, कि इसने मैया यशोदा जैसा व्यवहार किया है, इसलिए इसको भी मैया की ही गति दूंगा। ऐसे परम दयालु हमारे भगवान। उनकी एक-एक लीलाओं का उद्धव जी ने वर्णन किया, स्मरण किया और विस्तार से यदुवंश की कथा विदुर जी को सुनाई। विदुर जी बोले उद्धव इतना सब हो गया और मैं तीर्थयात्रा में ही घूमता रहा। मुझे पता तक नहीं चला। पर तुम कहाँ जा रहे हो? उद्धव जी बोले विदुर! मेरा मन बहुत क्षुब्ध है, मैं तो प्रभु के बिना एक पल भी नहीं रह सकता। प्रति क्षण मैं उनके साथ रहा। अब यह जगत सूना लग रहा है। प्रभु ने अपनी चरण पादुका देकर मुझे बद्रीनाथ भेज दिया और तुम्हारे लिए एक सुखद संवाद भी है। जब प्रभु परम धाम जाने की तैयारी में थे। उस समय मुझे बुलाकर बड़ा ही मार्मिक उपदेश दिया। जब वे उपदेश दे रहे थे, वहीं महामुनि मैत्रेय जी भी बैठे थे। वह पावन उपदेश केवल हम दोनों ने ही श्रवण किया। उपदेश देने के बाद मुझसे तो कहा- जाओ! बद्रीनाथ में रहो और मैत्रेय जी से कहा-- तुमने मेरा उपदेश सुना है, मैं जब भी किसी भक्त से कुछ लेता हूँ, तो बदले में उसे कुछ न कुछ अवश्य देता हूँ। पर एक भक्त ऐसा है जिसने मुझे बहुत कुछ दिया है पर मैंने उसे आज तक कुछ नहीं दिया है। वो मेरे प्यारे भक्त हैं श्री विदुर जी महाराज। जब हस्तिनापुर में आया था तब विदुर विदुरानी ने मेरा कितना स्वागत सम्मान किया था। पर मै विदुर जी को कुछ नहीं दे पाया। इसलिए यह मेरा तत्व ज्ञान तुम्हारे पास है, जब भी विदुर से भेट हो यह अलौकिक ज्ञान उन्हे जरूर प्रदान करना। इतना सुनते ही विदुर जी के नेत्र भर आए। गद-गद हो गए। सारा जगत जिसे याद करता है, वह परम पिता परमेश्वर जाते–जाते मुझको याद करके गया। विदुर जी ने कहा- अच्छा उद्धव ! जल्दी बताओ- मैत्रेय जी कहाँ मिलेंगे? मैं जानना चाहता हूँ कि कौन-सा ज्ञान प्रभु ने मुझे दिया है। उद्धव ने कहा- हरिद्वार में गंगा के किनारे मैत्रेय से मुलाक़ात होगी। बस इतना कहकर उद्धव बद्री विशाल और विदुर जी सीधे हरिद्वार। जैसे ही मैत्रेय जी ने विदुर को देखा बोले– आओ विदुर जी मैं तो कब से आप की राह देख रहा था। प्रभु एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर डालकर गए हैं। दोनों गंगा के उस निर्मल तट पर बैठते हैं। विदुर जी ने कहा- भगवान! मैं आप से कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूँ। मेरी जिज्ञासा का समाधान करें। 


क्रमश: अगले अंक में--------------


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


- आरएन तिवारी

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