By सुखी भारती | Oct 17, 2024
भगवान श्रीराम जी जैसे ही भोलेनाथ जी को दर्शन देकर गये, उसी समय वहाँ पर सप्तऋर्षि आन पहुँचे। भगवान शंकर ने सप्तऋर्षियों के स्वागत में कहा, हे मुनिवरो! सबसे पहले तो मैं आप सबको प्रणाम करता हुँ। मेरे बड़े ही अहोभाग्य जो आप लोगों का यहाँ आगमन हुआ। अब कृपा करके आप मेरा परम कार्य सिद्ध कीजिये। आप हिमवान की पुत्री पार्वती जी के प्रेम की परीक्षा लीजिये। हिमवान को भी समझाईये, कि वे पार्वती जी को वापिस घर लिवा लाने के लिए तत्पर हों-
‘पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।
गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु।।’
भगवान शंकर के कहने पर सप्तऋर्षि माता पार्वती जी के प्रेम की परीक्षा लेने के लिए प्रस्थान करते हैं।
यहाँ एक बात बड़ी विचित्र लगी, कि माता पार्वती जी से विवाह तो भगवान शंकर को ही करना है। ऐसे में वे स्वयं परीक्षा लेने क्यों नहीं जाते हैं। भला संतों को बीच में डालने की क्या आवश्यक्ता है। केवल भगवान शंकर ही नहीं, अपितु माता पार्वती जी भी संत नारद जी के कहने पर ही, भगवान शंकर के परिणय सूत्र में बँधने के लिए ही, इतना कठिन तप करने वनों में आई थी। अर्थात वे भी अगर ईश्वर से मिलने को आतुर हुई, तो बीच में संतों को रखा। इसका बड़ा सुंदर अर्थ है। अर्थात संसार में अगर ईश्वर से मिलना है, तो संत ही हमें प्रभु के मार्ग पर अग्रसर करते हैं। उधर ईश्वर को भी जब यह समाचार मिलता है, कि कोई भक्त हमसे मिलने के लिए प्रयास कर रहा है, तो वे भी बीच में संतों को ही रखते हैं। कारण कि परमात्मा से मिलन करना है, तो बिना संतों महापुरुषों के संभव ही नहीं है।
स्मरण रखें! भगवान शंकर सप्तऋर्षियों से यही कहते हैं, कि जाकर देखो तो, जो भक्त हमारी प्राप्ति के लिए इतना कठिन तप व त्याग कर रहा है, उसका प्रेम, निष्ठा व विश्वास हमारे प्रति कितना है? कहीं ऐसा तो नहीं, कि किसी ने हमारे प्रति चार शब्द कहे, और वह तप करने के लिए निकल पड़े।
सप्तऋर्षियों ने जाकर माता पार्वती जी से यही प्रश्न पूछा, कि आप इतना भयंकर तप क्योंकर कर रही हैं? तो माता पार्वती जी ने कहा, कि हे सप्तऋर्षियो! आप मेरी बात सुन कर हँसेगे। क्योंकि मैंने श्रीनारद जी के उपदेस पर, भगवान शंकर को पति रुप में पाने की हठ कर ली है। पर्वत की पुत्री हुँ, तो स्वभाववश मेरी हठ भी पत्थर की ही भाँति कठोर है।
माता पार्वती की बात सुनकर सप्तऋर्षि हँस पड़े-
‘सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तव देह।
नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह।।’
सप्तऋर्षि बोले, कि शैलकुमारी! आप भी न बस किसकी बातों में आ गई। भला आज तक नारद जी की बातों में आकर किसी का भी घर बसा है? प्रजापति दक्ष के पुत्रें का अच्छा भला घर बसने को था। वे सब विवाह बँधन में बँधने को तैयार ही थे। लेकिन बीच में श्रीनारद जी आ गये। परिणाम यह हुआ, कि दक्ष के सभी पुत्र संन्यास को प्राप्त हो गये। चित्रकेतु के घर को श्रीनारद जी ने ही चोपट किया था। हिरण्यकशिपु का पुत्र भक्त प्रहलाद भी तो श्रीनारद जी के पीछे लग कर ही अपने पिता का बैरी बना। कह सकते हैं, कि पिता-पुत्र में शत्रु भाव की उत्पत्ति श्रीनारद जी के कारण ही हुई।
हे पार्वती! जो स्त्री-पुरुष श्रीनारद जी की सीख का पालन करते हैं, वे घर बार छोड़ कर अवश्य ही भिखारी बन जाते हैं। चलो माना कि आपने श्रीनारद जी के वचनों पर चलने की ठानी है। किंतु इतना तो सोच ही लिया होता, कि जिसे वे आपको दूल्हे के रुप में चुन रहे हैं, वह कोई गुण्ी ज्ञानी तो हो। कारण कि जिसे आप पति रुप में चुन रही हैं, वह स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर-कपालों की माला पहनने वाला, कुलहीन, बिना घर-बार का, नंगा और शरीर पर साँपों को लपेटे रखने वाला है-
‘तेहि कें बचन मानि बिस्वासा।
तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा।।
निर्गुन निलज कुबेष कपाली।
अकुल अगेह दिगंबर ब्याली।।’
माता पार्वती जी सप्तऋर्षियों के वचनों को आराम से श्रवण कर रही हैं। क्योंकि संतों के वचनों को बीच में काट कर बोलना, कभी भी उचित नहीं होता है। सप्तऋर्षियों को लगा, कि माता पार्वती जी के मुख मंडल पर भय के कोई चिन्न ही नहीं आ रहे। तब उन्होंने माता पार्वती को वह बात कही, जिसे सुन कोई भी स्त्री डर जाये-
‘कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ।
भल भूलिहु ठग के बौरएँ।।
पंच कहें किवँ सती बिबाही।
पुनि बवडेरि मराएन्हि ताही।।’
अर्थात ऐसे वर को मिलने से कहो, तुम्हें क्या सुख होगा? तुम उस ठग के बहकावे में आकर सब कुछ ही भूल गई। भोलेनाथ की एक बात तो महा आश्चर्य भरी है। वह यह कि शिवजी ने पंचों के कहने पर पहले तो सती से विवाह कर लिया, और बाद में उन्हें त्यागकर मरवा डाला।
सप्तऋर्षियों ने सोचा, कि मरने वाली बात सुनकर माता पार्वती जी शायद भयभीत हो जायेंगी। लेकिन क्या माता पार्वती जी पर सप्तऋर्षियों के इन शब्दों का प्रभाव डलता है, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---
- सुखी भारती