यूपी में सपा की साइकिल यदि पंचर हुई तो इसमें कांग्रेस के हाथ से इनकार करना मुश्किल होगा?

By कमलेश पांडे | Nov 01, 2024

यूपी उपचुनाव समाजवादी पार्टी के लिए किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं है, क्योंकि उसकी सहयोगी कांग्रेस रणछोड़ साबित हुई है। वह सपा के साथ है, क्योंकि तस्वीरों में दिख रही है, बयानों में झलक रही है; लेकिन वह दिल से सपा के साथ नहीं है, क्योंकि यूपी उपचुनाव की 9 सीटों में से सपा द्वारा ऑफर की हुई महज 2-3 सीटें लड़ना कांग्रेस को गंवारा नहीं था। शायद इसलिए कि उसके नेता राहुल गांधी के पास राजनैतिक विरासत और सियासी महत्वाकांक्षा की वह अचल पूंजी है, जो पूरी यूपी जीतकर भी अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी हासिलनहीं कर सकती, और ऐसा करना भी उसके लिए असंभव है।


यह सपा की रणनीतिक खामियों का ही तकाजा है कि वह यूपी की चौखट से बाहर अपने पांव नहीं जमा पाई और यहां पर भी उसकी कोई जीत स्थायी नहीं रह पाई। वह इस बात को भी समझने के लिए तैयार नहीं है कि सूबाई राजनीति में बसपा और राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के बिना उसका कोई वजूद नहीं समझा जाएगा, भले ही वह देश की तीसरी बड़ी पार्टी क्यों नहीं बन गई हो। भाजपा से वह सियासी सम्बन्ध बना नहीं सकती, क्योंकि उसका एमवाई समीकरण टूट जाएगा। 

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अभी वह जिस पीडीए (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) का दम्भ भर रही है, वह तभी तक सार्थक प्रतीत होगा, जबतक कि कांग्रेस का वरदहस्त उसके ऊपर रहेगा। उसे यह सोचना चाहिए कि उसके बाद अस्तित्व में आई आम आदमी पार्टी की दो राज्यों में सरकार है, जबकि यूपी की सत्ता में कई बार आकर भी वह आज बेदखल है। वह समाजवादी मूल की राष्ट्रीय व प्रादेशिक धड़ों को आजतक एकजुट नहीं कर पाई है, जिससे कांग्रेस से दो टूक बातचीत करने लायक बने।


बहुत कम लोगों को पता होगा कि लोकसभा चुनाव के बाद सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने अपनी सहयोगी कांग्रेस के नेताओं से ऑफ द रिकॉर्ड कहा था कि आप धन्यवाद यात्रा अविलंब रोक दें, क्योंकि यूपी के कांग्रेस प्रभारी अविनाश पांडेय और प्रदेश अध्यक्ष आज राय के नेतृत्व में लोकसभा प्रत्याशियों द्वारा चालू की उस यात्रा में सवर्ण ज्यादा सक्रिय थे, ओबीसी-दलित-अल्पसंख्यक कम, जबकि वहीं गठबंधन के मुख्य वोटर रहे हैं। 


गौर करने वाली बात यह है कि अखिलेश यादव व उनके समर्थकों ने तब दबी जुबान में कहा था कि सवर्णों ने उन्हें वोट नहीं दिया है। यह बात कांग्रेस नेताओं को नागवार गुजरी थी, क्योंकि भाजपा की ओबीसी राजनीति से निराश सवर्णों ने कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन को रणनीतिक रूप से थोक भाव में वोट दिया था। हां, इस समझदार वर्ग ने कांग्रेस गठबंधन के उन नेताओं को वोट नहीं दिया, जो अल्पसंख्यक, दलित और ओबीसी राजनीति के लिए स्थानीय तौर पर बदनाम हैं और सवर्ण विरोधी राजनीति करते हैं। 


वहीं, यूपी के ओबीसी, दलित और अल्पसंख्यक मतदाताओं ने कांग्रेस और सपा के सवर्ण नेताओं का साथ नहीं दिया। अन्यथा कांग्रेस के सवर्ण नेता व सपा के सवर्ण नेता हारते नहीं। इसी वजह से यूपी में कांग्रेस-सपा गठबंधन को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। फिर भी योगी की भाजपा के मुकाबले सपा-कांग्रेस गठबंधन का लगभग आधा सीट यानी 40 से ज्यादा जीत लेना किसी चमत्कार से कम नहीं था। इसलिए अखिलेश यादव में भी राजनीतिक घमंड पुनः आ गया। 


बता दें कि इसी राजनीतिक घमंड के चलते तो उनके पिता और पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव, जो सपा के संस्थापक थे, का राजनीतिक पतन हुआ था। उनके पुत्र अखिलेश यादव को 2012-17 तक यूपी का मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य मिला था, लेकिन सत्तागत घमंड और पारिवारिक अंतर्कलह से न तो 2017 में उनकी पुनर्वापसी हो सकी और न ही 2022 को वो जीत पाए। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी उनका प्रदर्शन ठीक नहीं रह।


राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि 2022 के विधानसभा चुनाव में भी सपा ने कांग्रेस से गठबंधन कर लिया होता तो आज उसी तरह से सत्ता में होती, जैसे कि लोकसभा चुनाव 2024 में सफल हुई। लेकिन अब फिर यूपी उपचुनाव 2024 में अखिलेश यादव ने यूपी में कांग्रेस को कमतर आंकने की कोशिश की है, जो उन पर भारी पड़ेगी।


कांग्रेस सूत्र बताते हैं कि अखिलेश यादव यदि कांग्रेस प्लस इंडिया गठबंधन के प्रति सहज होते तो कांग्रेस उन्हें महत्व देती, लेकिन उनकी वजह से कांग्रेस न तो बसपा को जोड़ पाई और न ही रालोद उनके साथ जुड़ा रहा। इसलिए 2024 में पार्टी की बनी बनाई बिखर गई। यूपी-बिहार में उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली। 


यही वजह है कि कांग्रेस ने सपा को उन्हें मध्यप्रदेश से लेकर हरियाणा तक नजरअंदाज किया। वहीं, यूपी में 9 में से 4-5 सीटें मांगकर और नहीं मिलने पर सियासी रूप से रणछोड़ की मुद्रा अख्तियार कर कांग्रेस के प्रदेश नेतृत्व ने उन्हें इस बात का संकेत दे दिया है कि यूपी उपचुनाव परिणाम 2024 ही तय करेगा कि 2027 का सत्ताधीश कौन होगा? और कांग्रेस लगभग 50 प्रतिशत सीटें मांगेगी या लोकसभा चुनाव 2024 की तरह विधानसभा चुनाव 2027 में भी जो सपा देगी, उसी से संतुष्ट रह जायेगी। 


जानकार बता रहे हैं कि कांग्रेस को यदि यूपी-बिहार में जमना है तो सपा और राजद की हठधर्मिता से आगे घुटने नहीं टेकने होंगे, बल्कि इनसे आगे की ओर सोचना होगा! चूंकि कांग्रेस को लोग भाजपा के विकल्प के रूप में देखते और विचारते हैं, इसलिए राष्ट्रीय मुद्दों व क्षेत्रीय मुद्दों पर उसे अपने प्रगतिशील विचार रखने होंगे, जो कि अबतक नहीं रख पाई है। 


कड़वा सच यह भी है कि जवाहरलाल नेहरू और इन्दिरा गांधी के मुकाबले राजीव गांधी और राहुल गांधी पार्टी के कमजोर नेता इसलिए प्रतीत हुए, क्योंकि इनकी गलत नीतियों की वजह से ही क्षेत्रीय दल इन पर हावी हो गए। वहीं, पीवी नरसिम्हा राव से लेकर मनमोहन सिंह ने अपनी सत्ता के लिए कांग्रेस को जो पराधीन बनाने की भूल की, उससे भाजपा को एक मजबूत राजनीतिक जमीन मिल गई। 


ऐसा इसलिए कि भारतीय मतदाता राष्ट्रवादी और प्रगतिशील सोच रखते हैं, जबकि क्षेत्रीय दल क्षुद्र जातीय व साम्प्रदायिक सोच-समीकरण, जिससे पहले कांग्रेस परेशान रही और अब भाजपा। भारत के चुनावी इतिहास की यह कड़वी हकीकत है कि जाति-धर्म-क्षेत्र आपको क्षणिक लाभ दे सकते हैं, लेकिन जब इनका आपसी टकराव बढ़ेगा तो यही आपको डुबो भी सकते हैं। 


यह कौन नहीं जानता कि केंद्र की सत्ता तक पहुंचने वाली पहली गैर कांग्रेस पार्टी, जनता पार्टी (1977), जनता दल (1989), संयुक्त मोर्चा (1996) के उत्थान-पतन में जातीय, क्षेत्रीय और साम्प्रदायिक राजनीति की बड़ी भूमिका रही है। वहीं, कांग्रेस के लिए सुकून की बात यह है कि भाजपा उसकी ट्रू कॉपी बनती जा रही है, इसलिए देर-सबेर कांग्रेस केंद्रीय सता में लौटेगी ही। लेकिन अपनी मौजूदा सोच-समझ ने नहीं, क्योंकि इसी वजह से तो कांग्रेस पतनोन्मुख हुई। 


कांग्रेसी रणनीतिकारों की समझदारी अब इसी बात में है कि वह तुष्टीकरण की राजनीति छोड़कर समावेशी विकास हेतु सुव्यवस्था, जनता की सर्वकालिक सुरक्षा और रणनीतिक सहनशीलता को मुद्दा बनाकर भारतीय संविधान और नियम-कानूनों पर सर्जिकल स्ट्राइक करने की नीतिगत घोषणा करें, जिसकी शुरुआत राहुल गांधी ने यह कहकर कर दी है कि सत्ता में आये तो आरक्षण भी हटा सकते हैं। 


भारतीय संविधान और नियम-कानूनों पर सर्जिकल स्ट्राइक इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि एक ओर जहां कुछ नियम-कानून पूंजीपतियों के हित में ज्यादा झुका दिए गए हैं, वहीं कुछ कानून ओबीसी, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक वर्ग के हित में ज्यादा झुके हुए हैं। इससे समावेशी विकास की अवधारणा कुंद हो रही है। इससे देश को उबारने की जो कोशिश करेगा, वही देश में एक और मजबूत सियासी बदलाव का वाहक बनेगा।


रही बात यूपी उपचुनाव की तो अखिलेश यादव और सपा की डगर इसलिए कठिन है कि योगी आदित्यनाथ अब उपमुख्यमंत्री के पी मौर्य की चाल समझ चुके हैं और उसकी काट के तौर पर अमित शाह से कोई समझौता करने के मूड में नहीं हैं, यह बात आरएसएस प्रमुख तक को बता चुके हैं। इससे पीएम मोदी भी सहमत हैं। टिकट वितरण में यह बात स्पष्ट दिखाई पड़ी है। भाजपा ने भी डीपीए यानी दलित, पिछड़ा और अगड़े की चाल चल दी है। इसलिए सवर्ण वोटर अब इंडिया गठबंधन से दूर रहेंगे। क्योंकि सपा ने टिकट वितरण में उन्हें तवज्जो नहीं दी है। कांग्रेस का  नकारात्मक संदेश मीडिया के माध्यम से उनके पास पहुंच चुका है। 


इसलिए अब देखना है कि पीडीए के बल पर यूपी में सपा कितनी सियासी उछलकूद कर पाएगी, या फिर 27 का सत्ताधीश कांग्रेस के इशारे पर 2027 में भी थिरकने को मजबूर होगा। कांग्रेस आज भी सपा से ज्यादा बसपा को पसंद करती है, लेकिन मायावती की हठधर्मिता से वह सपा के साथ जाने को मजबूर हुई है। इसलिए यह मजबूरी का गठबंधन इससे ज्यादा मजबूत कभी नहीं होगा, यही सियासी हकीकत है। 


वहीं, बटेंगे तो कटेंगे जैसा योगी का नारा यूपी उपचुनाव पर पूरा असर डालेगा, ऐसा राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है। इसलिए सायकिल को पंचर करने में हाथ की कितनी भूमिका होगी, सवर्ण और अल्पसंख्यक मतदाताओं का मूड तय करेगा। क्योंकि पहलीबार बसपा भी मजबूती से उपचुनाव लड़ रही है, इसलिए दलित मतों का बिखराव तय है। इसके बिखरते ही साइकिल पंचर होगी और हाथ वाली पार्टी कांग्रेस को इसे बनाने को कहेगी। 


2024 के लोकसभा चुनाव में भी तो यही हुआ था। बुआ-बबुआ को एक घाट पर पानी पिलाने में कांग्रेस पिछड़ गई और उसका हाथ मचक गया! इससे सियासी दर्द रह रह कर उसे महसूस होती है। पर दवा फिलहाल तो नदारत है।


- कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

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