चांद पर मौजूद क्रेटर का नाम कैसे पड़ा ‘मित्रा’

By उमाशंकर मिश्र | Aug 27, 2019

नई दिल्ली।इंडिया साइंस वायर: चांद पर खोजी गई हजारों विशेषताओं के नाम विख्यात वैज्ञानिकों, अंतरिक्ष यात्रियों और भौतिक विज्ञानियों के नाम पर रखे जाते हैं। 

 

चंद्रयान-2 की नवीनतम तस्वीरों में जो विभिन्न क्रेटर दिख रहे हैं, उनमें से एक ‘मित्रा क्रेटर’ है। 1970 के दशक में इस क्रेटर का नाम प्रसिद्ध भारतीय भौतिकशास्त्री और रेडियो विज्ञानी प्रोफेसर शिशिर कुमार मित्रा के नाम पर रखा गया था। चंद्रमा पर और भी ऐसे क्रेटर हैं, जो भारतीय वैज्ञानिकों के नाम से जाने जाते हैं। इनमें भाभा क्रेटर, साराभाई क्रेटर, सी.वी. रामन क्रेटर और जे.सी. बोस क्रेटर शामिल हैं। चंद्रमा के एक क्रेटर का नाम प्राचीन खगोलशास्त्री आर्यभट्ट के नाम पर भी है। 

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यह जानना दिलचस्प है कि ‘मित्रा क्रेटर’ का व्यास 92 किलोमीटर है। मगर, इस क्रेटर की गहराई का पता अभी तक नहीं लगाया जा सका है। इसी से, चांद पर मौजूद गड्ढों के विशालकाय आकार का अंदाजा लगा सकते हैं। खगोलीय पिंडों की सतह पर अंतरिक्ष से किसी उल्कापिंड के गिरने, ज्वालामुखी फटने, भूगर्भ में विस्फोट या फिर अन्य किसी विस्फोटक ढंग से बनने वाले लगभग गोल आकार के विशाल गड्ढे क्रेटर कहे जाते हैं। 

 

क्रेटर कई प्रकार के होते हैं, जिनमें प्रहार क्रेटर, ज्वालामुखीय क्रेटर, धंसाव क्रेटर, विस्फोट क्रेटर, बिल क्रेटर और मार क्रेटर शामिल हैं। चंद्रमा के उत्तरी ध्रुवीय क्षेत्र में चंद्रयान-2 के टरेन मैपिंग कैमरे में कैद किया गया ‘मित्रा’ एक प्रहार या इम्पैक्ट क्रेटर है। 

 

जब अत्यधिक रफ्तार से गिरता कोई छोटा पिंड किसी दूसरे बड़े पिंड की सतह से टकराता है तो प्रहार क्रेटर बनते हैं। ज्वालामुखी फटने से ज्वालामुखी क्रेटर, जमीन धंसने से धंसाव क्रेटर, खौलते लावा में पानी मिलने से मार क्रेटर, जमीन के नीचे के खाली स्थान या गुफा की छत के गिरने से बिल क्रेटर और जमीन के नीचे विस्फोट से मलबा बाहर निकलने पर विस्फोट क्रेटर बनते हैं।

 

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने चंद्रयान-2 द्वारा ली गई तस्वीरें साझा करते हुए कहा है कि चांद की सतह की इन तस्वीरों में ‘मित्रा क्रेटर’ के अलावा, सोमरफेल्ड, किर्कवुड, जैक्सन, माक, कोरोलेव, प्लासकेट, रोझदेस्तवेंस्की और हर्माइट नामक विशालकाय गड्ढों की तस्वीरें हैं। 

 

‘मित्रा क्रेटर’ को यह नाम प्रोफेसर मित्रा की मृत्यु के सात साल बाद 1970 में ग्रहों की प्रणाली का नामकरण करने वाले इंटरनेशनल एस्ट्रोनॉमिकल यूनियन (आईएयू) के कार्य समूह डब्ल्यूजीपीएसएन द्वारा दिया गया था। यह घोषणा उस समय की गई, जब भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम आकार ले रहा था। 

 

लगभग 100 साल पहले स्थापित, आईएयू 100 से अधिक देशों के खगोलविदों का दुनिया में सबसे बड़ा संगठन है। जब किसी ग्रह या उपग्रह की सतह की पहली छवियां प्राप्त होती हैं, तो आईएयू कार्य समूह के सदस्यों द्वारा कुछ विशिष्ट नामों की सिफारिश की जाती है। सुझाए गए नामों की समीक्षा टास्क फोर्स द्वारा की जाती है और फिर प्रस्तावित नाम कार्य समूह को सौंप दिए जाते हैं, जहां वोटिंग के आधार पर उपयुक्त नाम का चयन किया जाता है। 

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वर्ष 1962 में पद्म भूषण से सम्मानित प्रोफेसर शिशिर कुमार मित्रा, आयनमंडल (वायुमंडल के ऊपरी क्षेत्र) और रेडियोफिजिक्स के क्षेत्र में भारत में होने वाले शुरुआती अनुसंधान कार्यों का नेतृत्व किया। वह भारत में रेडियो विज्ञान में स्नातकोत्तर शिक्षा एवं अनुसंधान की शुरुआत करने वाले पहले व्यक्ति थे।

 

मित्रा ने 1926 में कलकत्ता के यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ साइंस में अपनी प्रयोगशाला से रेडियो कार्यक्रम प्रसारित किए। वर्ष 1927 में इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी, जिसे बाद में ऑल इंडिया रेडियो के रूप में नामित किया गया, के गठन से पहले, यह पहली बार था, जब किसी गैर-पेशेवर रेडियो स्टेशन द्वारा भारत में रेडियो कार्यक्रमों का नियमित प्रसारण किया जा रहा था। 

 

24 अक्तूबर 1980 को कोलकाता में जन्मे प्रोफेसर मित्रा ने ऊपरी वायुमंडल के बारे में हमारे ज्ञान में बढ़ोत्तरी करने में उल्लेखनीय योगदान दिया है। वर्ष 1947 में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल (अब द एशियाटिक सोसायटी) द्वारा प्रकाशित मित्रा के शोध प्रबंध द अपर एटमॉस्फियर को विश्वभर में सराहा गया। ब्रिटिश भौतिक विज्ञानी सर एडवर्ड विक्टर ने इसे ‘पहला उत्कृष्ट प्रयास’ कहा था।

  

प्रोफेसर मित्रा ने वर्ष 1947 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में इलेक्ट्रॉनिक्स एवं रेडियो भौतिकी के स्वतंत्र विभाग स्थापित किए, जो बाद में इंस्टिट्यूट ऑफ रेडियो फिजिक्स ऐंड इलेक्ट्रॉनिक्स के रूप में सामने आया। उन्होंने भारत में पहला आयनमंडलीय स्टेशन भी स्थापित किया। प्रोफेसर मित्रा ने अखिल भारतीय रेडियो अनुसंधान संगठन की आवश्यकता को महसूस किया, जिसके परिणामस्वरूप भारत सरकार ने उन्हीं के नेतृत्व में एक रेडियो रिसर्च कमेटी का वर्ष 1942 में गठन किया। 

 

अपने शोध कार्यों के जरिये महत्वपूर्ण योगदान देने और वैज्ञानिक परियोजनाओं का नेतृत्व करने वाले इस प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने 13 अगस्त 1963 को दुनिया को अलविदा कह दिया। 

 

(इंडिया साइंस वायर)

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