सूचना का अधिकार कानून क्या है ? RTI के जरिये कैसे जल्द सूचना प्राप्त कर सकते हैं ?

By कमलेश पांडे | Oct 29, 2019

किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में आमलोगों को 'सूचना का अधिकार' प्रदान करने का तात्पर्य होता है, जनभागीदारी सुनिश्चित करने की दिशा में उठाया गया सराहनीय कदम। क्योंकि किसी भी संवैधानिक सत्ता से समुचित सूचना पाने का जो अधिकार पहले सिर्फ जनप्रतिनिधियों के पास होता है, वही कमोबेश इस कानून के माध्यम से जनता में भी हस्तांतरित कर दिया गया है। 

 

यदि आम लोगों के द्वारा इसका सदुपयोग किया जाए तो सत्ता संरक्षित भ्रष्टाचार में काफी कमी आ सकती है। इससे विकास और सुशासन की अवधारणा परिपुष्ट होती है। लेकिन यदि इसका किसी भी प्रकार से दुरुपयोग किया जाए अथवा दुश्मन देशों से एकत्रित आंकड़े व जानकारियां साझा की जाने लगें तो किसी भी शासन द्वारा स्थापित व्यवस्था की स्वाभाविक गति भी अवरुद्ध हो सकती है। 

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शायद यही वजह है कि राष्ट्रीय सुरक्षा, एकता व अखंडता जैसे कतिपय अहम पहलुओं के मद्देनजर कुछ सूचनाओं को मांगने का जनता का अधिकार ही इस कानून में कानूनन प्रतिबंधित कर दिया गया है।

 

वर्ष 2005 में भारत में अस्तित्व में आया सूचना का अधिकार कानून

 

15 जून 2005 को भारत में सूचना का अधिकार कानून को अधिनियमित किया गया और पूर्णतया 12 अक्टूबर 2005 को सम्पूर्ण धाराओं के साथ लागू कर दिया गया। सूचना का अधिकार को अंग्रेजी में राईट टू इन्फॉरमेशन कहा जाता है, जिसका तात्पर्य है, सूचना पाने का अधिकार। जो सूचना अधिकार कानून लागू करने वाला राष्ट्र अपने नागरिकों को प्रदान करता है। सूचना के अधिकार के द्वारा राष्ट्र अपने नागरिकों को अपनी कार्य प्रणाली और शासन प्रणाली को सार्वजनिक करता है।

 

किसी भी लोकतंत्र में देश की जनता अपने चुने हुए व्यक्ति को शासन करने का अवसर प्रदान करती है और उनसे यह अपेक्षा करती है कि सरकार पूरी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के साथ अपने सभी दायित्वों का पालन करेगी। लेकिन, बदलती परिस्थितियों में अधिकांश राष्ट्रों ने अपने दायित्वों का गला घोंटते हुए पारदर्शिता और ईमानदारी की बोटियां नोंचने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, लगे हाथ भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े कीर्तिमान कायम करने के लिए एक भी मौका अपने हाथ से गंवाना नहीं भूले, तब जाकर सूचना का अधिकार कानून की अहमियत समझी गई और इसे लागू करने के लिए एक सार्थक मुहिम चलाई गई। 

 

दरअसल, भ्रष्टाचार के विभिन्न कीर्तिमानों को स्थापित करने के लिए सत्ताधारी जमात द्वारा हर वो कार्य किया जाता है, जो जनविरोधी और अलोकतांत्रिक हैं। क्योंकि तब सरकारें यह भूल जाती हैं कि जनता ने उन्हें चुना है जो देश की असली मालिक है एवं सरकार उनकी चुनी हुई नौकर। इसलिए मालिक होने के नाते जनता को यह जानने का पूरा अधिकार है कि जो सरकार उनकी सेवा में है, वह क्या कर रही है ?

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आमतौर पर प्रत्येक नागरिक सरकार को किसी न किसी माध्यम से टैक्स देते हैं। यही टैक्स देश के विकास और व्यवस्था की आधारशिला को निरन्तर स्थिर रखता है। इसलिए जनता को यह जानने का पूरा हक है कि उसके द्वारा दिया गया पैसा कब, कहाँ और किस प्रकार खर्च किया जा रहा है ? इसके लिए यह जरूरी है कि सूचना को जनता के समक्ष रखने एवं उसको यह प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया जाए, जो कि एक कानून के द्वारा ही सम्भव है।

 

अंग्रेजों ने 1923 में बनाया था शासकीय गोपनीयता अधिनियम

 

अंग्रेजों ने भारत पर लगभग 250 वर्षों तक शासन किया। इसी दौरान शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 बनाया गया, जिसके अन्तर्गत सरकार को यह अधिकार हो गया कि वह किसी भी सूचना को गोपनीय कर सकेगी। लेकिन, सन् 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने बाद 26 जनवरी 1950 को नया संविधान लागू हुआ। लेकिन हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में सूचना के अधिकार का कोई वर्णन नहीं किया और न ही अंग्रेजों द्वारा बनाए हुए शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 में संशोधन किया। जिसके चलते देश में आने वाली सरकारों ने गोपनीयता अधिनियम 1923 की धारा 5 व 6 के प्रावधानों का लाभ उठकार जनता से सूचनाओं को छुपाया और अपनी मनमानी थोपती रही।

 

लिहाजा, सूचना के अधिकार के प्रति सजगता वर्ष 1975 की शुरूआत में “उत्तर प्रदेश सरकार बनाम राज नारायण” से हुई, जिसकी सुनवाई उच्चतम न्यायालय में हुई। इसी दौरान न्यायालय ने अपने आदेश में लोक प्राधिकारियों द्वारा सार्वजनिक कार्यों का ब्यौरा जनता को प्रदान करने की व्यवस्था दी। उसके इस निर्णय ने नागरिकों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दायरा बढ़ाकर सूचना के अधिकार को शामिल कर दिया।

 

फिर, वर्ष 1982 में द्वितीय प्रेस आयोग ने शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 की विवादास्पद धारा 5 को निरस्त करने की सिफारिश की थी, क्योंकि इसमें कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया था कि 'गुप्त’ क्या है और 'शासकीय गुप्त बात’ क्या है? इसलिए परिभाषा के अभाव में यह सरकार के निर्णय पर निर्भर था कि कौन-सी बात को गोपनीय माना जाए और किस बात को सार्वजनिक किया जाए। तत्पश्चात, बाद के वर्षों में साल 2006 में ’वीरप्पा मोइली’ की अध्यक्षता में गठित 'द्वितीय प्रशासनिक आयोग’ ने इस कानून को निरस्त करने का सिफारिश की।

 

भारत में राजस्थान से शुरू हुई सूचना का अधिकार पाने की सुगबुगाहट और कशमकश

 

सूचना के अधिकार की मांग सर्वप्रथम राजस्थान से प्रारम्भ हुई। इसके लिए 1990 के दशक में जनान्दोलन की शुरूआत हुई, जिसमें मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) ने अरूणा राय की अगुवाई में भ्रष्टाचार के भांडाफोड़ के लिए जनसुनवाई कार्यक्रम शुरू किया। क्योंकि 1989 में कांग्रेस की केंद्र सरकार के पतन के बाद निर्वाचित जनता दल सरकार, जिसे बीजेपी ने बाहर से समर्थन दिया था, वह प्रधानमंत्री वीपी सिंह के नेतृत्व में सत्ता में आई, जिसने सूचना का अधिकार कानून बनाने का वायदा किया था।

 

3 दिसम्बर 1989 को अपने पहले संदेश में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने संविधान में संशोधन करके सूचना का अधिकार कानून बनाने तथा शासकीय गोपनीयता अधिनियम में संशोधन करने की घोषणा की थी। लेकिन वीपी सिंह की सरकार अपनी तमाम कोशिशें करने के बावजूद इसे लागू नहीं कर सकी और यह सरकार भी ज्यादा दिन तक केंद्र में नहीं टिक सकी।

 

उसके बाद वर्ष 1997 में केन्द्र सरकार ने एच.डी. शौरी की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की, जिसके बाद मई 1997 में सूचना की स्वतंत्रता का प्रारूप प्रस्तुत किया, पर शौरी कमेटी के इस प्रारूप को संयुक्त मोर्चे की दो सरकारों ने दबाए रखा। फिर, वर्ष 2002 में संसद ने 'सूचना की स्वतंत्रता विधेयक (फ्रीडम ऑफ इन्फॉरमेशन बिल) पारित किया। इसे जनवरी 2003 में राष्ट्रपति की मंजूरी मिली, लेकिन इसकी नियमावली बनाने के नाम पर इसे लागू नहीं किया गया।

 

पुनः, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में किए गए वायदे के तहत पारदर्शिता युक्त शासन व्यवस्था एवं भ्रष्टाचार मुक्त समाज बनाने के लिए 12 मई 2005 को सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 संसद में पारित किया, जिसे 15 जून 2005 को राष्ट्रपति की अनुमति मिली और अन्ततः 12 अक्टूबर 2005 को यह कानून जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू किया गया। इसी के साथ सूचना की स्वतंत्रता विधेयक 2002 को निरस्त कर दिया गया।

 

इस कानून को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने से पूर्व नौ राज्यों ने इसे पहले से लागू कर रखा था, जिनमें तमिलनाडु और गोवा ने 1997, कर्नाटक ने 2000, दिल्ली ने 2001, असम, मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं महाराष्ट्र ने 2002 तथा जम्मू-कश्मीर ने 2004 में लागू कर दिए थे।

 

सूचना का अभिप्राय क्या है ? सूचना का अधिकार के अंतर्गत आने वाली महत्वपूर्ण बातें क्या हैं ?

 

सूचना का अभिप्राय विभिन्न रिकॉर्ड, दस्तावेज, ज्ञापन, ई-मेल, विचार, सलाह, प्रेस विज्ञप्तियाँ, परिपत्र, आदेश, लॉग पुस्तिका, ठेके सहित कोई भी उपलब्ध सामग्री से है, जिसे निजी निकायों से सम्बन्धित तथा किसी लोक प्राधिकरण द्वारा उस समय के प्रचलित कानून के अन्तर्गत प्राप्त किया जा सकता है।

 

जबकि, सूचना का अधिकार के अन्तर्गत निम्नलिखित बिन्दु आते हैं- पहला, कार्यों, दस्तावेजों, रिकॉर्डों का निरीक्षण। दूसरा, दस्तावेज या रिकॉर्डों की प्रस्तावना, सारांश, नोट्स व प्रमाणित प्रतियाँ प्राप्त करना। तीसरा, सामग्री के प्रमाणित नमूने लेना। चौथा, प्रिंट आउट, डिस्क, फ्लॉपी, टेप, वीडियो कैसेटों के रूप में या कोई अन्य इलेक्ट्रानिक रूप में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। 

 

सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के प्रमुख प्रावधान इस प्रकार हैं- पहला, समस्त सरकारी विभाग, पब्लिक सेक्टर यूनिट, किसी भी प्रकार की सरकारी सहायता से चल रही गैर सरकारी संस्थाएं व शिक्षण संस्थान आदि विभाग इसमें शामिल हैं। पूर्णतया निजी संस्थाएं इस कानून के दायरे में नहीं हैं। लेकिन यदि किसी कानून के तहत कोई सरकारी विभाग किसी निजी संस्था से कोई जानकारी मांग सकता है तो उस विभाग के माध्यम से वह सूचना मांगी जा सकती है।

 

दूसरा, प्रत्येक सरकारी विभाग में एक या एक से अधिक जनसूचना अधिकारी बनाए गए हैं, जो सूचना के अधिकार के तहत आवेदन स्वीकार करते हैं, मांगी गई सूचनाएं एकत्र करते हैं और उसे आवेदनकर्ता को उपलब्ध कराते हैं। 

 

तीसरा, जनसूचना अधिकारी का दायित्व है कि वह 30 दिन अथवा जीवन व स्वतंत्रता के मामले में 48 घण्टे के अन्दर (कुछ मामलों में 45 दिन तक) मांगी गई सूचना उपलब्ध कराए। 

 

चतुर्थ, यदि जनसूचना अधिकारी आवेदन लेने से मना करता है, तय समय सीमा में सूचना नहीं उपलब्ध कराता है अथवा गलत या भ्रामक जानकारी देता है तो देरी के लिए 250 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से 25,000 तक का जुर्माना उसके वेतन में से काटा जा सकता है। साथ ही, उसे सूचना भी देनी होगी।

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पांचवां, लोक सूचना अधिकारी को यह अधिकार नहीं है कि वह आपसे सूचना मांगने का कोई भी कारण पूछेगा। 

 

छठा, सूचना मांगने के लिए आवेदन फीस देनी होगी, जिसके लिए केन्द्र सरकार ने आवेदन के साथ 10 रुपए की फीस तय की है। लेकिन कुछ राज्यों में यह अधिक है, जबकि बीपीएल कार्डधारकों को आवेदन शुल्क में छूट प्राप्त है। 

 

सातवां, दस्तावेजों की प्रति लेने के लिए भी फीस देनी होगी। केन्द्र सरकार ने यह फीस 2 रुपए प्रति पृष्ठ रखी है, लेकिन कुछ राज्यों में यह अधिक है। अगर सूचना तय समय सीमा में नहीं उपलब्ध कराई गई है तो सूचना मुफ्त दी जायेगी। 

 

आठवां, यदि कोई लोक सूचना अधिकारी यह समझता है कि मांगी गई सूचना उसके विभाग से सम्बंधित नहीं है तो उसका कर्तव्य है कि उस आवेदन को पांच दिन के अन्दर सम्बंधित विभाग को भेजे और आवेदक को भी सूचित करे। ऐसी स्थिति में सूचना मिलने की समय सीमा 30 की जगह 35 दिन होगी। 

 

नवम, लोक सूचना अधिकारी यदि आवेदन लेने से इंकार करता है अथवा परेशान करता है तो उसकी शिकायत सीधे सूचना आयोग से की जा सकती है। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचनाओं को अस्वीकार करने, अपूर्ण, भ्रम में डालने वाली या गलत सूचना देने अथवा सूचना के लिए अधिक फीस मांगने के खिलाफ केन्द्रीय या राज्य सूचना आयोग के पास शिकायत कर सकते हैं। 

 

दशम, जनसूचना अधिकारी कुछ मामलों में सूचना देने से मना कर सकता है। जिन मामलों से सम्बंधित सूचना नहीं दी जा सकती, उनका विवरण सूचना के अधिकार कानून की धारा 8 में दिया गया है। लेकिन यदि मांगी गई सूचना जनहित में है तो धारा 8 में मना की गई सूचना भी दी जा सकती है। खासकर वो सूचना जिसे संसद या विधानसभा को देने से मना नहीं किया जा सकता। उसे किसी आम आदमी को भी देने से मना नहीं किया जा सकता है। 

 

ग्यारह, यदि लोक सूचना अधिकारी निर्धारित समय-सीमा के भीतर सूचना नहीं देते हैं या धारा 8 का गलत इस्तेमाल करते हुए सूचना देने से मना करते हैं, या फिर दी गई सूचना से सन्तुष्ट नहीं होने की स्थिति में 30 दिनों के भीतर सम्बंधित जनसूचना अधिकारी के वरिष्ठ अधिकारी यानि प्रथम अपील अधिकारी के समक्ष प्रथम अपील की जा सकती है। 

 

बारह, यदि आप प्रथम अपील से भी सन्तुष्ट नहीं हैं तो दूसरी अपील 60 दिनों के भीतर केन्द्रीय या राज्य सूचना आयोग (जिससे सम्बंधित हो) के पास करनी होती है।

 

-कमलेश पांडे

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार हैं)

 

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