कानूनी दायरे में कैसे लाए जाएं चुनावी वायदे

By उमेश चतुर्वेदी | Nov 21, 2024

चुनाव घोषणा पत्रों में किए वायदों को पूरा न कर पाने को लेकर सत्ता में आने वाला हर राजनीतिक दल मतदाताओं और विपक्षी दलों के निशाने पर रहा है। मतदाताओं की बढ़ती जागरूकता के चलते इन आलोचनाओं से बचने के लिए राजनीतिक दलों ने अब चुनाव घोषणा पत्र जारी करना बंद कर दिया है। 2012 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में उतरी कांग्रेस ने राज्य के लिए विजन डाक्युमेंट जारी किया। इसके बाद सभी दलों ने चुनाव घोषणा पत्र के शीर्षक को तकरीबन त्याग दिया। अब भारतीय जनता पार्टी हर चुनाव के पहले संकल्प पत्र जारी करती है तो कांग्रेस अब गारंटियां देने लगी हैं। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में पार्टी ने पांच गारंटी देने का वादा किया। जो उसके लिए बहुत हिट रहा। अब पार्टियां गारंटी देती हैं, दृष्टि पत्र प्रस्तुत करती हैं और संकल्प पत्र प्रस्तुत करती हैं। गारंटी और संकल्प जैसे शब्द एक तरह से गवाह हैं कि राजनीतिक दलों के वायदों को लेकर मतदाताओं का एक बड़ा अब आलोचनात्मक रूख ही नहीं रखता है, बल्कि उन पर भरोसा भी नहीं करता।


घोषणा पत्र भले ही अब गारंटी या दृष्टि या संकल्प पत्र में तबदील हो गए हों, लेकिन अब भी उनकी साख नहीं बन पाई है। इसकी वजह यह है कि कई बार राजनीतिक दल वोटरों को लुभाने के चक्कर में ऐसे भी वायदे कर डालते हैं, जिन्हें पूरा कर पाना उनके लिए संभव नहीं होता। राजनीतिक दल भी जानते हैं कि संकल्प, दृष्टि या गारंटी पत्र में दिए वायदों को शत-प्रतिशत पूरा करना संभव नहीं है और अगर वे करते भी हैं तो सरकारी अर्थव्यवस्था का चरमरा सकती है। फिर वे वायदे करते हैं या कह सकते हैं कि सत्ता के लक्ष्य को लेकर चलने वाली मौजूदा राजनीति की यह मजबूरी भी है।

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चुनाव घोषणा पत्रों और आज के दृष्टि और संकल्प पत्रों में किए वायदों और उन्हें लागू किए जाने को लेकर ठोस शोध जरूरी है। लेकिन मोटे तौर पर इनमें दर्ज ज्यादातर वायदे पूरे हो ही नहीं पाते। इसलिए मतदाताओं के एक वर्ग अलग ढंग से सोचने लगा है। मतदाताओं के एक वर्ग का मानना है कि चाहे जिस भी फ्रेम में चुनाव घोषणा पत्र जारी हों, उन्हें उपभोक्ता कानून के दायरे में लाना चाहिए। जिस तरह किसी प्रोडक्ट का निर्माता अपने प्रोडक्ट को लेकर गारंटी या वारंटी देता है, और जब वे पूरे नहीं होते तो उसके प्रोडक्ट खरीदने वाले उत्पादक के खिलाफ उचित फोरम में जाकर शिकायत दर्ज करा सकते हैं, उसी तरह चुनावी घोषणा पत्रों को लेकर भी कानून होने चाहिए। इस वर्ग का मानना है कि एक फोरम ऐसा भी होना चाहिए, जिसे कानूनी ताकत हासिल हो और जो चुनावी वायदाखिलाफी की सुनवाई कर सके।


चुनाव घोषणा पत्रों की स्थिति संविधान के नीति निर्देशक तत्वों की तरह ही है। नीति निर्देशक तत्व राज्य से लोक हित के तमाम कदम उठाने को लेकर उम्मीद तो करता है, लेकिन राज्य के लिए ऐसा करना अनिवार्य नहीं बनाता। नीति निर्देशक तत्वों के तहत राज्य या सरकार कदम नहीं उठाती तो किसी को भी किसी भी अदालत में इसकी शिकायत की ना तो अनुमति है और ना ही कोई अदालत ऐसी सुनवाई कर भी सकती है। चुनाव घोषणा पत्रों की भी कुछ ऐसी ही स्थिति है। 


हालांकि ऐसा नहीं है कि चुनाव घोषणा पत्रों को लेकर अदालतों के सामने सवाल नहीं उठे।


चुनाव घोषणा पत्र को लेकर दाखिल एक याचिका पर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 5 जुलाई 2013 को अपना फैसला सुनाया था। एस. सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार और अन्य के मामले में देश की सबसे बड़ी अदालत ने चुनाव आयोग को सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों की सलाह से चुनावी घोषणापत्र के संबंध में दिशा-निर्देश तैयार करने का निर्देश दिया था। इस फैसले में कोर्ट ने कहा था, 


- चुनाव आयोग, राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के बीच समान अवसर सुनिश्चित करने और यह देखने के लिए कि चुनाव प्रक्रिया की पवित्रता पर आंच ना आए, घोषणापत्र को लेकर निर्देश जारी करे। जैसे आयोग आदर्श आचार संहिता के निर्देश जारी करता है। 

- आयोग के पास संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए ऐसे आदेश दे सकता है।

- अदालत को पता है कि सामान्यतया राजनीतिक दल मतदान के पहले चुनाव घोषणा पत्र जारी करते हैं, ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग के पास किसी भी कार्य को रेगुलेट करने का अधिकार नहीं होता है। फिर भी, घोषणा पत्र को लेकर अपवाद बनाया जा सकता है, क्योंकि चुनावी घोषणापत्र का उद्देश्य सीधे चुनाव प्रक्रिया से जुड़ा होता है। 


इसके बाद चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श के बाद साल 2015 में चुनाव घोषणा पत्र को लेकर गाइड-लाइन जारी की थी। इसके अनुसार, 

- चुनाव घोषणापत्र में संवैधानिक आदर्शों और सिद्धांतों से इतर कुछ भी नहीं होगा और यह आदर्श आचार संहिता के अन्य प्रावधानों की भावना के अनुरूप होगा।

- संविधान में निहित राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत राज्यों को नागरिकों के लिए विभिन्न कल्याणकारी उपाय करने के आदेश हैं, इसलिए चुनावी घोषणा पत्रों में ऐसे कल्याणकारी उपायों के वायदे पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती। हालांकि, राजनीतिक दलों को ऐसे वादे करने से बचना चाहिए, जिनसे चुनाव प्रक्रिया की शुचिता पर असर पड़ सकता है या मतदाताओं पर उनके मताधिकार का प्रयोग करने में अनुचित प्रभाव पड़ने की आशंका हो।

- पारदर्शिता, समान अवसर और वायदों की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए अपेक्षा की जाती है कि घोषणापत्र में किए गए वादे स्पष्ट हों और इसे पूरा करने के लिए वित्तीय संसाधन कैसे जुटाए जाएंगे, इसकी भी जानकारी हो। मतदाताओं का भरोसा उन्हीं वादों पर हासिल करना चाहिए, जिन्हें पूरा किया जाना संभव हो।


दुर्भाग्यवश चुनाव आयोग की गाइड लाइन भी बहुत प्रभावी नहीं हो पा रही है। हवा-हवाई वायदे भी खूब किए जा रहे हैं। इनमें रोजगार और नौकरियों को लेकर की जाने वाले वायदे पहले नंबर पर हैं। कल्याणकारी योजनाएं भी इसी कैटेगरी में आती हैं। लेकिन बहुत कम राजनीतिक दल ऐसे हैं, जो कल्याणकारी योजनाओं से संबंधि वायदे करते वक्त उन्हें पूरा करने के लिए जुटाई जाने वाली रकम और उनके स्रोत और तरीकों की जानकारी नहीं देते। मतदाताओं की बढ़ती जागरूकता का दबाव ही है कि कल्याणकारी योजनाओं को लेकर वायदे खूब हो रहे और हर राजनीतिक दल अपने ढंग से लागू भी कर रहा है। भले ही राज्य के खजाने की हालत खस्ता ही क्यों ना हो जाए। लेकिन यह भी सच है कि उस पर खऱ्च होने वाले फंड के स्रोत को लेकर जानकारी नहीं दी जा रही। साफ है कि चुनाव आयोग की गाइड लाइन इस संदर्भ में नाकाम लग रही है।


मौजूदा आर्थिकी में लाभ पर जोर है, रोजगार का सवाल लगातार पीछे छूटता जा रहा है। इसे उलटबांसी ही कहेंगे कि राजनीतिक दल इसी आर्थिकी को आगे बढ़ाने के साथ ही हवाई वायदों की फेहरिस्त भी जारी करते रहते हैं। चूंकि वोटरों के हाथ बंधे हुए हैं, इसलिए वे भी सवाल उठाने से ज्यादा कुछ नहीं कर सकते। 


यहां पर याद आता है, संविधानसभा के सदस्य अनंत शयनम अयंगार के वे शब्द, जो उन्होंने नीति निर्देशक तत्वों पर अदालती चाबुक के तर्क के विरोध में दिया था। तब उन्होंने जनता की ताकत पर भरोसा जताते हुए कहा था कि पांच साल में एक बार जब चुनाव होंगे, तब मतदाताओं के लिए यह विकल्प होगा कि वे उन्हीं लोगों को न चुनें जो जनता की राय से अलग हैं। 


लेकिन क्या ऐसा हो पा रहा है? निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में है। ऐसे में सवाल उठता है कि फिर हवाई वायदे ना हों और जो किए जाएं, उन्हें लागू कैसे किया जाए? निश्चित तौर पर इसके लिए एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग को भी आगे आना होगा। मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था इस आत्म नियंत्रण करने से रही। चूंकि वायदों में ही सबका फायदा है, इसलिए कोई भी दल बिल्ली के गले घंटी बांधने के लिए आगे आने की हिम्मत नहीं दिखा पाएगा।


-उमेश चतुर्वेदी

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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