नेहरू, इंदिरा, राजीव तीनों के भरोसेमंद, RAW को बनाने वाले भारत के सबसे शातिर एजेंट ने कैसे इंदिरा को तोहफे में दिया सिक्किम

By अभिनय आकाश | Sep 01, 2023

साल 1950 में आजादी के बाद भारत में ब्रिटिश महारानी का पहला दौरा। मुंबई में रिशेसन के वक्त भरी सभा में चारों ओर बहुत भीड़ थी। वहां मौजूद सभी लोग महारानी का स्वागत करने आए थे। तभी उसी भीड़ में से किसी एक शख्स ने फूलों का गुलदस्ता महारानी की ओर फेंका। ये बुके महारानी को लगने ही वाला था कि वहां मौजूद एक शख्स ने उसे पकड़ लिया। इस घटना को देख मौके पर मौजूद सभी लोगों का ध्यान उस शख्स पर जा टिका जो कि कोई और नहीं बल्कि साल 1940 बैच के आईपीएस ऑफीसर आरएन कॉव थे, जो समय आईबी के ज्वाइंट सिक्रेटरी के पद पर तैनात थे। महारानी की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उन्हीं के पास थी। इनकी इस सतर्कता और काबिलियत को देखकर महारानी बड़ी खुश हुई और मजाकिया लहजे में कहा- गुड क्रिकेट। यूं तो आज किसी भी देश की ताकत उसकी खुफिया एजेंसियों पर निर्भर करती है। जितनी तेज उस देश का खुफिया तंत्र होगा, उतना ही वो देश आगे रहेगा। भारत की खुफिया एजेंसी रॉ दुनिया में बेहतरीन एजेंसियों में से एक है। आज आपको उस शख्स की कहानी सुनाएंगे जिसने रॉ को बनाया। 

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कौन हैं आरएन कॉव

पंडित रामेश्वर नाथ काओ का जन्म 2 अक्टूबर 1917 को उत्तर प्रदेश के पवित्र शहर बनारस में एक कश्मीरी हिंदू पंडित परिवार में हुआ था, जो कश्मीर घाटी के श्रीनगर जिले से लखनऊ के कश्मीरी मोहल्ले में आकर बस गए थे। कॉव केवल छह वर्ष के थे जब उनके पिता का निधन हो गया और उनका पालन-पोषण उनके चाचा पंडित त्रिलोकी नाथ काओ ने किया। रामेश्वर नाथ ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बड़ौदा से प्राप्त की। उन्होंने 1932 में मैट्रिक और 1934 में इंटरमीडिएट किया और बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय से कला स्नातक की डिग्री प्राप्त की। वह फ़ारसी, संस्कृत और उर्दू के अच्छे जानकार थे और तीनों भाषाओं को धाराप्रवाह पढ़, लिख और बोल सकते थे। कॉव ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। बाद में, वह कानून की कक्षाओं में शामिल हो गए, हालाँकि, बाद में, उन्होंने भारत की अत्यधिक प्रतिष्ठित सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण की और 1940 में भारतीय इंपीरियल पुलिस में शामिल हो गए और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कानून का पाठ्यक्रम पूरा नहीं कर सके। इसके बाद वह सहायक पुलिस अधीक्षक के पद पर कानपुर में तैनात हुए। तब उन्हें कानून और व्यवस्था के जटिल मुद्दों को हल करने के लिए खुफिया प्रशिक्षण की आवश्यकता का एहसास हुआ। इसलिए वह इंटेलिजेंस ब्यूरो में शामिल होने वाले पहले भारतीयों में से एक थे, जो पूरी तरह से ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा संचालित था। वहां उन्हें औपनिवेशिक प्रशासन और भारतीय समाज में इसकी सहायक संरचनाओं के बारे में गहरी जानकारी मिली। बाद में उन्होंने इन अंतर्दृष्टियों और अनुभवों का उपयोग भारतीय समाज को मजबूत स्थिति में लाने की विध्वंसक क्षमता वाली इन समर्थन संरचनाओं को कमजोर करने के लिए किया। हालाँकि उन्होंने इस क्षेत्र में अद्भुत काम किया लेकिन उनका योगदान गुमनाम रहा।

रॉ का गठन 

रॉ के गठन से पहले जासूसी का जिम्मा केवल इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी आईबी का हुआ करता था। 1947 में आजादी के बाद संजीव पिल्लई आइबी के पहले भारतीय डायरेक्टर बने और भारत के लिए काम करना शुरू किया। धीरे-धीरे समय बीतता गया और साल 1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध हुआ, जिसमें भारत को चीन के हाथों हार का सामना करना पड़ा। इस हार का बड़ा कारण यह भी था कि भारत की इंटेलिजेंस ब्यूरो ठीक तरह से काम नहीं कर सकी थी। तभी उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आईबी के असफल काम को देखते हुए एक एजेंसी बनाने का सुझाव दिया जो केवल जासूसी का काम देखें। यह सुझाव कुछ सालों तक होल्ड पड़ रहा और तब तक 1965 में एक बार फिर भारत-पाक के बीच युद्ध हो गया। उस वक्त भारत के सेना अध्यक्ष ने कहा था कि उन्हें और भी जासूसी की सटीक जानकारियों की जरूरत है। यहीं से जासूसी की एक और एजेंसी बनाने के प्रयास तेज होने लगे। फिर 1968 में इंदिरा गांधी के कार्यकाल में जासूसी एजेंसी रॉ की नींव पड़ी। रॉ का पहला चीफ आरएन कांव को बनाया गया।

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कॉव को बनाया गया चीफ

एआरसी की स्थापना करने और 1966 तक इसका नेतृत्व करने के बाद आरएन कॉव आईबी में बाहरी खुफिया विभाग के प्रमुख भी थे। भारतीय खुफिया संगठन के सबसे लंबे समय तक सेवारत प्रमुख बीएन मुलिक अक्टूबर 1964 में आईबी के निदेशक के रूप में सेवानिवृत्त हुए थे, लेकिन महानिदेशक (सुरक्षा) बने रहे, उन्होंने 1963 में राष्ट्रीय सुरक्षा प्रणाली और खुफिया तंत्र के समन्वय के लिए एक कार्यालय की स्थापना की। मल्लिक के उत्तराधिकारी एसपी वर्मा थे। लेकिन बड़ा बदलाव प्रधानमंत्री स्तर पर हुआ था. जनवरी 1966 में शास्त्री की मृत्यु हो गई और नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी भारत की तीसरी प्रधान मंत्री बनीं। उस समय, उन्हें राजनीतिक रूप से हल्का माना जाता था और कांग्रेस पार्टी के दिग्गज, जिन्होंने उन्हें शीर्ष पद तक पहुंचने में मदद की थी, उन्हें छाया से नियंत्रित करने की उम्मीद थी। हालाँकि, कुछ ही वर्षों में उन्होंने एक दशक से अधिक समय तक भारत पर शासन करने के लिए पार्टी में अपने अधिकांश वरिष्ठों को पछाड़ दिया। उनमें सही टीम चुनने और फिर अपनी नीतियों का क्रियान्वयन उन पर छोड़ने की क्षमता थी। 1967 में उनके द्वारा की गई एक प्रमुख नियुक्ति पीएन हक्सर की थी। एक कश्मीरी पंडित, जो कभी कश्मीर में नहीं रहे। हक्सर को आरएन कॉव के साथ, 1967 और 1975 के बीच इंदिरा गांधी के अधिकांश महत्वपूर्ण निर्णयों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी थी। हक्सर, प्रधानमंत्री के सचिव के रूप में अपनी क्षमता में वास्तव में कॉव को R&AW बनाने में मदद मिली।

नेहरू, इंदिरा, राजीव तीनों के भरोसेमंद रहे

भारत जिस दौर में जासूसी और खुफिया दुनिया में कदम रख रहा था, उस दौर में कॉव ने भारत को इस नई दुनिया में एक नई राह दिखाई और कामयाबी की कई इबारत लिखी। बतौर रॉ चीफ उन्होंने 1971 में बांग्लादेश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इंदिरा गांधी संग नजदीकियां के चलते कई बार वो विरोधियो के निशाने पर भी रहे। जनता पार्टी की सरकार ने तो उन पर जांच भी बिठा दी थी। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद वो उनके भी सलाहकार रहे। कॉव के बारे में एक चर्चित तथ्य ये भी है कि उन्होंने अपने जीवन की घटनाओं को टेप रिकॉर्ड़र में रिकॉर्ड किया था और चाहते थे कि उनकी मृत्यु के बाद इसे जनता के बीच जारी किया जाए। 

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इंदिरा गांधी का सिक्कम प्लान

1971 के युद्ध के समाप्त होने के बाद इंदिरा गांधी ने अपना पूरा ध्यान सिक्किम पर लगा दिया। इंदिरा की मंशा थी कि सिक्किम को पूरी तरह भारत में मिला लिया जाए। जिसके लिए रॉ को इस काम में लगाया गया। नितिन गोखले कि किताब आरएन काओ जेंटलमैन स्पायमास्टर के अनुसार पीएम बनर्जी और आरएन काओ ने एक योजना बनाकर इंदिरा गांधी के सामने पेश किया। इस प्लान के तहत सिक्किम की लोकल राजनीतिक पार्टियों की सहायता से राजशाही को धीरे-धीरे कमजोर करने की बात कही गई। सिक्कम कांग्रेस के लीडर काजी लेनडुप दोरजी ने उस वक्त राजशाही के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी थी। 

रॉ का ऑपरेशन ट्वालायट 

रॉ के अधिकारी ने पीएन बनर्जी और गंगटोक में ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी के तहत तैनात अजीत सिंह स्याली को काम में लगाया। इस ऑपरेशन को ट्वालायट का नाम दिया गया। इसके साथ ही इस प्लान में सेना की एंट्री भी होती है। सेना द्वारा सिक्किम में फ्लैग मार्च कराने के बारे में तय किया गया, जिससे लोकतंत्र समर्थक लोगों को ये संदेश जाए कि भारत उनके साथ है। 4 अप्रैल 1973 को घटी घटना ने भारत में सिक्किम के विलय का रास्ता और साफ कर दिया। दरअसल, इस दिन राजा चोग्याल अपना 50वां जन्मदिन मना रहे थे। सड़कों पर राजशाही के खिलाफ विरोध प्रदर्शन चल रहा था। इसी दौरान चोग्याल राजा के बेटे टेंजिंग राजभवन के रास्ते जा रहे थे और उन्हें प्रदर्शनकारियों ने बीच में ही रोक लिया। तब राजा के बेटे के गार्ड्स ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चला दी जिसमें दो लोगों की जान चली गई। राजशाही विरोधी पार्टी ने इसे बड़ा मुद्दा बनाते हुए चक्का जाम कर दिया। अगले कुछ दिनों तक हिंसा, लूट का ताडंव राज्य में देखने को मिला। मजबूरी में चोग्याल को भारत से मदद मांगनी पड़ी। 8 अप्रैल के दिन सिक्किम और भारत के बीच समझौता हुआ और भारत ने प्रशासनिक शक्तियां अपने हाथ में ले ली। 

भारत में शामिल होने का निर्णय

8 अप्रैल के दिन ब्रिगेडियर दीपेंद्र सिंह के नेतृत्व वाली सेना की तीन टुकड़ी सिक्कम के राजभवन पहुंची। महज 20 मिनट के भीतर ही राजभवन को अपने कब्जे में ले लिया। जिसके बाद सिक्किम में विधानसभा की देख रेख में एक जनमत संग्रह हुआ जिसमें भारी बहुमत ने राजशाही को खत्म करने और भारत में शामिल होने के पक्ष में मतदान किया।


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