श्रीहनुमान जी रावण की सभा में पाश में बँधे, अपने इर्द-गिर्द घट रहे, समस्त घटनाक्रम को बड़े साक्षी भाव से निहार रहे हैं। रावण का आदेश तो हो ही चुका है, कि श्रीहनुमान जी की पूँछ को आग लगा दी जाये। लंका नगरी के सभी राक्षस गण भी, इस आदेश से इतने प्रसन्न हुए, कि श्रीहनुमान जी की पूँछ को वहीं पर आग लगाने के प्रयास में संलग्न हो उठे। जैसा कि हमने विगत अंक में भी कहा था, कि रावण ने तो केवल यही आदेश दिया था, कि सभी अपने-अपने घरों से तेल ले आओ। लेकिन राक्षस गण इतने ‘एडवांस’ निकले, कि तेल से भी अधिक, वे बड़े-बड़े पात्रों में मनों घी लेकर आ रहे हैं। और श्रीहनुमान जी की पूँछ को अग्नि कुण्ड में आहुति देने के लिए, अतिअंत व्याकुल व उतावले प्रतीत हो रहे हैं। श्रीहनुमान जी के स्थान पर अगर कोई अन्य साधारण साधक होता, तो अधिक संभावना थी, कि वह निश्चित ही डोल जाता। कारण कि श्रीराम जी ने तो अपने दूत श्रीहनुमान जी से कहा था, कि आप ने श्रीसीता जी के समक्ष, मेरे बल और विरह का बखान करना है। जो कि उन्होंने कर भी दिया था। लेकिन रावण की सभा में श्रीहनुमान जी को, अग्नि ताप से भी सामना करना पड़ेगा, यह तो प्रभु ने बताया ही नहीं था।
श्रीहनुमान जी ने सोचा कि प्रभु ने इतनी बड़ी बात आखिर मुझे बताई क्यों नहीं? तभी श्रीहनुमान जी को स्मरण हुआ, कि अरे! प्रभु ने तो मुझे अपनी इस भावी योजना के संकेत, अपनी एक संत राक्षसी के माध्यम से, पहले ही दे दिए थे। क्योंकि जब मैं माता सीता जी से भेंट हेतु, वृक्ष की ओट में छुपा था। तो त्रिजटा ने माता सीता जी को अपना एक स्वप्न सुनाया था। स्वप्न यह, कि एक बड़ा भारी वानर लंका में घुस आया है। और वह पूरी लंका को अग्नि के हवाले कर रहा है। उस समय तो मैंने त्रिजटा के स्वप्न पर कोई विशेष ध्यान ही नहीं दिया था। लेकिन रावण व राक्षसों द्वारा मेरी पूँछ को जलाने का प्रयास करना, कहीं यह तो संकेत नहीं, कि मुझे अब लंका दहन की सेवा का भी निर्वाह करना है। लेकिन इसमें भी समस्या यह है, कि पूरी लंका को जलाने में तो बहुत अधिक घी व तेल की आवश्यक्ता होगी। और वह घी तेल का प्रबंध भला मैं कहाँ से करूँगा। लेकिन प्रभु की कृपा तो देखिए, कि पूरे लंका वासी ही प्रभु की सेवा में, मेरा साथ देने में जुट गए हैं। लेकिन समस्या तो अब भी वहीं की वहीं थी, क्योंकि जितना घी तेल पूरी लंका नगरी को जलाने में लगना था, उतना तो ये राक्षस ला ही नहीं रहे हैं। तभी श्रीहनुमान जी को प्रभु कृपा से एक युक्ति का स्मरण हुआ। युक्ति यह कि श्रीहनुमान जी ने अपनी पूँछ को धीरे-धीरे बढ़ाना आरम्भ किया। जैसे-जैसे श्रीहनुमान जी पूँछ को बढ़ा रहे हैं, वैसे-वैसे राक्षस उस पूँछ को घी तेल व कपड़े में लपेटने के प्रयास में, लंका के कोने-कोने से घी तेल व कपड़ा लेकर आ रहे हैं। इस प्रयास में, एक समय यह भी आता है, कि श्रीहनुमान जी ने अपनी पूँछ को इतना बढ़ा लिया, कि पूरी लंका नगरी में, घी तेल व कपड़े का अकाल पड़ जाता है-
‘रहा न नगर बसन घृत तेला।
बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला।।
कौतुक कहँ आए पुरबासी।
मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी।।’
श्रीहनुमान जी की पूँछ यूँ बढ़ती देख कर, राक्षस गणों के लिए तो यह एक तमाशा से कम नहीं था। श्रीहनुमान जी को ऐसे अपमानित करने में सबको बला का आनंद महसूस हो रहा था। केवल इतना ही नहीं, राक्षस गण अपने इस कुकृत्य में एक कभी न भूलने वाला व अक्षम्य अपराध भी किए जा रहे थे। वह यह, कि वे श्रीहनुमान जी पर केवल मात्र हँस ही नहीं रहे थे, अपितु उनके पावन व पूजनीय तन पर लातें भी मार रहे थे। लात मारने के पश्चात वे, श्रीहनुमान जी पर ऐसे हँसते, मानों उन्होंने कोई बहुत बड़ा हाथी गिरा लिया हो।
वाह सज्जनों! भक्ति मार्ग भी कैसा विचित्र है न। सागर के इस पार तो सभी वानर इसी चिंतन व कल्पना में हैं कि श्रीहनुमान जी इस समय माता सीता जी को मिलने के पश्चात, खूब आनंद व सम्मान को प्राप्त कर रहे होंगे। लेकिन उन्हें क्या पता, कि भक्ति पथ ऐसे ही कांटों की बाड़ थोड़ी न कहा गया है। माता सीता रूपी भक्ति व प्रभु श्रीराम जी का प्यार पाना है, तो साक्षात अग्नि में तपना पड़ता है और घोर अपमान का कड़वा घूँट पीना पड़ता है। राक्षस गण श्रीहनुमान जी को केवल लात मार कर ही पीछे थोड़ी न हटते हैं। अपितु लात मार कर खूब तालियां पीटते हैं। और ढोल बजा-बजा कर प्रसन्न होते हैं। राक्षसों को लगा, कि इस सभा में तो स्थान भी कम है, और संपूर्ण लंका वासी इस सुंदर दृश्य को देख भी कहाँ पा रहे हैं। तो क्यों न इस वानर से नगर भ्रमण करवाया जाये। बस फिर क्या था। सभी राक्षस गणों ने, श्रीहनुमान जी को, बँदी रूप में लंका नगरी में खूब घुमाया। जो पाप कृत्य वे रावण की सभा में कर रहे थे, वही पाप कृत्य वे नगर भ्रमण पर भी निरंतर कर रहे थे। अर्थात सभी श्रीहनुमान जी को लात भी मार रहे हैं, उन पर तालियां बजा कर हँस भी रहे हैं, और ढोल बजा कर उत्सव मना रहे हैं-
‘बाजहिं ढोल देहिं सब तारी।
नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी।।’
अंततः मूर्ख राक्षसों ने श्रीहनुमान जी की पूँछ को आग लगा दी। अर्थात उन्होंने अपने स्वयं के विनाश में अंतिम कील भी ठोंक दी। श्रीहनुमान जी की पूँछ को उन्होंने आग तो लगा दी। किन्तु इस निंदनीय व घृणा योग्य कार्य का क्या परिणाम निकलता है? जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती