By आरएन तिवारी | Jul 04, 2022
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में गोता लगाकर हम इस मानव जीवन को सफल बनाएँ।
पिछले अंक में हमने भगवान वामन और राजा बलि की कथा पढ़ी थी। राजा बलि ने अपना सर्वस्व न्योछावर करके अपनी दान शीलता का परिचय दिया था। भगवान ने भी बलि को सुतल लोक का राजा बनाया और उसके कहने पर उसको नित्य–प्रति दर्शन देने की प्रतिज्ञा भी की।
आइए ! अब आगे के प्रसंग में चलें।
भगवन श्रोतुमिच्छामि हरेरद्भुत कर्मण:
अवतार कथामाद्याम मायामत्स्यविडंबनम ॥
राजा परीक्षित ने श्री शुकदेव जी महाराज से पूछा— हे प्रभो ! भगवान के कर्म बड़े ही अद्भुत होते हैं। उन्होंने एक बार अपनी योगमाया से मत्स्यावतार धारण करके बड़ी सुंदर लीला की थी, मैं उनके उसी अवतार की कथा सुनना चाहता हूँ। आप कृपा करके उनकी उस सम्पूर्ण लीला का वर्णन कीजिए।
यदि श्रोता जिज्ञासु मिल जाए, तो वक्ता का उत्साह दुगुना हो जाता है। भागवत-कथा में परीक्षित की रुचि देखकर, श्री शुकदेव जी कहते हैं— हे परीक्षित ! पिछले कल्प में ब्रह्माजी के सो जाने के कारण “ब्राह्म” नाम का प्रलय हुआ था। उस समय उनके मुख से वेदों की ऋचाएँ निकलीं, जिन्हें हयग्रीव नाम के एक असुर ने उन वेद ऋचाओं को चुरा लिया। भगवान नारायण ने मत्स्यावतार लेकर उन वेदों की रक्षा की।
तत्र राजऋषि: कश्चितनाम्नासत्यव्रतो महान
नारायण परोSतप्यत तप: स सलिलाशन: ॥
शुकदेव जी कहते हैं— परीक्षित ! उस समय सत्यव्रत नाम के एक राजर्षि केवल जल पीकर तपस्या कर रहे थे। एक दिन वे नदी में जल से तर्पण कर रहे थे कि उनकी अंजलि में एक छोटी-सी मछली आ गई। करुणा करके उन्होंने उस मछली को फिर से समुद्र में छोड़ दिया। उस मछली ने राजा से विनती की, हे राजन ! जल में रहने वाले जीव-जन्तु अपनी जाति वाले को भी खा जाते हैं, मैं उनके भय से भयभीत हूँ। मुझे जल में मत छोड़िए। राजा सत्यव्रत को उस मछली पर दया आई उन्होंने उसे अपने कमंडल के जल-पात्र में रख लिया और अपने आश्रम पर लौट आए। आश्रम पर लाने के बाद एक रात में ही उस मछली का आकार-प्रकार इतना बढ़ गया कि वह जल-पात्र छोटा पड़ने लगा। मछली ने किसी बड़े जल-पात्र में जाने की इच्छ प्रकट की तो राजा ने पानी के मटके में रख दिया। जब मटका भी छोटा पड़ने लगा तब सत्यव्रत ने उसे एक जल-सरोवर में डाल दिया, पर यह क्या? दो घड़ी में ही उस मछली ने महामत्स्य का आकार धारण कर लिया परिणाम स्वरूप वह सरोवर भी छोटा पड़ने लगा। जितना बड़ा सरोवर होता उससे कई गुना बड़ा उस मछली का आकार-प्रकार हो जाता। राजा सत्यव्रत इस रहस्य को समझ नहीं पा रहे थे। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा- महामत्स्य का रूप धारण करने वाले आप अवश्य ही सर्वशक्तिमान अविनाशी श्री हरि हैं।
जीवों पर दया करने के लिए ही आपने जलचर का रूप धारण किया है। हे प्रभो ! यद्यपि आपके सभी लीला अवतार जगत के हित के लिए ही होते हैं, फिर भी मैं यह जानना चाहता हूँ कि, आपने यह महामत्स्य का रूप किस उद्देश्य से ग्रहण किया है।
शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित ! भगवान अपने प्रेमी भक्तों से अत्यंत प्रेम करते हैं।
अनंतकोटि ब्रह्माण्ड नायक श्री मत्स्य भगवान ने कहा— सत्यव्रत ! आज से सातवें दिन तीनों लोक प्रलय के समुद्र में डूब जाएंगे। उस समय तुम्हारे पास एक बहुत बड़ी नौका आएगी, उसमें तुम सप्तर्षियों के साथ नौका पर चढ़ जाना। समुद्री तूफान के कारण जब नाव डगमगाने लगेगी, तब मैं इसी रूप में वहाँ आ जाऊंगा और तुम वासुकि नाग के द्वारा उस नाव को मेरे सींग में बांध देना, जब तक ब्रह्मा जी की रात रहेगी, तब तक मैं ऋषियों सहित तुम्हें उस नाव में बैठाकर खींचता हुआ सप्त सिंधु में विचरण करूंगा और तुम्हारे समस्त प्रश्नों का उपदेशात्मक उत्तर दूँगा। ऐसा कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए और राजा उस समय का इंतजार करने लगे।
इत्थमादिश्य राजानम हरिरन्तरधीयत
सोsन्ववैक्षत तं कालं यं हृषिकेश आदिशत॥
इतने में भगवान का बताया हुआ प्रलय का समय आ गया। समुद्र अपनी मर्यादा छोड़कर बढ़ने लगा, देखते-ही-देखते सम्पूर्ण धरती जल प्रवाह में डूबने लगी। सत्यव्रत के द्वारा भगवान का स्मरण करते ही एक नाव आ गई। सत्यव्रत धन-धान्य और सप्तर्षियों को साथ लेकर उस पर सवार हो गए। उसी समय उस अगाध समुद्र की जल-राशि में मत्स्य के रूप में भगवान प्रकट हो गए। उनके शरीर का विस्तार चार लाख कोश में था जो सोने के समान देदीप्यमान हो रहा था। प्रसन्न होकर राजर्षि सत्यव्रत ने भगवान के मत्स्यावतार की स्तुति की।
त्वं सर्व लोकस्य सुहृत प्रियेश्वरो
ह्यात्मा गुरुर्ज्ञानमभीष्टसिद्धि:॥
तथापि लोको न भवन्तमन्धधी:
जानाति सन्तं हृदि बद्ध काम: ॥
राजा ने निवेदन किया— हे प्रभो! आप सम्पूर्ण संसार के प्रियतम, ईश्वर और आत्मा हैं। फिर भी कामनाओं के बंधन में जकड़े होने के कारण लोग अंधे हो रहे हैं, उन्हें यह पता ही नहीं कि आप उनके हृदय में ही विराजमान हैं। प्रार्थना सुनकर भगवान ने सत्यव्रत को अपने स्वरूप के सम्पूर्ण रहस्य का वर्णन करते हुए भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण दिव्य पुराण का उपदेश दिया, जिसको “मत्स्य पुराण” कहते हैं। इसके बाद भगवान ने हयग्रीव राक्षस को मारकर उससे वेद छीन लिए और ब्रह्मा जी को समर्पित कर दिया।
बोलिए मत्स्यावतार भगवान की जय---------
जय श्रीकृष्ण -----
क्रमश: अगले अंक में --------------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
-आरएन तिवारी