रामलला कैसे बने पक्षकार, बंदर ने खुलवाया मंदिर का ताला

By अभिनय आकाश | Mar 16, 2020

अयोध्या कथा...इन दो लफ्ज़ों में दशकों का दर्द छिपा है। ये तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस वाला अयोध्या कांड नहीं है। ये कलयुग का अयोध्या कांड है, जिसमें रामलला टेंट में है और बरसों की प्रतीक्षा है...एक तरफ राजनीति का शोर है...जहां सरयू की लहरों में इतिहास को समेटे एक ऐसी कहानी भी है, जिसे इतनी विस्तारता से न तो दिखाया गया है न ही इसका उल्लेख उस गहराई में उतरकर प्रस्तुत किया गया है। जितने रहस्यों को अपने पहलू में समेटे ये अयोध्या है। इस अयोध्या की कहानी के हर मोड़ पर सस्पेंस हैं हज़ार और आस्था का है ज्वार साथ ही राजनीति की मंझधार है और कटघरे में खड़ी कई सरकार। 22-23 दिसंबर 1949 की रात अयोध्या के विवादित परिसर में जो कुछ हुआ उसकी आंच में देश एक नहीं, कई बार झुलस चुका है। यह झुलसन आज भी कायम है। अयोध्या में छुपे राज को समझने की खातिर इस दौर को जानना और भी अहम है। 

साल 1950

हिन्दू महासभा के गोपाल सिंह विशारद और दिगंबर के महंत परमहंस रामचंद्रदास ने फैजाबाद अदालत में याचिका दायर कर जन्मस्थान पर स्वामित्व का मुकदमा ठोंका। दोनों ने वहीं पूजा-पाठ की इजाजत मांगी। सिविल जज ने भीतरी हिस्से को बंद रखकर पूजा-पाठ की इजाजत देते हुए मूर्तियों को न हटाने के अंतरिम आदेश दिए।

26 अप्रैल, 1955

हाईकोर्ट ने 3 मार्च 1951 को सिविल जज के इस अंतरिम आदेश पर मुहर लगाई।

1959

निर्मोही अखाड़े ने एक दूसरी याचिका दायर कर विवादित स्थान पर अपना दावा ठोंका और स्वयं को राम जन्मभूमि का संरक्षक बनाया। 

1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड ने मस्जिद में मूर्तियां रखे जाने के विरोध में याचिका दायर की और दावा किया कि मस्जिद और उसके आसपास की जमीन कब्रगाह है, जिस पर उसका दावा है। 

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29 अगस्त, 1964

जन्माष्टमी के मौके पर मुंबई में विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना हुई। इस स्थापना में आरएसएस के प्रमुख सदाशिव गोलवलकर, संत तुकोजी महाराज आदि शामिल हुए।

रामलला विराजमान कैसे बने पक्षकार?

अयोध्या मामले में रामलला के पक्षकार बनने की कहानी दिलचस्प है। जिस मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा की गई होती है उसे हिंदू मान्यताओं में जीवित इकाई के तौर पर देखा जाता है। हालांकि यहां मूर्ति नाबालिग मानी गई। देवकीनंदन अग्रवाल ने कहा कि रामलला को पार्टी बनाया जाए, क्‍योंकि विवादित इमारत में साक्षात भगवान रामलला विराजमान हैं। ऐसा माना जा रहा था कि मुस्लिम पक्ष, लॉ ऑफ़ लिमिटेशन यानी परिसीमन क़ानून के हवाले से मंदिर के पक्षकारों के दावे का विरोध करेंगे। 1963 का लॉ ऑफ़ लिमिटेशन यानी परिसीमन क़ानून, किसी विवाद में पीड़ित पक्ष के दावा जताने की सीमा तय करता है। हिंदू पक्षकारों के दावे के ख़िलाफ़ मुस्लिम पक्ष इस क़ानून के हवाले से ये दावा कर रहे थे कि सदियों से वो विवादित जगह उनके क़ब्ज़े में है और इतना लंबा समय गुज़र जाने के बाद हिंदू पक्षकार इस पर दावा नहीं जता सकते। इसके बाद रिटायर्ड जज देवकीनंदन अग्रवाल इस मुकदमे में बतौर रामलला की बाल्यावस्था के दोस्त बनकर शामिल हो गए थे। राम के दोस्त देवकीनंदन अग्रवाल के इस मुकदमे के पक्षकार बनते ही यह मुकदमा परिसीमन कानून के दायरे से बाहर आ गया और कानूनी दांवपेंच के गलियारे में इस मुकदमें ने रफ्तार पकड़ ली।

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 रामलला विराजमान की तरफ से मुकदमा लड़ा इलाहाबाद हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज देवकीनंदन अग्रवाल ने और इसी दलील को मानते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रामलला विराजमान को पार्टी पक्षकार माना। देवकीनंदन अग्रवाल के निधन के बाद विश्‍व हिंदू परिषद के त्रिलोकी नाथ पांडेय ने रामलला विराजमान के पक्षकार के तौर पर कमान संभाली।

बंदर ने खुलवाया गर्भगृह का ताला

गर्भगृह का ताला किसने खुलवाया था ये ऐसा सवाल है जिसके जवाब में बहुत लोग कहेंगे कि जज साहब ने खुलवाया था या प्रशासन ने खुलवाया था। लेकिन अगर आपको कहूं कि ताला एक बंदर ने खुलवाया था तो आप हंस पड़ेंगे। फैजाबाद जिला जज रहे कृष्णमोहन पांडेय ने विवादित ताला खोलने का फैसला दिया था। जब वो फैसला लिख रहे थे तो उनके सामने एक बंदर बैठा था। उसकी भी बड़ी दिलचस्प कहानी है। जिसका जिक्र आगे करेंगे। पहले आपको बताते हैं कि 1 फरवरी 1986 को फैजाबाद के जिला न्यायाधीश ने विवादित स्थल पर हिंदुओं को पूजा की इजाजत दे दी। इस घटना के बाद मुसलमानों ने वहां नमाज पढ़ना बंद कर दिया। इस घटना के बाद नाराज मुसलमानों ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन किया। फैजाबाद के जिला न्यायाधीश के फैसले के चालीस मिनट के भीतर राज्य सरकार उसे लागू करा देती है। यानी शाम 4.40 पर अदालत का फैसला आया और 5.20 पर विवादित इमारत का ताला खुला। 

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साल 1986 तारीख 1 फरवरी, जब राम जन्मभूमि का ताला खोला गया था। उस वक्त देश के प्रधानमंत्री थे राजीव गांधी। स्वाभाव से सरल इंसान राजीव गांधी अपनी राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी और कड़ी परीक्षा दे रहे थे। इंदिरा के पहले राजनीतिक वारिस संजय गांधी की मौत और फिर मां की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी की पहली परीक्षा हुई शाहबानो प्रकरण में जब पांच बच्चों की मां को पति मोहम्मद अहमद खान ने तीन तलाक देकर घर से निकाल दिया था। यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और कोर्ट ने शाहबानो के पक्ष में फैसला सुनाया। शुरू में तो राजीव इस फैसले से खुश थे और राजीव सरकार के मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने इस फैसले के समर्थन में संसद में लंबा भाषण भी दिया। बाद में राजीव गांधी ने कुछ मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाव के आगे झुककर इस फैसले को संसद में पलट दिया। दूसरी तरफ राजीव गांधी के इस फैसले को मुस्लिम तृष्टिकरण का आरोप लगाते हुए बीजेपी ने लपक लिया और उसका साथ आरएसएस ने भी दिया। विहिप ने पूरे देश में राजीव गांधी के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। धार्मिक आधार पर बंटे समाज और सियासत के इसी नाजुक मोड़ पर राम मंदिर का ताला खोलने की पटकथा लिखी गई। इसके सूत्रधार थे राजीव गांधी के ममेरे भाई और उस वक्त के आंतरिक सुरक्षा मंत्री अरूण नेहरू।

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1 फरवरी को राम मंदिर का ताला खोला जाता है और उसके चार दिन बाद 5 फरवरी को संसद में बिल आता है जिसके जरिए राजीव गांधी ने शाहबानो प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट दिया था। 

बाद में ऐसा भी दावा किया जाता है कि आरएसएस ने राजीव की चुनाव में मदद की थी जिसके बदले राजीव गांधी ने अयोध्या में ताला खोला था। 1984 में हुआ लोकसभा चुनाव एक ऐसा चुनाव था जिसमें भारतीय चुनाव इतिहास में सीट के हिसाब से कांग्रेस को सबसे बड़ी जीत मिली थी। 523 सीटों के लिए हुए चुनाव में राजीव के नेतृत्व में अकेले कांग्रेस को 415 सीटें मिली थीं। लेकिन यह जीत कांग्रेस अपने दम पर हासिल नहीं कर पाई थी। राशिद किदवई की किताब ‘ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ द पीपुल बिहाइंड द फॉल एंड द राइज ऑफ द कांग्रेस’ के अनुसार कांग्रेस को इतनी बड़ी सफलता संघ की मदद से मिली थी! कांग्रेस के पूर्व नेता बनवारीलाल पुरोहित (जो तब नागपुर से लोकसभा सांसद थे) का दावा है कि आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहेब देवरास और राजीव गांधी के बीच मीटिंग कराने में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई थी। बनवारीलाल पुरोहित का कहना था कि राजीव गांधी ने उनसे पूछा कि क्या वह संघ प्रमुख बालासाहब देवरस को जानते हैं। इस पर राजीव गांधी ने उसने राय लेनी चाही कि अगर संघ को राम जन्मभूमि के शिलान्यास की अनुमति दे दी जाती है तो क्या वह कांग्रेस को समर्थन देगा? 

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अब आते हैं उस बंदर की कहानी पर जो सुनने में बहुत दिलचस्प है लेकिन सत्य है।

जज कृष्णमोहन पांडेय ने 1991 में छपी अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जिस रोज मैं ताला खोलने का आदेश लिख रहा था तो मेरी अदालत की छत पर एक काला बंदर पूरे दिन फ्लैग पोस्ट को पकड़कर बैठा रहा। वे लोग जो फैसला सुनने के लिए अदालत आए थे, उस बंदर को फल और मूंगफली देते रहे। पर बंदर ने कुछ नहीं खाया। मेरे आदेश सुनाने के बाद ही वह वहां से गया। फैसले के बाद जब डी.एम. और एस.एस.पी. मुझे मेरे घर पहुंचाने गए, तो मैंने उस बंदर को अपने घर के बरामदे में बैठा पाया। मैंने उसे प्रणाम किया। वह कोई दैवीय ताकत थी।

कारसेवक ने खून से लिखा सीताराम

उत्तर प्रदेश में तब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री हुआ करते थे। हिंदू साधु-संत अयोध्या कूच कर रहे थे। उन दिनों श्रद्धालुओं की भारी भीड़ अयोध्या पहुंचने लगी थी। प्रशासन ने अयोध्या में कर्फ्यू लगा रखा था, इसके चलते श्रद्धालुओं को प्रवेश नहीं दिया जा रहा था। पुलिस ने बाबरी मस्जिद के 1.5 किलोमीटर के दायरे में बैरिकेडिंग कर रखी थी। कारसेवकों की भीड़ बेकाबू हो गई थी। पहली बार 30 अक्टबूर, 1990 को कारसेवकों पर चली गोलियों में 5 लोगों की मौत हुई थीं। इस गोलीकांड के दो दिनों बाद ही 2 नवंबर को हजारों कारसेवक हनुमान गढ़ी के करीब पहुंच गए, जो बाबरी मस्जिद के बिल्कुल करीब था। प्रशासन उन्हें रोकने की कोशिश कर रहा था, लेकिन 30 अक्टूबर को मारे गए कारसेवकों के चलते लोग गुस्से से भरे थे। हनुमान गढ़ी के सामने लाल कोठी के सकरी गली में कारसेवक बढ़े चले आ रहे थे। पुलिस ने सामने से आ रहे कारसेवकों पर फायरिंग कर दी, जिसमें करीब ढेड़ दर्जन लोगों की मौत हो गई। ये सरकारी आंकड़ा है। इस दौरान ही कोलकाता से आए कोठारी बंधुओं की भी मौत हुई थी। दिगंबर अखाड़े के नुक्कड़ पर लोग पुलिस की गोलियों से सड़कों पर गिर रहे थे। एक जगह पुलिस के फेंके गए आंसू गैस के गोलों को दोबारा उठाकर वापस उनकी तरफ फेंक रहा था। उसके आंख के आसपास चूना लगा रखा था ताकि आंसू गैस के गोलों का असर न हो। थोड़ी ही देर में वो व्यक्ति पुलिस की गोली का शिकार होता है और सड़क पर गिर जाता है और वहीं बीच सड़क पर अपने खून से लिख देता है "सीताराम" 


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