Gyan Ganga: सीता माता के प्रति अपने प्रेम को कैसे बयां किया था प्रभु श्रीराम ने?

By सुखी भारती | Jul 07, 2022

भगवान् श्रीराम जी का हृदय मानों छलनी-सा हो गया था। छलनी भी ऐसा, कि उसके लिए संसार के किसी वैद्य के पास कोई औषधि नहीं थी। औषधि थी, तो केवल यह, कि प्रभु श्रीराम जी और जगजननी माता सीता का पावन मिलन हो जाये। किसी भी प्रकार से यह गंभीर समस्या का समाधान दृष्टिपात नहीं हो पा रहा था। लेकिन श्रीहनुमान जी, जब से प्रभु श्रीराम जी की शरणागत हुए थे, तब से मानों वे कष्टहर्ता श्रीहरि के ही कष्ट हर रहे थे। श्रीराम जी ने जब श्रीसीता जी के संबंध में संपूर्ण गाथा सुनी, तो उनके नयनों में अश्रुओं की धारा बहने लगी-


‘सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना।

भरि आए जल राजिव नयना।।’


प्रभु श्रीराम जी श्रीहनुमान जी के प्रति भी अत्यंत भाव से लबालब हो उठे। कारण कि श्रीराम जी के बाद, अन्य वानर व श्रीहनुमान जी ही ऐसे पात्र थे, जो श्रीसीता जी से मिलने हेतु उतने ही व्याकुल व प्रेमाधीन थे, जितने कि स्वयं श्रीराम जी। प्रभु श्रीराम जी स्वयं को अकेला महसूस न करके, एक सामूहिक परिवार का भाग मान रहे थे। एक ऐसा परिवार, जिसमें चोट तो केवल एक व्यक्ति को लगती है। लेकिन पीड़ा पूरा परिवार महसूस करता है। इन्हीं बातों के बीच, श्रीराम जी एक ऐसी बात भी कहते हैं, जो समस्त संसार के लिए दुखों के हरण का बहुत बड़ा सूत्र है। श्रीराम जी शायद स्वयं को भी दिलासा-सी दे रहे थे, कि नहीं-नहीं, मुझे श्रीसीता जी के बारे में इतना भी चिंतित नहीं होना चाहिए। माना कि श्रीसीता जी गहन कष्ट में हैं। लेकिन जिस स्तर पर वे मेरे ध्यान, प्रेम व सुमिरन में रमी हुई हैं। ऐसी दिव्य अवस्था में भी क्या किसी को कष्ट घेर सकता है-

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‘बचन कायँ मन मम गति जाही।

सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही।।’


श्रीहनुमान जी ने भी सुना तो वे भी कह उठे, कि हाँ प्रभु! आप यह भी सत्य भाषण कर रहे हैं। कारण कि अँधकार वहीं तो अपना प्रभाव दिखाता है, जहाँ पर प्रकाश का अस्तित्व न हो। ठीक वैसे ही कोई भी जीव तब तक ही कष्ट में जीता है, जब तक उसके जीवन में श्रीहरि, अर्थात आपका भजन सुमिरन नहीं होता है-


‘कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।

जब तव सुमिरन भजन न होई।।

केतिक बात प्रभु जातुधान की।

रिपुहि जीति आनिबी जानकी।।’


हे प्रभु! संसार में दुखी प्राणी के लिए कितना सरल उपाय है, कि वह तीनों तापों के निवारण के लिए, केवल आपके भजन सुमिरन का सहारा ले, तो यह कैसे हो सकता है, कि उसे कष्ट प्रभावित कर जायें। रही बात कि लंकापुर के राक्षसों की, तो उनकी तो बात ही क्या करनी है। कारण कि 'सिंह’ के लिए किसी ‘सियार’ का शिकार करना, कौन-सी बड़ी बात है। कपि की यह बातें सुनकर प्रभु भी सोच में पड़ गए। कारण कि श्रीहनुमान जी के लिए मेरे सुख व आनंद से बढ़कर कुछ और चाहत ही नहीं है। मैं जिसे जो वचन कर देता हूँ, उसके लिए वही वेद का मंत्र बन जाता है। मैं जिस दिशा की ओर निहार लूँ, उसके लिए वही दिशा मोक्ष का मार्ग बन जाती है। हनुमंत लाल का मेरे प्रति ऐसा प्रेम व समर्पण है, कि मुझसे भूले से भी अगर तुमड़ी को हाथ लग जाये, तो वह तुमड़ी, हनुमान जी के लिए अमृत फल बन जाती है। शिष्यत्व का ऐसा समर्पण तो मैं भी अपने गुरु मुनि वशिष्ठ जी के प्रति नहीं कर पाया। यद्यपि मेरी दृष्टि से कोई भी परे नहीं है। मैं जहाँ चाहूँ वहाँ तक निहार सकता हूँ। लेकिन मैंने देख लिया है, कि मैं तुमसे उऋण नहीं हो सकता। पूरा ब्रह्माण्ड मेरा ऋण नहीं चुका सकता। कारण कि मैं बिना किसी स्वार्थ के प्रत्येक जीव का हित सोचता हूँ। लेकिन तुम तो मुझसे भी कहीं आगे निकले। कारण कि मेरी ही भाँति, तुम संसार का हित तो सोचते ही हो, साथ-साथ मेरा भी इतना हित सोचते हो, कि उस स्तर तक तो, मैं भी किसी का हित नहीं सोच सकता। तुम्हारे प्रेम की ऊँचाई ही इतनी है, कि वहाँ तक तो मैं भी नहीं पहुँच पा रहा हूँ। कहने को तो कौन मेरी पहुँच में नहीं है। लेकिन यह सर्व विदित सत्य है, कि तुम्हारे समर्पण के शिखर तक तो मेरे भी हाथ नहीं पहुँच पा रहे हैं। भले ही तुम श्रीसीता जी की कोख से नहीं जन्में हो। लेकिन यह कैसे झुठलाया जा सकता है, कि तुम मेरे पुत्र नहीं हो।

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भगवान श्रीराम जी श्रीहनुमान जी के प्रति प्रेम मग्न होकर, बस श्रीहनुमान जी को ही निहारे जा रहे हैं। उनके नेत्रों में जल भरा है, और शरीर अत्यंत पुलकित है-


‘सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं।

देखेउँ करि बिचार मन माहीं।।

पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्रता।

लोचन नीर पुलक अति गाता।।’


श्रीराम जी अपने प्रेम को और कैसे बयां करते हैं, और श्रीहनुमान जी क्या प्रतिक्रिया करते हैं, जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)...जय श्रीराम।


- सुखी भारती

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