Gyan Ganga: सुग्रीव की ललकार से बालि की पत्नी को कैसे अनिष्ट का आभास हो गया था?

By सुखी भारती | Mar 11, 2021

बालि को भला यह कहाँ स्वीकार था कि कोई उसके द्वार पर जाकर उसे ललकारे। बालि सुग्रीव के युद्ध हेतु आह्वान को सुन क्रोध से पागल हो उठा− 'सुनत बालि क्रोधातुर धावा' बालि ने क्रोधित अग्नि की लपटों में तपिश बिखेरते हुए जैसे ही तेज गति से मुख्य द्वार की तरफ निकलना चाहा तो उसके पाँव पकड़ किसी ने उसका रास्ता रोक दिया। और यह गति अवरोधक कोई और नहीं अपितु उसकी धर्मपत्नी तारा थी। जो अतिअंत धीर, संतोष व सतोगुण धरक थी। जिसने आज तक बालि को किसी भी युद्ध हेतु सज्ज होने पर रोका नहीं था। सदैव आरती, तिलक कर बालि को विजय की मंगल कामनाओं से श्रृंगारित कर विदा किया। लेकिन प्रथम बार उसने बालि को रोका। और रोका भी सहज भाव से नहीं, अपितु पाँव पकड़ कर, मिन्नतें करते हुए रोका। मानो ऐसा अथक प्रयास कि किसी भी स्थिति व शर्त पर बालि को नहीं भेजना चाहती थी। तारा कहती है कि−


सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। 

ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा।।

कोसलेस सुत लछिमन रामा। 

कालहु जीति सकहिं संग्रामा।।


जो बात भगवान श्रीराम बालि को समझाना चाहते हैं, वह बात समझाने के लिए उन्होंने पात्र किसे चुना? उसकी पत्नी तारा को। वह इसलिए कि बालि की दृष्टि में साधु−संतों का तो कोई मूल्य ही नहीं। और अहंकार इतना कि भगवान की उसने सुननी ही नहीं। लेकिन कुछ भी था पत्नी की वह फिर भी थोड़ी बहुत सुनता था। भगवान श्रीराम जी ने सोचा कि चलो जिसकी भी सुने, हमें क्या? हमें तो केवलमात्र संदेश पहुँचाने तक मतलब है।

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तारा बड़ा अर्थपूर्ण वाक्य कहती है कि हे नाथ! माना कि आप में अथाह बल है, तेज की भी कोई कमी नहीं है लेकिन तब भी बल व तेज के अंत को तो आप ने नहीं जीता है। माना कि आप में दस, बीस या तीस लाख हाथियों के बल की सीमा हो। तब भी आपका बल असीम तो नहीं। जबकि श्रीराम जी और लक्ष्मण जी का बल व तेज तो असीम है। बल और तेज की सीमा उन्हीं पर आकर समाप्त होती है। वे युद्ध में काल को भी जीत सकने की शक्ति रखते हैं। ऐसे में आपका उनसे वैर रखना कहीं से भी यथोचित नहीं। 


यह सुन बालि कुछ क्षणों के लिए रुका। इसलिए नहीं कि यह कहे कि हे तारा! तुमने तो मेरी आँखें खोल दी, ठीक है मैं निश्चित ही रुक जाता हूँ। लेकिन बालि भला ऐसा क्यों करता? क्योंकि मुख्य द्वार से सुग्रीव की हवा चीरती हुई सींह सी गरजना उसे व्याकुल किए जा रही थी। बालि तारा के विचारों का समर्थन थोड़ी करता है अपितु 'भीरु' नाम का तमगा उसके गले में डाल देता है−


कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।

जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ। 


बालि कह रहा है कि हे प्रिय! तुम कितनी डरपोक हो। तुम कह रही हो कि श्रीराम जी काल को भी जीतने वाले हैं। तो इसका अर्थ वे भगवान हैं। और भगवान किसी को थोड़ी मारते हैं। वे वास्तव में समदर्शी ही होते हैं। और रघुनाथ जी भी तो फिर समदर्शी हुए। अगर वे मुझे मारेंगे तो अफसोस कैसा? मैं निश्चित ही सनाथ हो जाऊँगा और निश्चित ही परम पद को प्राप्त करुँगा।

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तारा जब यह सुनती है तो एक बार तो उसे भी लगा होगा कि बालि श्रीराम जी को प्रभु मानता है तो अब निश्चित ही रुक जाएगा। लेकिन बालि भला ऐसा कुछ क्यों मानता। क्योंकि प्रभु की तो वही मानता है न जो उसका भक्त होता है। और बालि 'करतार' का नहीं अपितु अपने 'अहंकार' का भक्त था। जैसे प्रभु का भक्त यही चाहता है कि चहुँ दिशाओं में मेरे करतार का ही पसारा हो। ठीक वैसे ही बालि भी यही चाहता है कि मेरे अहंकार की सर्वत्र गूँज हो। सुग्रीव के साथ प्रभु का आना और तब भी सुग्रीव को परास्त कर देना। इस घटनाक्रम में क्या तथ्य निकल कर सामने आता है। यही न कि देखो भाई बालि कितना बलशाली है। भगवान सुग्रीव के साथ थे तब भी बालि ने सुग्रीव को परास्त कर दिया। प्रभु को लिए 'समदर्शी' का प्रयोग भी बालि ने ऐसे नहीं किया कि उसे प्रभु श्रीराम जी समदर्शी ही प्रतीत हो रहे हैं। उसने जब यह देखा कि मेरी पत्नी मेरे पाँव छोड़ ही नहीं रही मुझे रोकने की जिद्द पर पर्वत की भांति अडिग है, तो उसकी जिद्द की पकड़ ढीली करने के लिए बस ऐसे ही बोल दिया। जिससे तारा को लगे कि मेरा पति भी श्रीराम जी को प्रभु मानता है। जिससे वो अब सुग्रीव वध हेतु प्रस्थान नहीं करेगा। 


बालि का तारा के साथ यह व्यवहार एक तरह के छल व कपट से परिपूर्ण था कि कैसे न कैसे मीठी−मीठी बातें करके एक बार तारा को अपने रास्ते से हटा दूँ। बाद की बाद में देखी जाएगी। जैसे ही तारा जरा-सी आश्वस्त हुई और बालि के पैर छोड़े। बालि उसी समय सुग्रीव की तरफ दौड़ चला−


अस कहि चला महा अभिमानी। 

तृन समान सुग्रीवहिं जानी।।

भिरे उभौ बाली अति तर्जा। 

मुठिका मारि महाधुनि गर्जा।।


ऐसा कहकर महा अभिमानी बालि सुग्रीव को तिनके के समान जानकर चला। दोनों आपस में भिड़ गए। बालि ने सुग्रीव को बहुत धमकाया और घूंसा मारकर बड़े जोर से गरजा। गरजना तो था ही, अहंकारी की आवाज ऊँची हुआ ही करती है। तारा ने जो भी उसे समझाया उसने रत्ती भर भी उस पर कान नहीं किए। तभी तो गोस्वामी जी उसके लिए 'महाअभिमानी' शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। कैसा अजीब गणित है? 


भिड़ने तो सुग्रीव भी जा रहा है लेकिन साथ में प्रभु श्रीराम जी हैं और सामने बालि रूपी काल। उसी समय भिड़ने बालि भी जा रहा है लेकिन साथ में केवल अहंकार है और सामने साक्षात भगवान। और भगवान को अहंकार बिलकुल भी प्रिय नहीं है। इसे वे बिना तोड़े रह ही नहीं सकते। लेकिन बालि के अहंकार ने उसकी आँखों पर अज्ञानता की ऐसी पट्टी बांध रखी है कि उसे अपना हारा हुआ भविष्य दृश्यमान ही नहीं हो रहा। बालि की दयनीय मनोस्थिति तो देखिए कि सुग्रीव को तृण के समान जान रहा है− 'तृन समान सुग्रीवहिं जानी' तृण की वैसे तो कोई औकात नहीं होती लेकिन जब वह तृण श्रीराम जी के हाथों में आ जाए तो वह मात्र तृण नहीं अपितु 'रामबाण' हो जाता है। इन्द्र पुत्र ज्यंत पर श्रीराम जी ने एक तृण ही तो छोड़ा था। जिसके कारण उसे कैसे तीनों लोकों में दौड़−दौड़कर प्राणों की भीख माँगनी पड़ गई।

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रावण की अशोक वाटिका में माता सीताजी के पास भी एक तृण ही तो था। जो उनका रक्षा कवच बनकर रावण के समक्ष डटा खड़ा था। और इध्र बालि भी सुग्रीव को तृण के ही मानिंद मान रहा है। क्या बालि, सुग्रीव को तृण की भाँति मसल पाता है। जानने के लिए जुड़े रहिए ज्ञान गंगा से...क्रमशः...जय श्रीराम।


-सुखी भारती

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