By अभिनय आकाश | Nov 19, 2024
मुज़फ़्फ़र रज़्मी का शेर है 'ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने, लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई"
वैसे तो भारत में चुनाव को लोकतंत्र का उत्सव कहा जाता है। लेकिन कई लोग ऐसे भी हैं जो मतदान के दिन मिले अवकाश को एक अतिरिक्त मिली छुट्टी की तरह ले घूमने निकल जाते हैं। उन्हें लगता है कि एक वोट से कौन सी दुनिया बदल जाएगी। इसी सोच की वदह से हर बार हजारों वोट बेकार चले जाते हैं और नतीजा कुछ का कुछ हो जाता है। देश की सरकारों को तो छोड़िए देशों का नक्शा तक बदल जाने की कहानी भी इतिहास में दर्ज है और उसका सबसे मुफीद उदाहरण सियालकोट का है। जब वोट नहीं देने की सजा कई पीढियों को मिली।
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह का एक वीडियो क्लिप सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है। इस वीडियो क्लिप में वो एक पुरानी घटना का जिक्र करते हुए बताते हैं कि कैसे मतदाताओं की आरामपरस्ती और लापरवाही से एक भाग भारत का हिस्सा बनते बनते रह गया था। वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह अपने वीडियो में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के एक जिला सियालकोट के बारे में बताते हैं। सियालकोट की दूरी लाहौर से 135 किलोमीटर और जम्मू से सिर्फ 42 किलोमीटर। बंटावड़े के वक्त का जिक्र करते हुए प्रदीप सिंह ने अपने वीडियो में बताया कि असम के बड़े नेता गोपीनाथ बार्दिलाई चाहते थे कि सियालकोट भारत में रहे। सियालकोट उस वक्त हिंदू बहुल इलाका था। फिर भी तय हुआ कि इसका फैसला जनमत संग्रह से होगा।
प्रदीप सिंह बताते हैं कि जनमत संग्रह की तारीख तय हो गई और वोट का तरीका तय हो गया। कुछ लोग लाइनों को देखकर कुछ देर इंतजार में खड़े रहे कि शायद ये लाइन छोटी हो जाए, शायद कम हो जाए। तो वोट देकर जाएंगे। लेकिन वो भी थोड़ी देर बाद थक गए या उन्हें अपने आराम की याद आ गई। कई लोग लाइन में शामिल हुए बिना घर लौट गए। इस जनमत संग्रह का नतीजा ये आया कि 55 हजार मतों से ये प्रस्ताव पास हुआ कि सियालकोट को पाकिस्तान में शामिल किया जाए। सियालकोट भारत में शामिल होते होते पाकिस्तान में चला गया। इसकी वजह 1 लाख हिंदुओं का वोट नहीं करना रहा। उस समय सिलालकोट में हिंदुओं की कुल आबादी 2 लाख 31 हजार थी। उनमें से एक लाख ने वोट नहीं किया और 55 हजार से ये प्रस्ताव गिर गया।
1946 में जिन्ना ने जब डायरेक्ट एक्शन की काल दी तो उसका कहर सियालकोट में भी बरपा। हिंदू औरतों की इज्जत लूटी गई और उनकी हत्या की गई। बड़े पैमाने पर कत्लेआम हुआ। जो लोग आराम करने के लिए गए थे वो हमेशा के लिए आराम की नींद सुला दिए गए। 1951 में गणना के वक्त सियालकोट में हिंदुओं की आबादी केवल 10 हजार बची। वहीं 2017 के आंकड़ों के अनुसार सियालकोट में हिंदुओं की आबादी 500 थी। वर्तमान में ये और भी कम हो सकते हैं। लेकिन उस दिन अगर सियालकोट में हिंदुओं ने वोट किया होता तो वहां के हिंदू जिंदा होते। वोट न देने का क्या असर हुआ ये आप इससे समझ सकते हैं।