By अंकित सिंह | Jun 27, 2023
कर्नाटक चुनाव खत्म होने के बाद भाजपा और कांग्रेस दोनों का फोकस पूरी तरीके से मध्यप्रदेश पर है। 2024 के लिहाज से मध्यप्रदेश काफी अहम राज्य है। मध्यप्रदेश में कुल 230 विधानसभा की सीटें हैं। फिलहाल राज्य में भाजपा की सरकार है। भाजपा और कांग्रेस की ओर से मध्यप्रदेश में पूरी ताकत लगाई जा रही है। हालांकि, भाजपा के लिए चुनौती ज्यादा है। बीच में 15 महीनों को हटा दे तो पिछले 18 सालों से मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपना चौथा कार्यकाल पूरा कर रहे हैं। ऐसे में पार्टी के सामने जहां सत्ता विरोधी लहर की चुनौती होगी तो वही गुटबाजी को लेकर भी लगातार खबरें आती रहती हैं। मध्यप्रदेश की इस बार के चुनाव में भाजपा के लिए सिंधिया फैक्टर बहुत बड़ा है।
2020 में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह से मनमुटाव के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से बगावत कर दी थी। उनके साथ लगभग 20 विधायकों ने भी कांग्रेस छोड़ दिया था। इसी के बाद मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिर गई थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थक विधायक भाजपा में शामिल हो गए थे। भाजपा ने एक बार फिर से शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में अपनी सरकार बना ली। पिछले 3 वर्षों से मध्य प्रदेश में सरकार स्थिर रही है। लेकिन मनमुटाव की भी खबरें खूब आती रही हैं। सिंधिया के दबदबे वाले क्षेत्र में यह मनमुटाव ज्यादा है। क्षेत्र के पुराने भाजपा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को लेकर सहज नहीं है और यही कारण है कि मनमुटाव और टकराव की खबरें लगातार आती रहती हैं। गुना से 2019 में सिंधिया को हराने वाले केपी यादव के मौका मिलने पर सिंधिया पर वार करने से नहीं चूकते हैं।
क्षेत्र के बात करें भाजपा सांसद केपी यादव के भाई अजय यादव पहले ही कांग्रेस में शामिल हो गए थे। इसके अलावा पूर्व सांसद माखन सिंह सोलंकी ने भी कांग्रेस का दामन थाम लिया था। अशोकनगर जिले में भाजपा के तीन बार के विधायक राव देवराज सिंह यादव के बेटे राव यादवेंद्र सिंह यादव की कांग्रेस में शामिल हो गए। इसके अलावा नेताओं की लंबी फेहरिस्त है जो कि कांग्रेस में शामिल होने की कोशिश कर रहे हैं या शामिल हो चुके हैं। इसके अलावा शिवपुरी जिले के पूर्व भाजपा अध्यक्ष राकेश कुमार गुप्ता फिर कांग्रेस में लौट चुके हैं। उन्हें ज्योतिरादित्य सिंधिया का बेहद करीबी माना जाता था। जिन सीटों पर सिंधिया के समर्थक विधायक हैं, वहां के कई भाजपा नेता नाराज चल रहे हैं। इतना ही नहीं, सिंधिया समर्थक मंत्री और भाजपा के मंत्रियों में वार-पलटवार का दौर देखने को मिल जाता है।
भाजपा की ओर से लगातार नाराज नेताओं को मनाने की कोशिश हो रही है। कर्नाटक में मिली हार के बाद भाजपा स्थानीय नेताओं को ज्यादा महत्व देना चाहती है। नाराज नेताओं को कहीं ना कहीं सेटल करने की बात भी हो रही है। हालांकि, सिंधिया खेमा के नेताओं में भी इस बात को लेकर शंका है कि क्या उनके टिकट इस बार बरकरार रहेगी या नहीं?
2018 के विधानसभा चुनाव में ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में कांग्रेस पार्टी की जीत के पैमाने ने मध्य प्रदेश में कई दर्शकों को चौंका दिया। 34 में से 26 सीटें जीतकर सबसे पुरानी पार्टी न केवल 15 साल बाद सत्ता में लौटी, बल्कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को भी झटका मिला। यह इलाका ज्योतिरादित्य सिंधिया के दबदबे वाला है। 2020 के उपचुनावों के बाद यहां कांग्रेस की संख्या घटकर 17 हो गई है, जबकि भाजपा ने अपनी ताकत सात से बढ़ाकर 16 कर ली है।
कुछ समय पहले तक ग्वालियर-चंबल बेल्ट में लोगों ने सिंधिया समर्थकों को उनके प्रति अपनी वफादारी का इजहार करते हुए देखा गया। यहां तक की उनके वाहनों में भी भाजपा के प्रतीक की तुलना में उनकी तस्वीरों को अधिक प्रमुखता से इस्तेमाल देखा गया। भाजपा के विपरीत, कांग्रेस में इस क्षेत्र में उनके कद का कोई नेता नहीं है। जबकि बीजेपी में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर और गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा जैसे वरिष्ठ नेता हैं, जो राज्य में शीर्ष पद के लिए दावेदार और आकांक्षी दोनों हैं। इस क्षेत्र में मुरैना, ग्वालियर, भिंड, शिवपुरी, श्योपुर, दतिया, अशोकनगर और गुना यानी आठ जिले शामिल हैं। ये वे क्षेत्र जो तत्कालीन ग्वालियर साम्राज्य का हिस्सा थे और ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनीतिक जागीर थी।
भाजपा ने 2008 और 2013 के चुनावों में ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन किया था। जब उसने क्रमश: 27.24 और 37.96 प्रतिशत के वोट शेयर के साथ 16 और 20 सीटें जीती थीं। 2018 में ये वोट शेयर घटकर 34.54 पर आ गया। इसकी तुलना में कांग्रेस ने 2018 में अपना वोट शेयर बढ़ाकर 42.19 प्रतिशत कर लिया। भाजपा ने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में असाधारण रूप से अच्छा प्रदर्शन किया था। हालांकि, जुलाई 2022 में हुए मेयर के चुनाव में बीजेपी को सिंधिया और तोमर के गृह क्षेत्र माने जाने वाले ग्वालियर और मुरैना में हार का सामना करना पड़ा था। चौहान, सिंधिया और तोमर सहित सभी वरिष्ठ नेताओं ने महापौर चुनाव में प्रचार किया था। इसके पीछे की वजह बीजेपी के समर्थकों के एक धड़े की नाराजगी को भी बताया जा रहा है।
बड़ा सवाल यही है कि जितना लोगों के सामने भाजपा और सिंधिया खेमा एकजुट नजर आता है, क्या हकीकत में ही उतना है। कहीं ऐसा तो नहीं कि भाजपा खेमे के भीतर की नाराजगी पार्टी पर विधानसभा चुनाव में भारी पड़ जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभी से ही मध्यप्रदेश में अपनी ताकत लगाने की शुरुआत कर चुके हैं। शिवराज सिंह चौहान भी जमीन पर रहकर काम कर रहे हैं। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का दावा है कि शिवराज के लिए इस बार महाराज खेमा मुश्किलें पैदा कर सकता है। भाजपा और उसके आलाकमान के लिए बड़ी चुनौती होगी कि सिंधिया खेमे को कैसे पार्टी के भीतर एकजुट रखा जाए। साथ ही साथ अपने कैडर के नेताओं को कैसे संतुष्ट किया जाए।
राजनीति में जितना सब पर्दे के सामने अच्छा अच्छा लगता है, पर्दे के पीछे उतना अच्छा होता नहीं है। नेताओं की अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा होती है और इस दौर में वे एक दूसरे से आगे निकलना चाहते हैं। यही कारण है कि चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों में भगदड़ की स्थिति रहती है। नेता अपना पाला बदलते हैं और जनता सब कुछ देखती और समझती रहती है। यही तो प्रजातंत्र है।