By अभिनय आकाश | Jun 13, 2020
17 जुलाई, 2014 की बात है, घड़ी में करीब साढ़े तीन बजे होंगे। एरिक गार्नर नाम का व्यक्ति, उम्र, 43 साल। उसका किसी से झगड़ा हो रहा था। वहां से गुज़र रहे पुलिसवालों की नज़र पड़ी। वे उस ओर बढ़े। उन्होंने एरिक को घेर लिया, कहने लगे, तुम खुली सिगरेट बेच रहे हो। ये सुनकर एरिक झल्ला पड़े। उन्होंने कहा- हर बार मुझे देखते ही तुम लोग मुझसे भिड़ जाते हो। इससे मैं थक गया हूं, मैंने कुछ नहीं किया, कुछ नहीं बेचा। प्लीज, मुझे अकेला छोड़ दो। न्यूयॉर्क सिटी पुलिस डिपार्टमेंट के ऑफिसर ने एरिक को हथकड़ी लगाने की कोशिश की। जवाब में एरिक ने हथकड़ी लगाने के लिए हाथ आगे बढ़ाने से मना कर दिया था।
इसके बाद एक पुलिस ऑफिसर ने उसे जमीन पर गिराकर उसकी गर्दन को कोहनी से दबा दिया। जूडो में इस तरह गर्दन को लपेटना चॉकहोल्ड कहलाता है। गंभीर अस्थमा के मरीज एरिक गिड़गिड़ाते हुए कहने लगे- आई कान्ट ब्रीद, आई कान्ट ब्रीद.. एक स्वर में, बिल्कुल छटपटाते हुए लगातार, और आठ बार, और फिर वो बेहोश हो गए। कुछ मिनटों बाद वहां ऐम्बुलेंस आई। ये पता होते हुए कि एरिक दम घुटने से बेहोश हुए हैं, ऐम्बुलेंस के लोगों ने न उन्हें ऑक्सीजन दिया, न उनका कोई इमरजेंसी उपचार किया। बेहोश एरिक बस स्ट्रेचर पर लादकर ऐम्बुलेंस में डाल दिए गए। कुछ मिनटों बाद जब ऐम्बुलेंस रिचमंड यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर पहुंची, तो एरिक दुनिया से जा चुके थे। जिसके बाद तीन शब्द उसके जीवन के आख़िरी तीन शब्द बन गए। लेकिन ये तीन शब्द आपको 244 साल पहले आज़ाद हुए एक देश का ऐसा कुरूप चेहरा दिखाते हैं जो उसके दावों से उलट न तो महान है और न गौरवशाली। बल्कि इनसे उलट ये तीन शब्द आपको दुनिया के सबसे महान कहे जाने वाले लोकतंत्र के उन 401 सालों का इतिहास बताता है, जो अमानवीयता और दोहरे मानकों से पटा पड़ा है।
जिसके बाद एरिक की मौत से अमेरिका में ऐसा मूवमेंट शुरू हुआ जिसका नाम उस जान गंवाने वाले इंसान के कहे आखरी शब्द थे- आई कान्ट ब्रीद। ये वाक्य अमेरिका की अफ्रीकन-अमेरिकन आबादी का नारा बन गया। उस आबादी का, जिसका एक सदस्य उन दिनों अमेरिका का राष्ट्रपति था।
क्या ये महज एक संयोग था कि 1994 में पुलिस विभाग ने चॉकहोल्ड करने पर बैन लगा दिया था, मगर फिर भी पुलिसवाले ने सरेआम इसका इस्तेमाल किया? क्या ये भी संयोग था कि मरने वाले एरिक अश्वेत थे और उनका दम घोंटने वाला पुलिस अफ़सर श्वेत था?
सफेद वर्चस्व और गुलाम
अगस्त 1619 में एक पुर्तगाली जहाज अफ्रीकी देश अंगोला के 20 काले लोगों को लेकर अमेरिका के जेम्स टाउन पहुंचा था। ब्रिटिश कालोनी आफ बर्जिनिया पर उस समय अंग्रेजों का कब्जा था। कहते हैं तभी से अमेरिका में दास प्रथा की शुरूआत हुई। उसके बाद पानी के जहाजों को गुलाम भरने के लिहाजे से बनाया जाने लगा। उनके साथ इतनी दरिंदगी की जाती जिसे बयां करना भी मुश्किल है।
2019 में न्यू यॉर्क टाइम्स ने इस गुलामी प्रथा के 400 साल पूरे होने पर एक ख़ास रिपोर्ट की थी। इसका नाम था- प्रॉजेक्ट 1619। इस कहानी में जिन 20 गुलामों का ज़िक्र हुआ, उनके साथ ही अमेरिका की लंबी गुलामी प्रथा की शुरुआती हुई। इन 20 गुलामों को अमेरिका में इसलिए लाया गया था, ताकी वे अपनी जी-तोड़ मेहनत से ज़मीनों को उपजाऊ बनाएं, वहां फसलें उगाएं और उनके मालिक अपने गुलामों की मेहनत के बल पर कमाए गए पैसे से फिर और गुलाम खरीदें।
1662 में बनाए गए वर्जीनिया लॉ ने गुलामी को हेरेडेटरी कर दिया। सरल भाषा में कहे तो एक गुलाम मां का बच्चा भी गुलाम माना जाएगा। इस क़ानून की एक बहुत ही महत्वपूर्ण लाइन है ध्यान से सुनिएगा इसे ''देश में पैदा हुए सारे बच्चे बंधुआ या आज़ाद, क्या माने जाएं ये उनकी मां के स्टेटस से तय हो''
उन्नीसवीं सदी की शुरूआत तक काले लोगों को अमेरिका में इंसान नहीं माना जाता था। धीरे -धीरे उत्तरी राज्यों में उन्हें कानूनन इंसान का दर्जा मिला। पर दक्षिणी राज्यों में 1862 से 1868 तक चले गृहयुद्ध के बाद ही यह मुमकिन हुआ।
कल्पना करें कि गुलामी से छूटे उस वक्त के सबसे बड़े अश्वेत नेता फ्रेडरिक डगलस को 12 जुलाई, 1854 में वेस्टर्न रिजर्व कॉलेज में बाकायदा तर्कों के साथ समझाना पड़ा था कि नीग्रो नस्ल के लोग इंसानियत का हिस्सा हैं!
साल 1865 में अमेरिका के संविधान में 13वां संशोधन के बाद गुलामी प्रथा खत्म हो गई। इसे अबोलिशन ऑफ़ स्लेवरी कहते हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल कि क्या इसके बाद बराबरी आ गई? जवाब है- नहीं... अमेरिका में अश्वेत कमतर ही समझे जाते रहे, उनके रहने के इलाके अलग थे, उनके बच्चें अलग स्कूल में जाते थे।
1889 से 1922 के बीच अमेरिका में कुल 3436 अश्वेतों को लिंचिंग में मार डाला गया था। 1918 से 1921 के बीच अमेरिका में 28 अफ्रीका मूल के अमेरिकी नागरिकों को भीड़ ने जलाकर मार डाला था।
बंगाल, अकाल और व्हाइट मैन्स बर्डन
77 वर्ष पहले की एक घटना की याद दिलाते हैं जब बंगाल में अकाल अपने चरम पर था और करीब 40 लाख लोग भूख से मर गए थे। मधुश्री मुखर्जी अपनी पुस्तक में दावा करती हैं कि बंगाल में जब अकाल अपने चरम पर था तब करीब 70 हजार टन चावल भारत से बाहर भेज दिया गया। ये उस दौर की बात है जब अंग्रेज भारत जैसे देशों को गुलाम बनाना अपना नैतिक अधिकार समझते थे। अंग्रेजों ने इसे व्हाइट मैन्स बर्डन की संज्ञा दी थी। अंग्रेजों का मानना था कि काले और दूसरे अश्वेत लोगों को सभ्य इंसान बनाना अंग्रेजों की जिम्मेदारी है और वो इसे अपने कंधों पर उठाते रहेंगे। उनका मानना था कि वो भारत के लोगों को इंसान बनाने के लिए आए हैं।
रंगभेद के कारण अमेरिकी होटल में लोहिया को नहीं जाने दिया गया
डॉ. राम मनोहर लोहिया अमेरिका दौरे पर थे। वहां कई विश्वविद्यालयों में और नागरिक अधिकार संगठनों में उनके लेक्चर हो रहे थे। 27 मई 1964 को वे अमेरिका के जैक्सन शहर पहुंचे, जहां एक कॉलेज में उनका लेक्चर था। हवाई अड्डे पर स्वागत के बाद लोहिया अमेरिकी मित्रों के साथ सीधे एक होटल में खाना खाने गए, किंतु उन्हें होटल में घुसने नहीं दिया गया, क्योंकि होटल में सिर्फ गोरे ही जा सकते थे। लोहिया मानते थे कि राष्ट्रों की सीमाएं भौगोलिक बंटवारा है, परंतु इंसान के साथ कहीं भी बंटवारा नहीं होना चाहिए।
विदेशी धरती पर लोहिया रंगभेद का यह अन्याय सहन नहीं कर सके। उन्होंने वहीं पर आंदोलन की घोषणा की कि अगले दिन वे फिर आएंगे और जबरन उसी होटल में प्रवेश करेंगे। दूसरे दिन लोहिया तय समय पर होटल पहुंचे। उन्हें प्रवेश द्वार पर ही रोक दिया गया। पुलिस पहले से बुला ली गई थी। वहां अपने संबोधन में लोहिया ने किसी भी मानव का रंगभेद के कारण नागरिक अधिकारों से वंचित किए जाने को जंगलीपन कहा। पुलिस और होटल मैनेजर ने लोहिया से वापस जाने को कहा, लेकिन लोहिया नहीं माने। तब पुलिस अधिकारी ने आगे बढ़कर कहा, ‘मुझे खेद है, आपको गिरफ्तार करना पड़ेगा।’लोहिया के गिरफ्तार होने की सूचना अमेरिका में करंट की तरह फैल गई। भारतीय दूतावास के अधिकारी होटल पहुंचे। एक भारतीय की अमेरिका में रंगभेद के कारण गिरफ्तारी पर अमेरिकी साख को भी बट्टा लगता दिखा। अमेरिकी गृह विभाग के भी अधिकारी हरकत में आए और लोहिया रिहा किए गए। आनन-फानन में अमेरिकी गृह विभाग ने उनसे माफी मांगने के लिए एक बड़े अधिकारी को उनके पास भेजा। तब लोहिया ने कहा, ‘माफी मुझसे क्यों? अमेरिकी राष्ट्रपति को दुनिया के तमाम अश्वेत लोगों से माफी मांगनी चाहिए, जिनके प्रति गोरी चमड़ी वाले अन्याय कर रहे हैं।
माइकल ब्राउन, तामिर राइस, वॉल्टर स्कॉट की हत्या बनी थी सुर्खियां
9 अगस्त 2014 को मिसौरी के फर्ग्युसन शहर में माइकल ब्राउन जूनियर को एक श्वेत पुलिसकर्मी ने गोली मार दी थी। 18 साल के माइकल की मौके पर ही मौत हो गई थी। माइकल ब्राउन को सामने से 6 गोलियां मारी गई थी। वो भी तब जबकि उसके पास कोई हथियार नहीं था। 22 नवंबर 2014 को 12 साल के अश्वेत तामिर राइस को पुलिस ने गोली मार दी थी। ओहियो को क्लीवलैंड में हुई इस वारदात से भी तब अमेरिका सुलग उठा था। 12 साल का तामिर एक खिलौना गन लेकर रोड पर निकला था। उसे रोककर पूछताछ की बजाय 46 साल के श्वेत पुलिसकर्मी टिमोथी लेमैन ने तामिर को सीधे गोली मार दी थी। आरोपी पुलिसवाले का कहना था कि उसे कॉल मिली थी कि एक अश्वेत लड़का गन लेकर रोड पर है और वो आते-जाते लोगों को निशाना बना सकता है। समय के साथ ऐसी घटनाएं कम होती गईं लेकिन पूरी तरह रुक नहीं पाईं। कुछ दिनों पहले भी अमेरिका में एक अश्वेत को अपना ताज़ा शिकार बनाया गया। 8 मिनट 46 सेकेंड के वीडियो में पुलिस ऑफिसर डेरेक शॉविन जॉर्ज़ फ़्लॉयड की गर्दन को घुटने से दबाता नजर आया। इस दौरान जॉर्ज बार-बार कहता सुनाई दे रहा था कि उसे सांस लेने में दिक्कत हो रही है। सांस लेने में दिक्कत की वजह से जॉर्ज बेहोश हो गया और फिर उसकी मौत हो गई। नतीजा कई शहरों में भारी आगजनी और हिंसा के रूप में सामने आया।
शरीर का रंग उसके स्वभाव का परिचायक कभी हो ही नहीं सकता। काला होना कोई श्राप नहीं है। क्या काला रंग वाकई इतना बुरा होता है जितना कुछ लोग उसे मानते हैं या ये महज दिमाग के नजरिये का मामला है कि काले रंग को गलत चीजों के साथ जोड़ दिया है। जीवन में आगे बढ़ना है तो पेंसिल की काली रेखा की जरूरत होगी या फिर इस डिजीटल दुनिया में ओ.एम.आर. शीट के काले गोले जो आपको सफलता के दरवाजे तक ले जायेंगे। काले रंग की विशेषता यह है कि यह रंग कुछ भी परावर्तित करने की बजाए सब कुछ सोख लेता है। यह हमें दूसरों की बुराई, नीचता, कटुता, भेदभाव, ईर्ष्या, द्वेष को सोखकर उसके बदले अच्छाई, प्रेम, शांति, सुख आदि को बहिगृत करने की प्रेरणा देता है।